प्रतापराव कदम
इस बात पर पिछले कई वर्षों से विचार चल रहा है कि मनुष्य और मशीन या प्रौद्योगिकी का संबंध कैसा हो? दरअसल, मनुष्य और मशीन का संबंध बहुआयामी है और लगातार विकसित हो रहा है। इतना कि मनुष्य के नितांत निजी पलों में भी मशीन का साथ बना रहता है। एक ओर प्रौद्योगिकी उसके जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गई है, वहीं उत्पादकता, सुविधा, दक्षता को भी बढ़ा रही है, जीवन स्तर बेहतर बना रही है। फिल्म ‘थ्री इडियट’ में आमिर खान मशीन को परिभाषित करते कहते हैं कि मशीन वह है जो मनुष्य के काम को आसान बनाती है, उसकी उर्जा और समय की बचत करती है, जटिल काम को अंजाम देती है।
प्रौद्योगिकी और मनुष्य दरअसल विरोधी नहीं, संगी-साथी हैं। आखिर मनुष्य ने ही मशीन को जन्म दिया है और वह इनका इतना आदी हो गया कि किन्हीं संदर्भों में खुद भी मशीन-सा हो गया, संवेदनाहीन। मशीन की तरह व्यवहार करता वह इतना डूबा कि उसकी दशा सोचने लायक कम, विचित्र अधिक हो गई। आखिर क्यों न हो यह सब? हम जिस परिस्थिति, वातावरण, वस्तुओं के घेरे में रहते हैं, उसका असर हम पर पड़ता है।
मशीन की सोहबत में मशीन-सा ही तो बनेगा सब। पर इसका अलहदा पक्ष भी है। अगर मशीन ही मनुष्य को खारिज कर दे, रद्द कर दे कि जरूरत नहीं है आपकी तो उसे क्या कहेंगे? प्रबंधन जिन पांच कारकों यानी मनुष्य, मशीन, वस्तु, बाजार और धन में समन्वय करता है, उसमें सबसे जीवंत और संवेदनशील मनुष्य ही है। उसके प्रति हम वैसा रवैया नहीं अख्तियार कर सकते जैसा अन्य चार से। वह हाड़-मांस का है। नातों-रिश्तों से बंधा है, उसकी भावनाएं हैं, वह समाज में रहता है। अन्य साधनों से काम लेते हैं, पर वह काम करता है। मशीन को तरजीह देने से यही मनुष्य खारिज कर दिया जाए तो?
भारत जैसे देश में प्रौद्योगिकी को कहां तक अनुमति दी जानी चाहिए? एक फिल्म ‘नया दौर’ 1957 में आई थी। उसकी कहानी का आधार ही यही था कि प्रौद्योगिकी को कहां तक घुसपैठ की अनुमति दी जाए। शंकर तांगेवाला और कुंदन की यही खींचतान है। कुंदन शहर से गांव आता है। आधुनिक और यंत्रीकरण का दौर शुरू है। बिजली की आरी से लकड़ी काटने का काम शुरू होता है और इससे सैकड़ों मजदूर बेरोजगार हो जाते हैं। इसके बाद बस चला कर तांगे वालों की आजीविका छीनने की कोशिश हो रही है, तब नायक द्वारा बोला गया संवाद आज भी याद है- ‘क्या ऐसा नहीं हो सकता कि तुम पैसे वालों का काम भी चलता रहे और हमें भी काम मिलता रहे।’
जब तक मनुष्य और मशीन दोनों के लिए जगह है, दोनों एक दूसरे को खारिज नहीं करते, तब तक वह प्रौद्योगिकी जो पूरी तरह से मनुष्य को हाशिये पर बैठा दे तो उसे कितनी जगह दी जानी चाहिए? हमारे देश में कार चालकों की संख्या 2.36 मिलियन है और उसमें से भी 6.8 फीसद महिला चालक हैं। कारों की संख्या 144.6 करोड़, यानी हमारी आबादी से भी अधिक संख्या कारों की है। देश के लगभग 7.5 फीसद लोगों के पास कार है।
भारत में स्वायत वाहन (आटोनामस वीकल) को अनुमति का सीधा मतलब बड़ी संख्या में ड्राइवरों की नौकरी छिन जाना। और नौकरी छिन जाना कोई साधारण घटना नहीं होती है या होगी। वर्तमान तो खिसक ही जाता है, भविष्य पर भी प्रश्नचिह्न लग जाता है। आश्रितों का क्या कहें, कटी पतंग-सा जीवन। कोरोना महामारी के दौर में जिन लोगों की रोजी-रोटी छीन गई थी, उनकी दुर्दशा किसी से छिपी नहीं रही।
गांधीजी प्रौद्योगिकी की इस अमानवीयता को जानते थे। मशीन से उनकी दूरी बेवजह नहीं थी। गांधी प्रौद्योगिकी प्रेरित बेरोजगारी के प्रति सजग थे। इसी सजगता की आज भी दरकार है। गांधीजी से प्रभावित दार्शनिक इवान इलिच का तर्क है कि प्रौद्योगिकी ने मनुष्य की आत्मनिर्भरता, स्वतंत्रता और गरिमा को कमजोर किया है। वाहनों ने मनुष्य के पैरों की ताकत छीन ली और मशीनी तकनीक ने हाथों का हुनर। कृत्रिम मेधा तो एक कदम आगे है।
भावनाओं से युक्त रोबोट किस दिशा में ले जाएगा, यह तो भविष्य के गर्भ में है, पर उत्तराखंड की सुरंग दुर्घटना ने इस बात को साबित कर दिया कि जहां तमाम प्रौद्योगिकी ने हाथ खड़े कर दिए थे, वहां मनुष्य की हिकमत, हिम्मत, हुनर काम आए। ‘रैट माइनर्स’ यानी अपने हाथ और औजार के जरिए सुरंग खोदने वाले।
उत्तरकाशी के सिलक्यारा सुंरग में फंसे मजदूरों को बाहर निकालने के लिए जब सारी प्रौद्योगिकी, मशीन नाकाम हो गई, तो ‘रैट माइनर्स’ आगे आए और इकतालीस मजदूर सुरंग से बाहर निकल सके। मशीन प्रौद्योगिकी को उतनी ही तरजीह दी जानी चाहिए, जहां तक उसकी बागडोर मनुष्य के हाथ में हो। ‘आपके होने की पुष्टि करती है एक मशीन/ गर संबंधों की नेह जमी हो अंगुलियों पर/ मिट्टी से जुड़े हों हाथ तो/ इनकार कर देती मशीन/ आपके होने से।’