Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक नाबालिग से बलात्कार के दो आरोपी को इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा दी गई जमानत को रद्द कर दिया। शीर्ष अदालत ने यह देखा कि पीड़िता को जमानत याचिका का विरोध करने का मौका नहीं दिया गया, जो कानूनी प्रावधानों का घोर उल्लंघन है।
बार एंड बेंच की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस बेला एम त्रिवेदी और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने कहा कि हाई कोर्ट ने दंड प्रक्रिया संहिता (CRPC) की धारा 439 (1 ए) और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम (एससी/एसटी अधिनियम) की धारा 15 ए (3) की आवश्यकताओं की अनदेखी करते हुए लापरवाही और सतही तरीके से जमानत दे दी थी।
धारा 439(1ए), सीआरपीसी के अनुसार, धारा 376 (3) (सोलह वर्ष से कम उम्र की लड़की से बलात्कार) और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के संबंधित प्रावधानों के तहत अपराध करने के आरोपी व्यक्तियों की जमानत की सुनवाई के दौरान मुखबिर या उनके प्रतिनिधि की उपस्थिति आवश्यक है। इसी प्रकार, एससी/एसटी अधिनियम की धारा 15ए(3) विशेष लोक अभियोजक को जमानत सुनवाई सहित सभी अदालती कार्यवाहियों के बारे में सूचना देने के लिए बाध्य करती है।
शीर्ष अदालत ने कहा कि इस मामले में प्रतिवादियों के कहने पर सीआरपीसी की धारा 439(1ए) और एससी/एसटी अधिनियम की धारा 15ए(3) में निहित उक्त वैधानिक प्रावधानों का घोर उल्लंघन हुआ है। हाई कोर्ट ने भी अपने आदेश में दोनों अधिनियमों की उक्त अनिवार्य आवश्यकता पर विचार नहीं किया है और संबंधित प्रतिवादियों को बहुत ही लापरवाही और सतही तरीके से और कोई ठोस कारण बताए बिना जमानत दे दी है, हालांकि संबंधित प्रतिवादी प्रथम दृष्टया बहुत गंभीर अपराधों में शामिल हैं।
सुप्रीम कोर्ट पीड़िता द्वारा दायर दो आपराधिक अपीलों पर विचार कर रही थी, जिसमें 2021 में उसके साथ बलात्कार के दो आरोपियों को जमानत दिए जाने को चुनौती दी गई थी। आरोपों में धारा 323 (चोट पहुंचाना), 363 (अपहरण), 376डीए (सोलह वर्ष से कम उम्र की महिला से सामूहिक बलात्कार), 506 (आपराधिक धमकी) शामिल हैं), और आईपीसी की धारा 392 (डकैती), यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (पोक्सो अधिनियम) और एससी/एसटी अधिनियम के तहत आरोप लगाए गए हैं।
पीड़िता ने तर्क दिया कि हाई कोर्ट ने उसे पक्षकार बनाए बिना या उसकी उपस्थिति सुनिश्चित किए बिना जमानत दे दी, जिससे सीआरपीसी की धारा 439(1ए) और एससी/एसटी अधिनियम की धारा 15ए(3) का उल्लंघन हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने इन दलीलों को सही पाया तथा कहा कि हाई कोर्ट ने पीड़ित के अधिकारों की रक्षा के लिए अनिवार्य प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों की अनदेखी करते हुए सतही तरीके से जमानत दे दी थी।
इसलिए, इसने अपील को स्वीकार कर लिया और इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा पारित जमानत आदेशों को रद्द कर दिया। दोनों आरोपियों को 30 दिसंबर तक संबंधित ट्रायल कोर्ट के समक्ष आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया गया।
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