बीते दिनों भारत के पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने द इंडियन एक्सप्रेस के कार्यक्रम आइडिया एक्सचेंज में हिस्सा लिया। यहां उन्होंने द इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकारों के सवालों का सवाल दिया। इस चर्चा का संचालन द इंडियन एक्सप्रेस की चीफ ऑफ नेशनल ब्यूरो (सरकार) रितिका चोपड़ा ने किया। आइए आपको बताते हैं आइडिया एक्सचेंज में पत्रकारों द्वारा एसवाई कुरैशी से किए गए पांच प्रमुख सवाल और उनके जवाब…
रितिका चोपड़ा: आपने अपनी नई किताब “डेमोक्रेसीज़ हार्टलैंड” में नेपाल को एक उज्ज्वल देश बताया है। जहांं विश्वसनीय चुनाव और संविधान में समावेशिता है, लेकिन साथ ही आपने इसकी अस्थिरता का भी जिक्र किया है। मौजूदा राजनीतिक उथल-पुथल को देखते हुए, क्या आप इस अस्थिरता को एक क्षणिक दौर के रूप में देखते हैं या यह लोकतांत्रिक अनुभव के लिए खतरा बन सकती है?
जब मैंने पढ़ाई शुरू की, तो मुझे कुछ अहम आंकड़े मिले। दुनिया के 203 देशों में से सिर्फ 8 देशों में दुनिया की 25% आबादी रहती है। इन्हीं 8 देशों में दुनिया की 40% लोकतांत्रिक आबादी भी रहती है। फिर भी यह क्षेत्र बहुत उपेक्षित है — यहां न कोई संयुक्त राष्ट्र की संस्था सक्रिय है, न अंतरराष्ट्रीय दानदाता, न ही शैक्षणिक जगत का ध्यान। जबकि यह क्षेत्र लोकतंत्र का केंद्र है और कम से कम अपने इलाके पर, अगर पूरी दुनिया पर नहीं, तो असर डालता है।
दक्षिण एशिया सिर्फ भारत तक सीमित नहीं है, यह भी एक महत्वपूर्ण बात है और यही मेरी किताब का विषय बना। हमारे कई पड़ोसी हमसे नाराज रहते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि हम अपने आकार और लोकतंत्र पर घमंड करते हैं। सच है कि हम सबसे बड़े लोकतंत्र हैं और इसमें हमारी कोई गलती नहीं। लेकिन इसके साथ ही हमें “बड़े भाई” की तरह हावी होकर नहीं, बल्कि “बड़े भाई” की तरह मार्गदर्शक और सहयोगी बनकर व्यवहार करना चाहिए।
जहां तक नेपाल की अस्थिरता का सवाल है, पिछले 70 सालों में हमारे यहां सिर्फ एक ही संविधान रहा है; उनके यहां सात संविधान रहे हैं। हम सुन रहे हैं कि आठवां संविधान भी संभव है।
पिछले पांच सालों में नेपाल में पांच प्रधानमंत्री बदल चुके थे। इस वजह से आम लोग, खासकर युवा, नाखुश थे। वे सोशल मीडिया पर अपनी नाराजगी जाहिर कर रहे थे। यही असली कारण था कि नेपाल सरकार ने सोशल मीडिया पर रोक लगाई। हालांकि उन्होंने आधिकारिक वजह यह बताई कि इन कंपनियों के दफ्तर काठमांडू में नहीं हैं और सरकार इन्हें नियंत्रित नहीं कर सकती। इसके बाद करीब 27 सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म बंद कर दिए गए।
लेकिन सरकार यह नहीं समझ पाई कि सोशल मीडिया अब हर देश की ज़िंदगी का अहम हिस्सा बन चुका है। जब अचानक पूरा सोशल मीडिया बंद हो गया तो लोगों का आपसी संपर्क टूट गया। राजनीति की बात छोड़ दें, लोगों के निजी मामले, स्वास्थ्य, परिवार से जुड़ी बातें, विदेश से आने वाले पैसे – सब पर असर पड़ा। इसी कारण लोग सड़कों पर उतर आए।
यह युवा आंदोलन लोकतंत्र के खिलाफ नहीं था, बल्कि बेहतर और साफ-सुथरे लोकतंत्र के लिए था, लोकतंत्र को गहराई देने के लिए था। शुरू में उनका विरोध शांतिपूर्ण था, लेकिन सरकार अहंकारी थी। उसने छात्रों और युवाओं पर गोली चलवाई, जिससे करीब 70 लोगों की मौत हो गई। इसके बाद युवाओं को रोकना नामुमकिन हो गया।
क्या यह सत्ता की लड़ाई थी? नहीं… क्योंकि उन्होंने अंतरिम प्रधानमंत्री चुनने के लिए जनमत संग्रह किया और किसी युवा नेता को चुनने के बजाय सुशीला कार्की को चुना। इससे साफ होता है कि उनका मकसद सत्ता हथियाना नहीं था।
रितिका चोपड़ा: बांग्लादेश में जो कुछ हुआ है… उसे देखते हुए क्या आपको लगता है कि नेपाल भी बांग्लादेश जैसी स्थिति में पहुंच जाएगा, जहां कोई निर्वाचित सरकार नहीं है?
मुझे नहीं लगता कि नेपाल बांग्लादेश जैसा होगा। बांग्लादेश के चुनाव से एक महीने पहले मैं ढाका में शेख हसीना से मिला। यह बातचीत एक घंटे चली। उन्होंने साफ कहा कि अमेरिका उन्हें खालिदा जिया और विपक्ष के साथ दोस्ताना रहने के लिए कह रहा है। उन्होंने कहा, “जिस दिन मैं डोनाल्ड ट्रंप और जो बाइडेन को हाथ मिलाते देखूंगी, उसी दिन मैं खालिदा जिया को गले लगाऊंगी।”
जो रिपोर्टें सामने आई हैं, उनमें दिखाया गया है कि मुहम्मद यूनुस हिलरी क्लिंटन के फाउंडेशन को दान देते रहे हैं। पिछले करीब 30 सालों से, क्लिंटन परिवार चाहता था कि बांग्लादेश में सरकार बदले और यूनुस को वहां लगाया जाए, और आखिरकार वे सफल हुए। इसलिए नेपाल और बांग्लादेश में सरकार गिरने के कारण अलग हैं। लेकिन यह सच है कि शेख हसीना के खिलाफ काफी नाराजगी थी क्योंकि वह बहुत authoritarian हो गई थीं। सत्तावाद का एक समय सीमा होती है। जहां बांग्लादेश में विदेशी हाथ की भूमिका हो सकती है, नेपाल का आंदोलन पूरी तरह घरेलू था।
रितिका चोपड़ा: आप चुनावी प्रक्रियाओं का वर्णन करते हैं। नेपाल हाइब्रिड मॉडल अपनाता है। भारत में फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट (FPTP) सिस्टम है, जो स्थिर बहुमत देता है लेकिन जातीय अल्पसंख्यकों के लिए नुकसानदेह हो सकता है। क्या आपको लगता है कि नेपाल का मॉडल बेहतर लोकतांत्रिक संतुलन देता है?
जब मैंने अपनी पहली किताब An Undocumented Wonder: The Making of the Great Indian Election लिखी, तो मैंने सारे चुनावी सिस्टम्स को बताया और FPTP (फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट) को सही ठहराया। यह सबसे सरल और सबसे पुराना सिस्टम है। इसे हमने यूके से अपनाया था और वहां यह ठीक तरह से काम करता है।
हालांकि, हाल के समय में इस पर कुछ सवाल उठने लगे हैं। लगभग दस साल पहले इसके बारे में एक जनमत संग्रह (रेफरेंडम) भी हुआ था। तीसरे संस्करण में मैंने अपनी राय बदल दी। ऐसा इसलिए, क्योंकि जमीन पर अनुभव से यह महसूस हुआ कि FPTP हमेशा प्रतिनिधि लोकतंत्र नहीं देता। उदाहरण के लिए, मायावती की बीएसपी ने 20% वोट हासिल किए, लेकिन उन्हें लोकसभा में एक भी सीट नहीं मिली।
कम से कम अनुपातिक (प्रोपोर्शनल) सिस्टम में कुछ सीटें अल्पसंख्यकों को मिलती हैं। यह मूलतः जर्मनी का मॉडल है। मिश्रित (मिक्स्ड) सिस्टम सबसे पहले श्रीलंका ने अपनाया, फिर पाकिस्तान ने और अब नेपाल भी इसे अपनाने वाला है। इसमें सभी को बराबर सीटें नहीं मिलतीं, लेकिन कुछ सीटें अल्पसंख्यक (धर्म नहीं) वोटरों के लिए आरक्षित होती हैं। यह प्रतिनिधि लोकतंत्र के लिए अच्छा है।
सबसे महत्वपूर्ण बात है – चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति। भारत में यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया। पहले ड्राफ्ट में कॉलेजियम बनाया गया था, जिसमें प्रधानमंत्री, चीफ जस्टिस और विपक्ष के नेता शामिल थे। लेकिन दूसरे ड्राफ्ट में, जो एक्ट बन गया, उन्होंने सिस्टम का मजाक बना दिया। इसमें प्रधानमंत्री, प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त एक केंद्रीय मंत्री और विपक्ष के नेता शामिल हैं। यह सच में मजाक है।
नेपाल में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए एक बहु-स्तरीय प्रणाली है। सबसे पहले एक संवैधानिक परिषद बनती है, जिसमें प्रधानमंत्री, चीफ जस्टिस, विपक्ष के नेता और स्पीकर शामिल होते हैं। इसके बाद सभी दलों और दोनों सदनों के 15 सांसदों की संयुक्त संसदीय समिति सार्वजनिक सुनवाई करती है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि नियुक्तियां पूरी तरह पार्टी-हित से स्वतंत्र हों।
अगर मैं अपनी निजी अनुभव साझा करूं: मेरी दिवंगत पत्नी ईला शर्मा, नेपाल की चुनाव आयुक्त रह चुकी थीं। उन्हें सुप्रीम कोर्ट की जज बनने का मौका भी मिल सकता था। लेकिन उन्होंने कहा कि जब मैं इस समिति के सामने जाऊंगी तो वे मुझे एक भारतीय से शादी करने पर सवाल करेंगे। नेपाल में मुस्लिम से शादी करना मुद्दा नहीं था, लेकिन भारत में ऐसा होता है। लेकिन उन्होंने कहा कि निश्चित ही वे मुझे भारतीय से शादी करने पर पूछताछ करेंगे।
रितिका चोपड़ा: आपका विचार में सबसे अच्छा चुनावी मॉडल कौन सा है?
सबसे अच्छा आइडिया हाइब्रिड मॉडल है। यह निश्चित रूप से बेहतर सिस्टम है, क्योंकि समाज का हर वर्ग, चाहे कितना छोटा हो, महसूस कर सके कि उसकी संसद में आवाज है।
रितिका चोपड़ा: आपने भारत को दक्षिण एशियाई लोकतंत्र के लिए एंकर और चेतावनी दोनों बताया है। आज के समय में, आपको लगता है कि वर्तमान चुनाव आयोग कितना मजबूत या कमजोर है?
कुछ तो गलत हुआ है और जब मैं आलोचना करता हूं तो कुछ लोगों की तरफ से मुझे भी आलोचना का सामना करना पड़ता है। मैं एक नागरिक के रूप में चिंतित हूं, लेकिन उस व्यक्ति के रूप में भी जो इस संस्था को बनाने में अपना योगदान दिया। हमारे समय में, इस संस्था की उच्च विश्वसनीयता ने हमारा काम आसान बना दिया था।
अगर आपके पास विश्वसनीयता है तो आपकी गलतियां भी माफ कर दी जाती हैं। और अगर विश्वसनीयता नहीं है तो आपके सही कदमों पर भी सवाल उठाए जाते हैं। मुझे बहुत दुख होता है कि इसके बारे में सवाल उठाए जा रहे हैं। मैं अपने युवा सहयोगियों से कहता रहता हूं कि वे सभी बुद्धिमान हैं, लेकिन अगर संस्था की छवि गिर गई है तो उन्हें आत्म-मूल्यांकन करना चाहिए। अध्ययन बताते हैं कि जिस संस्था की रेटिंग पहले लगभग 90% थी, वह अब 30-35% तक गिर गई है। इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। सभी सवाल और उनके जवाब जानने के लिए यहां क्लिक करें
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