हेमंत कुमार पारीक

इसमें कोई संदेह नहीं कि मोबाइल के प्रादुर्भाव से शिक्षा जगत में क्रांतिकारी बदलाव आया है। हालांकि हर नई पहल के फायदे और नुकसान होते हैं। लेकिन कहा गया है कि अति सर्वत्र वर्जयेत। जरूरत के अनुसार ही हर चीज का उपयोग होना चाहिए। मगर तेजी से बदलते वक्त के बीच यह आमतौर पर देखने में आता है कि रोते हुए बच्चे को चुप कराने के लिए माता-पिता उसे मोबाइल पकड़ा देते हैं। ट्रेन में यात्रा के दौरान एक दफा टीसी ने दुखी होकर पास खड़े एक व्यक्ति को बताया कि आजकल परिवार के लोग मोबाइल में इतने व्यस्त रहते हैं कि उसके घर पहुंचने और घर से ड्यूटी पर जाने का उन्हें भान ही नहीं होता।

शुरुआती दिनों में शिक्षण संस्थाओं में मोबाइल निषिद्ध था। मगर अब उसके उपयोग का दायरा व्यापक हो चला है। सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और वाट्सऐप ने सूचना तकनीक में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया है और उसके बिना अब मानो लोगों का काम ही नहीं चलता। लिहाजा शिक्षण संस्थाओं ने विद्यार्थियों को भी इंटरनेट के लिए वाई-फाई की सुविधा दे दी है। पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय पत्र, लिफाफे, टेलीग्राम जैसे ही चाक और ब्लैकबोर्ड वाली पद्धति भी अप्रासंगिक होती जा रही है। अब तो आनलाइन शिक्षा पद्धति शिक्षा जगत का जरूरी अंग बनती जा रही है।

जिस रफ्तार से सब कुछ बदल रहा है, उससे यही लगता है कि धीरे-धीरे शिक्षक और पारंपरिक अध्यापन विधि भी अप्रासंगिक हो जाएगी। स्क्रीन और प्रोजेक्टर पढ़ाई का माध्यम होंगे। अभी बिंदुवार प्रदर्शन (पीपीटी) द्वारा छात्रों को पढ़ाया जाता है। पीपीटी में ही व्याख्यान तैयार किए जाते हैं। शिक्षक इसके इतर आगे पीछे, जो उसका अनुभवजन्य ज्ञान है, बता नहीं पाता। इस प्रकार व्याख्यान उबाऊ होते जाते हैं। इसमें अपने स्तर पर शिक्षक की बहुत कम भूमिका होती है। एक बार विषयवस्तु तैयार होने के बाद बारंबार वही दोहराई जाता है।

नतीजतन, बदलती हुई तकनीक का तात्कालिक ज्ञान पीछे छूटता जाता है। पुस्तकालयों में नई पुस्तकें तो खरीदी जाती हैं, पर उनको पढ़ने वाले मिलते नहीं। मोबाइल के माध्यम से उतना ज्ञानार्जन हो जाता है, जितना परीक्षा के लिए जरूरी होता है और मोबाइल पर आसानी से उपलब्ध होता है। आनलाइन किताबें भी हैं। मगर किसके पास इतना समय है कि किताबें पलट कर देखे। आदमी मोबाइल की दुनिया में इतना गुम हो चुका है कि सामाजिक और पारिवारिक उत्तरदायित्व से भी उसका सरोकार दिनोंदिन कम होता जा रहा है।

मोबाइल से हुई शुरुआत अब कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस) तक जा पहुंची है। बल्कि कहा जाए तो इससे भी आगे। सब कुछ पका-पकाया मिलने लगा है। कुछ करने की जरूरत नहीं। केवल बटन दबाना भर है। जैसा कि पहले कभी हम लोग किस्से-कहानियों में अलादीन के काल्पनिक चिराग को पढ़ते थे, जिसमें एक दीए को घिसते ही ‘क्या हुक्म है मेरे आका’ का उद्घोष करते हुए जिन्न हाजिर हो जाता था, वही कल्पना साकार करता है मोबाइल।

अब तो मोबाइल का चलन इतना व्यापक हो चुका है कि उसके बिना आदमी घर से बाहर एक कदम भी नहीं रखता। बहुत सारे मामलों में लोगों की निर्भरता इस पर होती चली गई है। हाट-बाजार हो, चायपान की दुकान हो, बस अड्डा हो या रेलवे प्लेटफार्म, अस्पताल हो या स्कूल-कालेज, सभी जगह मोबाइल नजर आता है। रात्रिकालीन खेलों में, स्टेडियम में मोबाइल इस तरह चमकते दिखते हैं, मानो हजारों जुगनू एक साथ आसमान में उड़ रहे हों। आते-जाते, उठते-बैठते, खाते-पीते चारों तरफ मोबाइल ही मोबाइल दिखता है।

आलम यह है कि व्यस्त चौराहे पर भी आदमी मोबाइल में इतना खोया रहता है कि उसे होश ही नहीं रहता कि वह स्कूटर, मोटरसाइकिल या कार चला रहा है। कभी भी वह खुद गंभीर दुर्घटना का शिकार हो सकता है अथवा किसी अन्य को नुकसान पहुंचा सकता है। ऐसी घटनाएं अक्सर सामने आती रहती हैं, जिनमें कोई मोबाइल की वजह से छत से गिर गया तो कोई ट्रेन के नीचे हो गया। इस तरह के हादसों के लिए किसे जिम्मेदार माना जाएगा? लोग इस पहलू पर कब सोचना शुरू करेंगे? या फिर वे अपने जीवन से खिलवाड़ ही करते रहेंगे?

मोबाइल की वजह से क्षेत्रीय भाषाएं भी लुप्त हो रही हैं।

कुछ समय पहले जम्मू-कश्मीर के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में एक अनोखा कार्यक्रम शुरू किया गया। इसके तहत प्राचीन संस्कृत भाषा पारंपरिक पद्धति से सिखायी जा रही है और संस्कृत के विद्वान शिक्षक घर-घर जाकर संस्कृत का अनौपचारिक ज्ञान दे रहे हैं। वे मानते हैं कि संस्कृत भाषा में ज्ञान का खजाना है। दरअसल, आज समस्या यह है कि क्षेत्रीय भाषाएं भी लुप्त होने की कगार पर हैं। कारण कि सूचना प्रौद्योगिकी का सारा ज्ञान अंग्रेजी भाषा के माध्यम से पढ़ाया जाता है।

नई पीढ़ी और व्यवसाय इसी भाषा में सांस ले रहे हैं। हालांकि यह प्रयास सूरज की रोशनी में मोमबत्ती जलाने जैसा है। मगर कोशिश तो है, जो सराहनीय है। सूचना प्रौद्योगिकी के इस दौर में पहियों पर गुरुकुल वाली संस्कृत की शिक्षा कितनी कारगर होगी, कह नहीं सकते। खासतौर पर ऐसे दौर में, जबकि अंग्रेजी सभी भाषाओं पर हावी है।