अवैध कालोनियों की यह दास्तान सिर्फ दिल्ली तक सीमित नहीं है। लखनऊ में सभी अवैध भवन निर्माता खुलेआम विज्ञापन देकर अपनी योजनाओं का प्रचार कर रहे हैं। मुश्किल यह भी है कि नगर निगम एलडीए की किसी कालोनी का अधिग्रहण तभी करता है, जब उसके आसपास की निजी कालोनियों को भी एलडीए वैध घोषित कर दे। उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में तो जिलाधिकारी के नाम पर दर्ज भूमि भी सुरक्षित नहीं।

जो भूमि राजस्व अभिलेखों में दर्ज है, उस पर अवैध तरीके से सात भवन खड़े कर दिए गए। कारगी, मोथरोवाला, बंजारावाला सहित तमाम क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर अवैध कालोनियां बस चुकी हैं। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में आखिर किन-किन अवैध कालोनियों के नाम गिनाए जाएं। कोलार, होशंगाबाद रोड, बैरागढ़, एयरपोर्ट रोड, रायसेन रोड, खजूरीकलां, भानपुर, सेमरा, छोला, करोंद, ऐशबाग, गुलमोहर, बाग सेवनिया, दामखेड़ा, नरेला शंकरी, नयापुरा, बैरसिया रोड, गैस राहत कालोनी, विदिशा रोड आदि।

पूरे हरियाणा में अवैध कालोनियों का दायरा बढ़ता जा रहा है। प्रापर्टी डीलर खेती-बाड़ी या खाली जगहों को निशाना बना रहे हैं। महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई की बात करें तो, मलाड, मालवणी, बांद्रा पूर्व, गरीब नवाज नगर आदि, आखिर कहां नहीं हो रहे अवैध निर्माण। पूर्वोत्तर भारत के महानगरों में बांग्लादेशी, रोहिंग्याओं की अवैध बसावटें वैसे ही सिरदर्द बनती जा रही हैं। सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि कमोबेश ऐसे ही हालात देश के हर नगर, महानगर के हो चुके हैं।

लाखों, करोड़ों की बसावटों वाली देश की इन अनगिनत अवैध कालोनियों की अपनी अलग-अलग महागाथाएं हैं। क्या इतनी बड़ी तादाद में लोग अचानक बस गए होंगे और संबंधित एजेंसियों, शासकों-प्रशासकों को इसकी भनक तक नहीं लगी होगी? उन अवैध कालोनियों के बस जाने तक उन सरकारी एजेंसियों के खर्राटों का रहस्य और क्या हो सकता है? देश में जितने बड़े पैमाने पर अतिक्रमणों की आंधी आई हुई है, वे अतिक्रमणकारी कौन लोग हैं, किनसे संरक्षित हैं और क्यों सुरक्षित हैं। अतिक्रमण भी होते रहते हैं और सालाना अतिक्रमण हटाओ अभियान भी चलते रहते हैं, जिनमें राजनीतिक और मजहबी रोटियां सेंकने के सुअवसर भी होते हैं।