मनीष कुमार चौधरी
अकेलापन सिर्फ उम्र बढ़ने की समस्या नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी दिक्कत है जो किसी भी उम्र में किसी को भी प्रभावित कर सकती है। हालांकि अकेलापन हमेशा से मानव अस्तित्व का हिस्सा रहा है, लेकिन पिछले कुछ दशकों से लोग अधिक अलग-थलग होते जा रहे हैं। मनोविशेषज्ञ तो यहां तक बताते हैं कि कुछ देश अकेलेपन की ‘महामारी’ का सामना कर रहे हैं।
इंग्लैंड में एक अध्ययन में पाया गया कि लगभग पैंतालीस फीसद वयस्क कुछ हद तक अकेलापन महसूस करते हैं। दिलचस्प है कि यूनाइटेड किंगडम में वर्ष 2018 से इस समस्या से निपटने के लिए एक अलग मंत्री तक नियुक्त है। अमेरिका में एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण में पाया गया कि वहां इकसठ फीसद वयस्क अकेले हैं। कई देशों में अकेलेपन की दर बढ़ रही है, खासकर कोविड महामारी के परिणामस्वरूप।
मेटा-गैलप सर्वेक्षण के अनुसार, दुनिया भर में लगभग एक चौथाई वयस्कों ने बहुत या काफी अकेलापन महसूस किया है। 142 देशों में किए गए सर्वेक्षण में पाया गया कि पंद्रह वर्ष और उससे अधिक उम्र के चौबीस फीसद लोगों ने अकेलापन महसूस करने की बात कही। युवाओं में अकेलेपन की दर सबसे अधिक थी।
अकेलापन कई लोगों के लिए एक परिचित भावना है। यह भूख या प्यास की तरह है। यह एक ऐसी अनुभूति है जो शरीर हमें तब भेजता है, जब जीवित रहने के लिए हमें जिस चीज की आवश्यकता होती है, वह गायब हो जाती है। यह परेशान करने वाला अनुभव तब होता है जब किसी व्यक्ति के सामाजिक रिश्तों को वह व्यक्ति मात्रा में और विशेष रूप से गुणवत्ता में वांछित से कम मानता है।
दरअसल, अकेले व्यक्तियों को सार्थक रिश्ते बनाने और बनाए रखने में कठिनाई होती है। हालांकि अकेलेपन का अनुभव अत्यधिक व्यक्तिपरक है। एक व्यक्ति अकेलापन महसूस किए बिना भी अकेला रह सकता है और अन्य लोगों के साथ रहते हुए भीड़ में भी अकेलापन महसूस कर सकता है। मनोवैज्ञानिक आमतौर पर अकेलेपन को एक स्थिर लक्षण मानते हैं, जिसका अर्थ है कि व्यक्तियों के पास अकेलेपन को महसूस करने के लिए अलग-अलग तय बिंदु होते हैं और वे अपने जीवन में परिस्थितियों के आधार पर इनके आसपास उतार-चढ़ाव करते हैं। अकेले व्यक्तियों का सामान्य दृष्टिकोण निराशावादी होता है। वे उन व्यक्तियों की तुलना में अधिक नकारात्मक होते हैं जो अपने जीवन में लोगों, घटनाओं और परिस्थितियों के बारे में अकेले नहीं होते हैं और वे संतोषजनक सामाजिक संबंधों को प्राप्त करने में सक्षम नहीं होने के लिए खुद को दोषी मानते हैं।
कई बार यह अस्तित्व की विफलता के प्रतिफल के रूप में भी सामने आता है। अपने से लोकप्रिय और सफल लोगों से तुलना करने पर यह अकेलापन और बढ़ता जाता है। मसलन, इंटरनेट पर सोशल मीडिया से भले ही हम पूरी दुनिया से जुड़े रह सकते हैं, लेकिन इस पर अत्यधिक निर्भरता अकेलेपन को बढ़ा सकती है।
किसी आयोजन में एक साथ समय बिताते परिवार के सदस्यों की तस्वीरें देखने से ऐसा महसूस हो सकता है कि आपको छोड़ दिया गया है या आप भूल गए हैं। कुछ मामलों में सोशल मीडिया का उपयोग आक्रोश और नफरत फैलाने के एक उपकरण के रूप में भी किया जा सकता है। एक सामान्य नियम के रूप में अगर आनलाइन रहने के बाद मिजाज लगातार खराब होता है, तो यह संकेत है कि हम अकेलेपन के घेरे में आ गए हैं।
अकेलेपन के कुछ कारण आंतरिक होते हैं। इसलिए उनमें खुद को और अपने आसपास की दुनिया को देखने का तरीका शामिल होता है। अन्य कारण बाहरी हैं। वे स्थान, भौतिक सीमाओं और दूसरों के कार्यों पर आधारित हैं। अकेलेपन का दायरा, अवधि और तीव्रता अलग-अलग हो सकती है। कभी-कभी अकेलापन असंतोष की एक सूक्ष्म भावना है जो आती और जाती रहती है। चाहे हम कहीं भी रहें, अकेलापन एक संभावित समस्या है।
हम बहुत आहत होते हैं, न केवल छोटी-छोटी बातों को लेकर, बल्कि पूरा न कर पाने, हासिल न कर पाने, कुछ न बन पाने से भी…। यानी जब तक मन में अपने बारे में एक छवि है, तब तक अकेलापन चोट पहुंचाता रहेगा। बेहतर होगा कि हम इस अकेलेपन के प्रति जागरूक रहें और इससे भाग न जाएं, बल्कि इसके साथ बने रहें।
अगर हम ऐसा करते हैं तो अलगाव की भावना पूरी तरह से गायब हो जाती है, क्योंकि यह विचार ही है जो अलगाव की भावना पैदा करता है। इस महत्त्वपूर्ण बिंदु को ध्यान में रखना चाहिए कि हम मजबूत सामाजिक संबंधों के लिए उत्सुक एकमात्र व्यक्ति नहीं हैं। बहुत से लोग एक ही नाव में हैं, जिनमें परिचित, पुराने मित्र और यहां तक कि वे अजनबी भी शामिल हैं, जिन्हें हम प्रतिदिन सड़क पर गुजरते देखते हैं।
लियोनार्दो दा विंसी ने अकेलेपन को लेकर एक महत्त्वपूर्ण बात कही है कि अगर आप अकेले हैं, तो पूरी तरह से अपने आप के हैं। अगर आपके साथ एक भी साथी है, तो आप अपने से आधे ही हैं या उसके आचरण की विचारहीनता के अनुपात में उससे भी कम हैं और अगर आपके साथ एक से अधिक साथी हैं, तो आप उसी दुर्दशा में और अधिक गहराई तक गिरेंगे।