आर्थिक नीति के क्रियान्वयन से ही विकास नीति बनती है। समय-समय पर आर्थिक दरों की घोषणा भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) की ओर से की जाती है, जिसे मौद्रिक नीति कहा जाता है। रिजर्व बैंक पहले नीति की घोषणा करता था, अब सहयोग और परामर्श के लिए एक मौद्रिक समिति भी बन गई है। हर मौद्रिक नीति का आदर्श यही होता है कि एक ओर वह महंगाई पर नियंत्रण रखे, दूसरी ओर देश के विकास में भी कोई बाधा न आए। हालांकि, सरकार के दावों में यही कहा जाता है कि महंगाई पर नियंत्रण पा लिया गया है। रिजर्व बैंक के अनुसार, सुरक्षित महंगाई की दर चार फीसद है और इस वर्ष सूचकांक के आंकड़ों के मुताबिक यह 4.6 फीसद रही। अब इसके चार फीसद से भी नीचे आ जाने की संभावना है।
वहीं इससे संबंधित घोषणाओं की ओर देखें, तो भारत दस वर्ष में दुनिया की ग्यारहवीं आर्थिक शक्ति से ऊपर उठ कर पांचवीं आर्थिक शक्ति बन चुका है। इस साल के अंत तक देश के चौथी आर्थिक शक्ति और दो वर्षों में तीसरी आर्थिक शक्ति बनने की उम्मीद की जा रही है। अगर यह संभव हुआ तो इसे एक बड़ी उपलब्धि माना जाएगा। बार-बार यह घोषणा की जाती है कि भारत की विकास दर दुनिया के सभी देशों की विकास दर से अधिक है। मगर आम आदमी की हालत देखिए। जब वह बाजार में जाता है तो वस्तुओं की कीमतें कहती हैं, हमें हाथ न लगाओ।
जहां तक विकास दर का संबंध है, तो विकास किसका हो रहा है? देश की तीन-चौथाई आबादी तो जीवन के उसी स्तर पर खड़ी है, जिसे भुखमरी से उबारने के लिए अनुकंपा कहा जाता है। तरक्की के साथ-साथ अनुकंपा और रियायती संस्कृति की समय-सीमा भी बढ़ती जा रही है। हम वर्ष 2047 में भारत को दुनिया का सिरमौर देश बना देना चाहते हैं। सांस्कृतिक लिहाज से हमारे गर्व का कोई अंत नहीं। हम बनना चाहते हैं विश्व गुरु, लेकिन नैतिक मूल्यों के पतन का यह हाल है कि जिस तरह की घटनाएं हमारे समाज में घट रही हैं, वह एक मूल्यहीन एवं पतनशील समाज का द्योतक हैं। खुशहाली सूचकांक को ही देख लीजिए, भारत इसमें कहीं पीछे है। एशिया में भी आम लोगों की खुशहाली हमारे पड़ोसी देशों में हमसे कहीं अधिक है। तो यह कैसा विकास है, कैसी तरक्की है, जिस पर हम फूले नहीं समा रहे।
महंगाई पर काबू पा लेने की चर्चा
इसी तरक्की और विकास का अगला चरण प्राप्त करने के लिए पहल जारी है। आरबीआइ के गवर्नर ने कहा है कि मौद्रिक नीति ऐसी होनी चाहिए, जिसमें महंगाई पर नियंत्रण हो और सतत् विकास को प्रोत्साहन मिले, क्योंकि ये दोनों पक्ष किसी देश की संतुलित आर्थिक नीति के लिए आवश्यक है। मगर आजकल चर्चा यह हो रही है कि भारत ने महंगाई पर काबू पा लिया है और बाजारों में मुद्रास्फीति उस दर पर आ गई है, जिसे रिजर्व बैंक सुरक्षित दर कहता है। नए आंकड़ों के मुताबिक, सुरक्षित दर 4.6 फीसद है, लेकिन अगले वर्ष इसके तीन फीसद तक हो जाने की उम्मीद है। मगर आम जनता को यह बात क्यों केवल घोषणाओं का अलंकार लगती है? कहा जाता है कि मुद्रास्फीति पर हमने इसलिए नियंत्रण कर लिया है, क्योंकि खाद्य पदार्थों की कीमतें कम हो गई हैं।
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वैसे तो किसी भी विकासशील देश का मुद्रास्फीति सूचकांक केवल खाद्य पदार्थों की कीमतों पर निर्भर नहीं होना चाहिए। इसमें उसके बराबर का महत्त्व पूंजीगत निवेश और वस्तुओं को भी मिलना चाहिए। जैसा कि हमारे सूचकांक में नहीं है। इसी प्रकार, विकास दर को मापते हुए यह भी देखना चाहिए कि यह विकास देश के किस वर्ग का हो रहा है। क्या सारा विकास चुनिंदा निजी पूंजीपति वर्ग के पास ही जा रहा है? जो बहुमंजिला इमारतों और महंगी गाड़ियों की सूरत में महानगरों में नजर आता है। आम आदमी आज भी रियायती दुकानों के बाहर कतार लगाए क्यों खड़ा है? संविधान में ‘समाजवाद’ का शब्द रहे या न रहे, इस पर बहस से कहीं ज्यादा जरूरी है कि अमीर और गरीब के जीवन स्तर में अंतर कम से कम हो। नौजवानों को उनकी योग्यता के अनुसार रोजगार की गारंटी मिले। इस समय देश में जनता को भूख से न मरने देने की गारंटी है, लेकिन उनके उचित पोषण की गारंटी क्यों नहीं है? क्यों देश में एक कुपोषित समाज आज भी मौजूद है। दुखद ये कि नई पीढ़ी कमजोर पैदा हो रही है और औसत उम्र विकसित देशों की तरह बढ़ नहीं रही है।
मौद्रिक नीति के आकलन की होनी चाहिए चर्चा
ऐसे में मौद्रिक नीति के उस आकलन की चर्चा होनी चाहिए, जो इन दिनों सुनाई पड़ती है। आमतौर पर यह समझा जा रहा था कि जब मुद्रास्फीति पर नियंत्रण कर लिया है और महंगाई दर चार फीसद पर आ गई है, तो रेपो रेट और घटा देना चाहिए। ब्याज दर और घटा देनी चाहिए, कर्ज सस्ता कर मासिक किस्तें भी कम कर देनी चाहिए, ताकि लोग नया निवेश करके देश को विकास की राह पर तेजी से ले जा सकें, लेकिन इसका क्या लाभ? अभी पिछली दो बार रेपो रेट को घटा कर एक फीसद कम कर दिया गया, जिससे इस वर्ष की शुरूआत से बैंकों में पर्याप्त नकदी हो गई है। अनुमान है कि 5.6 लाख करोड़ रुपए का टिकाऊ वित्तपोषण बैंकों को मिला है। क्या यह वित्तपोषण पूंजीगत निवेश की ओर गया है? जवाब है, नहीं। जो कर्ज दिए जा रहे हैं, उसका एक बड़ा भाग दिखाऊ उपभोग पर खर्च हो रहा है।
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जब पूंजीगत विकास की दरों को देखते हैं, तो उसमें वह तरक्की नहीं पाते जो होनी चाहिए। 6.50 फीसद की विकास दर हमें 2047 तक दुनिया का सिरमौर देश नहीं बना सकती है? इसके लिए कम से कम दस फीसद विकास दर चाहिए और पूंजी क्षेत्र में निवेश का कायाकल्प हो। इसके साथ ही लघु, मध्यम और सहकारी उद्योगों का भी विकास हो, ताकि हर वर्ष बेरोजगार होते नौजवानों की खेप को तत्काल रोजगार मिले, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा। इसलिए जिस सही विकास नीति की तलाश हमें करनी है, उसमें इस बात का ध्यान देना होगा कि बातें केवल दावों या घोषणाओं के स्तर तक सीमित न रहे, बल्कि आम आदमी के जीवन तक जाएं।
आरबीआइ के गवर्नर ने भी कहा है कि एक और रेपो रेट को घटाना है या नहीं, इसका फैसला सोच-समझ कर किया जाएगा। कटौती का असर अभी शुरूआती दौर में है। जून में आधा फीसद तक कटौती की गई थी, लेकिन कुल एक फीसद कटौती के मुकाबले एक फीसद लाभ आम आदमी तक पहुंचने में समय लगेगा। अब यह देखना होगा कि कौन इस लाभ को आम आदमी तक पहुंचने नहीं दे रहा। इस बात पर भी गौर करना होगा कि देश में विकास के नाम पर कोई ऐसी तिकड़ी तो पैदा नहीं हो गई, जिसमें पूंजीपति, नौकरशाह और राजनीति के चुनिंदा लोगों का गठजोड़ बन गया हो। क्या यही गठजोड़ तो नहीं जो लोक कल्याण के रास्ते में दीवार बन रहा है?