कभी मयकशी पर महफिलों में हंगामा बरपाने वाले गजल गायक गुलाम अली को शायद ही कभी यह इलहाम हुआ हो कि इस हंगामे को सुरों में बांधने वाली उनकी रूहदार आवाज के आजाद हिंदुस्तान की फिजा में घुलने-मिलने के सवाल पर ही हंगामा हो जाएगा।
शिवसेना को एतराज है कि गुलाम अली महाराष्ट्र में अपने सुरों की महफिल सजाएं क्योंकि पाकिस्तान की धरती, भारत विरोधी तत्वों और आतंकवाद को पालती-पोसती है। महाराष्ट्र में दुनिया के सबसे वांछित माफिया डॉन दाऊद इब्राहीम के समधी जावेद मियांदाद की मेहमाननवाजी तो हो सकती है, पर सुरों के सरताज गुलाम अली की आवाज नहीं गूंज सकती।
ऐसे में आवाज को आतंकवादियों/ जेहादियों की गोलियों के समकक्ष रखने की यह कोशिश कट्टरता का जवाब कट्टरता से देने की एक कवायद भर ही कही जाएगी। गोकशी को लेकर सांप्रदायिकता की आग में झुलसते देश में यह प्रयास धधकती आग को और ज्यादा भड़काने की साजिश ही है। महात्मा गांधी के देश में, जहां से अहिंसा का पाठ सारे जग को पढ़ाया जाता है, यह वैचारिक हिंसा खतरनाक है।
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खास तौर से तब जबकि देश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है जो पहले ही अपनी परंपरा वादी छवि और ‘कट्टरता’ के कारण विरोधियों के निशाने पर है। यह संयोग है कि जिस गुलाम अली को हिंदुस्तान में गाने से रोका गया, वे यहां देश के मशहूरो-मारूफ गजल फनकारजगजीत सिंह की स्मृति में स्वरांजलि देने के लिए आने वाले थे। कम से कम मौके का खयाल तो रखा जाता। लेकिन एक ‘धर्मांध संगठन’ का इससे क्या वास्ता?
शिवसेना की नजर में यह विरोध सैद्धांतिक हो सकता है। लेकिन इस सिद्धांत की नींव उनका परंपरागत वोट बैंक है जिसे वह अपने पास सहेज कर रखना चाहती है। प्रदेश में भाजपा की सत्ता जरूर है। लेकिन वहां से उन्हें इस पर कभी मुखर समर्थन की आशा नहीं। खास तौर पर तब जबकि बिहार में चुनाव दहलीज पर है और भाजपा अपने परंपरागत हिंदू वोट बैंक को संभालना तो चाहती है, लेकिन बाकी समुदायों के समर्थन को खोना भी नहीं चाहती। लिहाजा मौन में ही भलाई। फिर चाहे वह गुलाम अली की महफिल का रद्द होना हो या फिर देश में गोकशी को लेकर चल रही बहस।
भाजपा के लिए समस्या यह भी है कि उसके नेता भी उसी वोट बैंक में से उभर कर आए हैं। साक्षी महाराज की आवाज थमे तो योगी आदित्यनाथ हैं। उन पर कुछ अंकुश लगे तो साध्वी प्राची हैं, संगीत सोम हैं, निरंजन भारती हैं। और इन सब पर भारी अमित शाह हैं। ताजा आवाज हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज की है। पहले श्रीमद्भगवद् गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ बनाने की मांग उठती है। इसके तुरंत बाद उसे स्कूल पाठ्यक्रम में शामिल कर लेने वाले इसी हरियाणा प्रदेश से अब गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने की मांग है। विज का तर्क लाजवाब है। बाघ तो अपनी रक्षा खुद कर सकता है। गाय को संरक्षण की जरूरत है। काश, बाघ लुप्त होने की हद तक पहुंचने से पहले अपनी रक्षा कर पाता!
बहरहाल, संगीत, कला और संस्कृति सभ्य समाज में एक-दूसरे को जोड़ने का काम करें तो उनकी सार्थकता है। विभाजित करने के लिए उनको हथियार की तरह इस्तेमाल करना सिरे से ही गैरवाजिब है। लेकिन कट्टर संगठन को यह बात कौन समझाए? यह तर्क बेदम है कि देश के कलाकारों का पाकिस्तान में विरोध होता है। उनको वहां कार्यक्रम करने की इजाजत नहीं मिलती, सो गुलाम अली के कार्यक्रम को रद्द करना सही कदम है। गांधी के देश में ‘र्इंट का जवाब पत्थर’ से देने की यह रवायत न सिर्फ देश की अंतरराष्ट्रीय मान्यता, वरन इसकी धर्मनिरपेक्षता पर भी सवाल उठाने की तरह है।
गुलाम अली जब सुरों की महफिल सजाते हैं तो उसका आनंद हिंदू या मुसलमान के कानों में छन कर नहीं जाता। वह सबके लिए एक सरीखा सुर बरसाता है। ऐसा न होता तो पाकिस्तान में हिंदी फिल्मों के लिए वैसी दीवानगी न होती जैसी की हमेशा दिखती आई है। दोनों पक्षों के बीच की दीवार के बाद भी पाकिस्तान में भारतीय अदाकारों के प्रति जबरदस्त उत्साह है। लोग भारतीय फिल्में, धारावाहिक व नाटक छुप-छुप कर देखते हैं। पाकिस्तानी हुक्मरान ऐसे ही किसी पूर्वग्रह के कारण इन फिल्मों के प्रदर्शन पर तो रोक लगा सकते हैं, लेकिन लोगों के मन से उन्हें मिटाने की कोई जुगत शायद ही कर पाएं।
धर्म के नाम पर वोट की राजनीति के प्रयास नए नहीं। और, अक्सर उनका कुछ संगठनों को सकारात्मक लाभ भी मिल जाता है। लेकिन इनका अंत कभी भी अच्छा नहीं होता और ज्यादातर समय ऐसे प्रयास प्रतिकूल प्रभाव वाले ही होते हैं। इस हादसे के बाद गुलाम अली के बारे में उत्सुकता और बढ़ेगी। कौन जाने उनकी गÞजÞलों की मांग बढ़ जाए। ऐसा हुआ तो क्या एक और हुक्मनामा आएगा कि उन्हें सुनना भी बंद कर दें! या फिर सुनने वालों को तड़ीपार कर दिया जाएगा।
हालांकि शिवसेना से भी बचकाना दिल्ली की आम आदमी सरकार के मंत्री का वह बयान है जिसमें उन्होंने गुलाम अली को राजधानी में कार्यक्रम के लिए आमंत्रित किया है। यह अलगाव की तपती आंच में अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने से ज्यादा कुछ नहीं।
ऐसे माहौल में गुलाम अली ने ठीक ही कहा कि ऐसी बातों से गायक को गाने से रोका जा सकता है, लेकिन उनकी आवाज को कैसे रोका जाएगा। एक कठमुल्लेपन या अतिवाद के खिलाफ अतिवाद का ही हथियार कितना वाजिब है? शायद गुलाम अली की यही गजल जवाब को समेटे है: बुत हम को कहें काफिर….।