पाकिस्तान के आतंकी संगठनों, लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) और जैश-ए-मोहम्मद के मुख्यालयों तथा प्रशिक्षण ठिकानों पर सटीक हमले करने में भारत की अभूतपूर्व क्षमताओं को दुनिया ने देखा। आपरेशन सिंदूर आतंकवाद के खिलाफ भारत की नीति में एक आदर्श बदलाव का संकेत देता है। नया सिद्धांत सीमा पार से आतंकवाद के किसी भी कृत्य को युद्ध की कार्रवाई मानता है। अब भारत आतंकियों को दंडित करने के लिए सीमा पार जाकर आक्रामकता से मुकाबला करेगा।
ऐसे समय में जब पूरे देश में राष्ट्रवाद का जोश है और हमारे सशस्त्र बलों पर गर्व किया जा रहा है, कांग्रेस द्वारा सैन्य संघर्ष की अचानक समाप्ति पर सवाल उठा कर सरकार की सफलता को नकारने का प्रयास किया जा रहा है। संघर्ष विराम के समय और अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा इसकी पूर्व घोषणा पर सवाल उठा कर कांग्रेस ने एक ऐसा विचार गढ़ने का प्रयास किया है कि भारत ने 1971 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में स्थिति को बेहतर तरीके से संभाला था। आपरेशन सिंदूर की योजना लश्कर और जैश-ए-मोहम्मद के खिलाफ एक तेज और दंडात्मक हमले के रूप में बनाई गई थी।
सात मई की सुबह सेना की प्रेस वार्ता में ही स्पष्ट हो गया था ऑपरेशन सिंदूर का उद्देश्य
इसका उद्देश्य कभी एक लंबा, पूर्ण विकसित, बिना रोक-टोक वाला युद्ध नहीं था। अपना मकसद हासिल करने के बाद, तब तक आपरेशन जारी रखने की कोई आवश्यकता नहीं थी, जब तक पाकिस्तान जवाबी कार्रवाई नहीं करता। सात मई की सुबह आधिकारिक प्रेस वार्ता में ही यह स्पष्ट कर दिया गया था। सिंधु जल संधि को निलंबित करके पाकिस्तान पर भारी दबाव बनाने, व्यापार प्रतिबंध लगाने और उसके आतंकी ढांचे तथा हवाई ठिकानों को भारी नुकसान पहुंचाने के बाद भारत ने पाकिस्तान के संघर्ष विराम प्रस्ताव पर सहमति जताई थी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन-सा देश किसकी तरफ से पहल करता है, जब तक कि परिणाम हमारे उद्देश्यों के अनुरूप हों।
भारत की ‘न्यू नार्मल’ नीति, पाकिस्तान के साथ बदलती रणनीति और कूटनीतिक संकेत
राहुल गांधी को अपनी पार्टी के वरिष्ठ सांसदों, शशि थरूर और पी चिदंबरम के विचारों पर ध्यान देना चाहिए था, जिन्होंने संघर्ष विराम के फैसले का समर्थन किया था। दोनों ही राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश मामलों के अनुभवी हैं। चिदंबरम ने प्रधानमंत्री की प्रशंसा करते हुए कहा कि उन्होंने व्यापक युद्ध के खतरों को पहचान लिया और बुद्धिमानी से चुनिंदा लक्ष्यों तक सीमित एक संतुलित सैन्य प्रतिक्रिया का चयन किया है। शशि थरूर ने कहा कि भारत जो सबक देना चाहता था, वह दे दिया गया है।
भारत ने दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय दिया और आतंकियों को दंडित करने के लिए एक सशक्त और आक्रामक दृष्टिकोण अपनाया है। चाहे वह उरी, पुलवामा या पहलगाम में आतंकी घटनाएं हों, भारत ने लक्षित और हवाई हमले कर जघन्य कृत्य करने वाले आतंकियों, संचालकों और प्रायोजकों को दंडित किया है। प्रत्येक कार्रवाई के साथ, भारतीय हमले पाकिस्तान में और अधिक गहरे होते गए, अधिक लक्षित तथा साहसी होते गए। इन सभी अवसरों पर दुनिया ने भारत का समर्थन किया।
यूपीए सरकार के समय आतंकी हमले में चली गई थी 175 निर्दोषों की जान
इसके विपरीत, वर्ष 2004 से 2014 तक कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से निपटने में निष्क्रिय दृष्टिकोण अपनाया। यहां तक कि 26/11 के भयावह मुंबई हमले, जिसमें 175 निर्दोष लोगों की जान चली गई। मगर भारत सरकार की ओर से कोई ठोस जवाबी कार्रवाई नहीं की गई। यूपीए ने अंतरराष्ट्रीय कार्रवाई की मांग कर आतंकवाद के खिलाफ भारत की लड़ाई को दूसरे देशों के कंधों पर डाल दिया, लेकिन आतंकवादियों को न्याय के कठघरे में लाने के लिए अपनी ओर से कोई जवाबी कार्रवाई की योजना नहीं बनाई।
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यह दृष्टिकोण 26/11 मुंबई हमले के बाद 11 दिसंबर, 2008 को संसद में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बयान से स्पष्ट है। उन्होंने कहा, ‘हमें अंतरराष्ट्रीय समुदाय को आतंकवाद के केंद्र, जो पाकिस्तान में स्थित है, से सख्ती और प्रभावी ढंग से निपटने के लिए प्रेरित करना होगा। आतंकवाद के बुनियादी ढांचे को स्थायी रूप से नष्ट करना होगा। अंतरराष्ट्रीय समुदाय की राजनीतिक इच्छाशक्ति को जमीन पर ठोस और निरंतर कार्रवाई में बदला जाना चाहिए।’
यूपीए सरकार की उस वक्त की प्रतिक्रिया में न तो पाकिस्तान के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की मंशा दिखाई दी और न ही उसे कोई चेतावनी दी गई। जवाबी कार्रवाई के लिए कांग्रेस की राजनीतिक इच्छाशक्ति तब भी नहीं थी, जब हमारे सशस्त्र बलों ने पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में आतंकी शिविरों के खिलाफ लक्षित हमले करने की इच्छा व्यक्त की थी। उस समय के एअर चीफ मार्शल फली होमी मेजर ने बाद में खुलासा किया कि 26/11 हमले के दो दिन बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ बैठक में उन्होंने अन्य दो सेना प्रमुखों की मौजूदगी में कहा था कि भारतीय वायु सेना नियंत्रण रेखा के पार लक्षित हमले के लिए तैयार है, लेकिन सरकार ने उनकी योजनाओं को हरी झंडी नहीं दी। ऐसे में क्या कांग्रेस के पास प्रधानमंत्री पर सवाल उठाने का कोई नैतिक अधिकार है?
आठ महीने लंबे गृहयुद्ध के बाद लड़ा गया था 1971 का युद्ध
कांग्रेस द्वारा आपरेशन सिंदूर की तुलना 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध से करना सही नहीं है, क्योंकि हर संघर्ष का एक संदर्भ होता है। 1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध पूर्वी पाकिस्तान में दमनकारी पाकिस्तानी सैन्य शासन के अत्याचारों के खिलाफ आठ महीने लंबे गृहयुद्ध के बाद लड़ा गया था। पाकिस्तान की आंतरिक समस्या भारत के लिए एक आंतरिक समस्या बन गई थी। विदेशी सहायता और मुद्रा कोष, विश्व बैंक ऋण पर निर्भर भारत की डांवाडोल अर्थव्यवस्था के समय, इंदिरा गांधी ने उचित समझा कि भारत के लिए पूर्वी पाकिस्तान में सैन्य हस्तक्षेप करना आर्थिक रूप से फायदेमंद है, बजाय इसके कि एक करोड़ शरणार्थियों का अपनी अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ पड़ने दिया जाए। इसके अलावा, इंदिरा गांधी के पास युद्ध की तैयारी करने और कूटनीतिक संपर्कों का उपयोग कर अंतरराष्ट्रीय समर्थन हासिल करने के लिए आठ महीने का समय था। इनमें से कोई भी आज प्रासंगिक नहीं है।
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आपरेशन सिंदूर की तुलना 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध से करने का प्रयास अनुचित है, क्योंकि दोनों के संदर्भ अलग-अलग हैं। एक घटना की सफलता और परिणामों को दूसरे के चश्मे से देखना संकीर्ण और तर्कहीन है। आज भारत के हित में नया ‘मोदी सिद्धांत’ है। पाकिस्तान और पूरी दुनिया के लिए संदेश स्पष्ट है। भारत के पास बड़े विकास लक्ष्य हैं और वह उन्हें हासिल करने के लिए अपनी पूरी ताकत लगाना चाहता है। अगर पाकिस्तान हमारी शांति भंग करने और हमें अपने राष्ट्रीय लक्ष्यों को हासिल करने से विचलित करने की कोई कोशिश करता है, तो भारत उसे कड़ा सबक सिखाएगा। चीनी विचारक सुन त्जु ने अपनी पुस्तक में लिखा है, ‘वही जीतेगा जो जानता है कि कब लड़ना है और कब नहीं लड़ना है।’ प्रधानमंत्री भी यह बात अच्छी तरह जानते हैं। भारत पाकिस्तान के साथ युद्ध तभी लड़ेगा, जब ऐसा करना उसकी प्रगति के हित में हो और इसलिए नहीं कि कांग्रेस पार्टी या कुछ कट्टरपंथी ऐसा चाहते हैं। (लेखक पूर्व सांसद हैं)