इन दिनों विश्व बैंक की एक रपट काफी चर्चा में है, जिसमें भारतीय अर्थव्यवस्था पर लगातार बढ़ रहे बाहरी वित्तीय ऋण के प्रभावों को दर्शाया गया है। यह भी स्पष्ट किया गया है कि भारत पर बाहरी वित्तीय ऋण के पुनर्भुगतान का दबाव लगातार बना हुआ है और इसके विभिन्न तरह के आर्थिक प्रभाव अर्थव्यवस्था पर देखे जा सकते हैं। इस रपट में विश्व बैंक ने निम्न मध्यवर्गीय आय वाले 109 मुल्कों को उनकी अर्थव्यवस्था में बाहरी वित्तीय ऋण के प्रभाव को विश्लेषित किया है। यह बताना भी आवश्यक है कि विश्व बैंक की सोच के मद्देनजर निम्न मध्यवर्गीय आय वाले देश वे सब हैं, जहां प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 1100 डालर से लेकर 4515 डालर के मध्य है। इस रपट के मुताबिक बीते दस वर्षों में इन देशों पर भारी वित्तीय ऋण का भार 55 फीसद की दर से बढ़ गया है। वर्ष 2013 में इन देशों पर बाहरी वित्तीय ऋण 5713 अरब डालर था, जो वर्ष 2023 के अंत तक बढ़ कर 8837 अरब डालर पर पहुंच गया।
वर्ष 2021 में इस वित्तीय ऋण में अत्यधिक बढ़ोतरी हुई थी। कोरोना काल के कारण तब स्थिति गंभीर थी। विश्व बैंक की रपट के कुछ आंकड़े चिंता पैदा करते हैं कि भारत पर बाहरी वित्तीय ऋण के ब्याज की लागत पिछले एक वर्ष में 90 फीसद से अधिक बढ़ गई है। वर्ष 2022-23 में ब्याज की लागत 23 फीसद के आसपास थी, जो अब 92 फीसद दर्ज हुई है। विश्व बैंक की यह रपट कैलेंडर वर्ष की गणना के मुताबिक है। इस आंकड़े से स्पष्ट है कि अगर एक वर्ष में ऋण की लागत या ब्याज का पुनर्भुगतान करीब दोगुना देना पड़े, तो यकीनन इसका नकारात्मक प्रभाव आने वाले समय में अर्थव्यवस्था में विकास की दर पर भी देखने को मिलेगा।
कोरोना के समय अमेरिका में उच्चतम स्तर पर चली गई थी महंगाई
अब यह भी समझने की कोशिश करनी होगी कि वित्तीय ऋण की लागत एकाएक क्यों बढ़ी? दरअसल, अमेरिका की आर्थिक नीतियों का दबदबा सबसे मुख्य कारण है। कोरोना के दौरान अमेरिका में महंगाई उच्चतम स्तर पर चली गई थी, क्योंकि सरकार ने मंदी की आशंका को रोकने के लिए समाज में वित्तीय तरलता को बहुत बढ़ा दिया था। कोरोना के बाद अमेरिका की अर्थव्यवस्था के लिए सबसे बड़ी चुनौती महंगाई दर काबू करने की थी। इसी कारण बीते दो-तीन वर्षों से अमेरिका में वित्तीय नीतियों में बहुत कठोरता देखी गई है। मसलन, ब्याज नीतियों में बिल्कुल बदलाव नहीं देखने को मिला, जिससे रिजर्व बैंक ने भी अरसे से अपने यहां रेपो रेट में कमी नहीं की है। अमेरिकी नीतियों के कारण यह भी देखा गया है कि डालर, भारतीय रुपए के मुकाबले काफी मजबूत रहा है।
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आंकड़े इस बात की गवाही शायद नहीं देते कि भारतीय रुपया पिछले कुछ वर्षों में बहुत कमजोर हुआ है। अब यह 85 के स्तर को भी पार कर गया है। इस बारे में राजग सरकार के प्रथम कार्यकाल में रहे एक मुख्य आर्थिक सलाहकार ने बीते दिनों इस बात को स्पष्ट कर दिया था कि रिजर्व बैंक ने पिछले एक-दो वर्षों में भारतीय घरेलू बाजार में करीबन 150 अरब डालर बेचा है, ताकि डालर की तुलना में रुपया अधिक नीचे न जाए। इस स्थिति का दूसरा पक्ष यह है कि डालर, रुपए की तुलना में बहुत अधिक मजबूत रहा है और भारतीय अर्थव्यवस्था में बाहरी ऋण का भुगतान चूंकि डालर में ही करना होता है, तो इस कारण ब्याज की लागत पिछले एक वर्ष में 90 फीसद से अधिक बढ़ गई है।
पूर्वानुमान को अब यह सात फीसद से नीचे
जीडीपी की दौड़ में पांचवें पायदान से ऊपर उठने के लिए विकास दर का लगातार सात फीसद या इसके आसपास बना रहना आवश्यक है। हालांकि बीते दिनों जब चालू वित्तवर्ष की दूसरी तिमाही के परिणाम सामने आए तो खुद आरबीआइ ने विकास दर के पूर्वानुमान को कम कर दिया और अब यह सात फीसद से नीचे अनुमानित की गई है। इसके अलावा, विश्व बैंक की ताजा रपट, जिसमें 109 देशों का विश्लेषण किया गया है, उसमें दक्षिण एशियाई देशों के बारे में यह बताया गया कि इनमें विदेशी ऋण का भार और उसके ब्याज की लागत लगातार बढ़ रही है। इन देशों में मुख्यत: भारत और बांग्लादेश सम्मिलित किए गए हैं।
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अगर राजग सरकार के पिछले दोनों कार्यकालों और वर्तमान तीसरे कार्यकाल के पहले बजट को देखा जाए, तो पूंजीगत खर्चों पर इस सरकार ने बहुत तेजी से बढ़ोतरी की है और दस लाख करोड़ तक इस खर्च को बजट में आबंटित कर दिया है। वहीं दूसरी तरफ देश की अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी, महंगाई, किसानों की अल्प आय और सामाजिक विकास की कई योजनाएं ऐसी हैं, जिन पर आबंटित बजट में कमी नहीं की जा सकती। अगर बाहरी ऋण के ब्याज की लागत इसी तरह बढ़ती रही, तो इसका दुष्प्रभाव सरकार की पूंजीगत खर्चों की नीतियों पर देखने को मिलेगा।
बिना बाहरी ऋण के आगे बढ़ना लगभग नामुमकिन
इस पक्ष पर यह चर्चा जरूरी है कि क्या भारतीय अर्थव्यवस्था बिना बाहरी ऋण के या बाहरी ऋण में कमी करके विकास दर को बनाए रख सकती है? तो हमें समझना होगा कि बिना बाहरी ऋण के आगे बढ़ना लगभग नामुमकिन है। भारत बहुत बड़ी जनसंख्या वाला देश है और यहां पर आर्थिक विकास की बागडोर आज भी सरकार के कंधे पर है। हालांकि बीते दो-तीन दशक से निजी निवेश देश में तेजी से बढ़ा है, लेकिन प्रति व्यक्ति आय चूंकि बहुत कम है, इसलिए आर्थिक बचत भी बहुत कम है। आंकड़ों के मुताबिक 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था में करीब 84 अरब डालर का वित्तीय ऋण था और वह आर्थिक सुधारों की शुरूआती अवस्था का दौर था। एक दशक बाद वर्ष 2001 में यह ऋण बढ़ कर 100 अरब डालर से ऊपर निकल गया।
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अगले एक दशक में इसमें अप्रत्याशित रूप से दोगुनी वृद्धि हुई और वित्तीय ऋण 300 अरब डालर से अधिक हो गया। राजग सरकार के प्रथम कार्यकाल यानी वर्ष 2014 में यह करीब 440 अरब डालर था और कोरोना के वर्ष 2020 में यह 558 अरब डालर पर टिका था। विश्व बैंक की ताजा रपट के मुताबिक आज भारतीय अर्थव्यवस्था में बाहरी वित्तीय ऋण 646 अरब डालर है। इस वित्तीय ऋण का 77 फीसद दीर्घकालीन यानी लंबी अवधि के लिए लिया गया ऋण है। बाकी बचा 23 फीसद अल्प अवधि का है। वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था के बाहरी वित्तीय ऋण का करीब एक तिहाई हिस्सा विश्व बैंक, एशियन डेवलपमेंट बैंक और अन्य बड़ी वित्तीय संस्थानों से लिया हुआ है।
निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि भारत को अब तेजी से अपने निर्यात बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना पड़ेगा ताकि विदेशी मुद्रा का अधिक से अधिक संग्रहण हो। साथ ही रुपए की विदेशी बाजार में स्थायित्व पर भी काम करना होगा। अन्यथा बाहरी वित्तीय ऋण का भार भारत की आर्थिक नीतियों में आने वाले समय में अपना दुष्प्रभाव छोड़ने लगेगा। इस बात की भी संभावना है कि इसका दुष्प्रभाव घरेलू बाजार में वित्तीय तरलता में कमी में देखने को मिले।