गुवाहाटी हाईकोर्ट ने गुरुवार को असम के कामरूप जिले के दो निवासियों की याचिका पर राज्य सरकार को नोटिस जारी किया है। उन परिवारों का दावा है कि असम पुलिस ने 25 मई को उनके परिवार के सदस्यों को हिरासत में लेने के बाद उन लोगों को कोई जानकारी नहीं दी गई है। इस याचिका को अबू बकर सिद्दीक और अकबर अली की ओर से दायर की गई थी। उन दोनों परिवार को साल 2017 में बांग्लादेशी नागरिक घोषित कर दिया गया था।

सिद्दीक और अकबर का भतीजा तोराप अली ने गुवाहाटी हाईकोर्ट में याचिका दायर है। तोराप ने कहा कि उसे आशंका है कि उसके चाचाओं को “अवैध रूप से बांग्लादेश में धकेले जाने का खतरा हो सकता है।” याचिका में कहा गया कि 25 मई को हिरासत में लिए जाने के दौरान, दोनों व्यक्तियों को “अपने परिवार के सदस्यों से बात करने या कानूनी सलाहकार से संपर्क करने का मौका नहीं दिया गया”, और कहा गया कि “अधिकारी बहुत ही विवेकपूर्ण हैं।” गुरुवार को सुनवाई के दौरान पुलिस याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील जे पायेंग ने कहा कि दोनों व्यक्ति सीमा पुलिस की हिरासत में हैं।

हाईकोर्ट में जज कल्याण राय सुराना और मालाश्री नंदा की की पीठ ने राज्य सरकार को नोटिस जारी किया। कोर्ट ने भारत सरकार, असम राज्य, असम पुलिस और जिला प्रशासन को नोटिस जारी किया है। इसके पीछे की वजह दी गई है कि “याचिकाकर्ताओं के उक्त दो चाचाओं की स्थिति के बारे में निर्देश प्राप्त किए जा सकें, जिसमें यह भी शामिल है कि वे वर्तमान में कहां रखे गए हैं।”

2017 में दोनों को भेजा गया था जेल

याचिका में दोनों व्यक्तियों की बांग्लादेश में “मनमाने ढंग से वापस धकेलने” पर रोक लगाने तथा उनकी पिछली जमानत पर रिहाई की मांग की गई है। याचिका के अनुसार दोनों व्यक्तियों को 2017 में विदेशी घोषित किए जाने के बाद गोलपाड़ा जेल में रखा गया था। हालांकि साल 2020 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बाद जमानत पर रिहा कर दिया गया था कि दो साल से अधिक समय तक हिरासत में रहने वालों को जमानत पर रिहा किया जा सकता है।

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याचिका में यह भी कहा गया है कि दोनों ने फास्ट ट्रैक कोर्ट के आदेशों के खिलाफ हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया था। याचिका में तर्क दिया गया है कि दोनों व्यक्तियों को “विदेशी न्यायाधिकरण की राय को प्रभावी ढंग से चुनौती देने का अवसर नहीं मिला है” और “किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करना और उसे विदेशी न्यायाधिकरण की घोषणा के खिलाफ भारतीय कानून के तहत उपलब्ध कानूनी उपायों का उपयोग किए बिना निर्वासन की व्यवस्था करना व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का घोर उल्लंघन है।”

इसमें यह भी तर्क दिया गया है कि विदेशी न्यायाधिकरण केवल तभी घोषित करते हैं जब कोई व्यक्ति यह साबित नहीं कर पाया हो कि वह भारत का नागरिक है, और उनका आदेश “राष्ट्रीयता का सकारात्मक निर्धारण” नहीं करता है, जो “हिरासत में रखने के लिए आवश्यक है।”

याचिका में कहा गया है, “किसी व्यक्ति के लिए उपलब्ध सभी मंचों द्वारा इस तरह के निर्णय को अंतिम रूप दिए जाने से पहले उसे पीछे धकेलना, भारत के संविधान के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों से मनमाने ढंग से वंचित करने के समान है।” मंगलवार को याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता हाफिज रशीद अहमद चौधरी ने दलीलें रखीं। इस मामले में अगली सुनवाई 4 जून को तय की गई है।