गौरव बिस्सा
बच्चों के जीवन की व्यस्तता देख मन व्यथित होना स्वाभाविक है। छह घंटे स्कूल, दो घंटे ट्यूशन, आठ घंटे नींद और कम से कम चार से पांच घंटे तक गृह कार्य और ट्यूशन का काम। बच्चा कब खेले, अपने हमउम्र बच्चों से कब मिले- इस पर समाज और विद्यालय मौन हैं। दोष सिर्फ विद्यालयों का नहीं है। विद्यालयों पर अभिभावकों का एक छद्म दबाव है कि दूसरे विद्यालय में तो कक्षा एक का विद्यार्थी अमुक चीजें जानता है, तो बच्चों के विद्यालय में भी उतनी ही जानकारी दी जानी चाहिए।
प्रतिस्पर्धा का युग है, इसलिए सभी विद्यालयों के लिए ऐसा करना अत्यावश्यक है। दरअसल, अभिभावक चाहते ही नहीं कि बच्चा खेले, कूदे। छोटे घर हैं- खेलेगा तो तोड़फोड़ हो सकती है। साथ ही अभिभावक चाहते हैं कि खेल के नाम पर बच्चे ऐसे तथाकथित खेल खेलें, जिनके नेपथ्य में पढ़ाई छिपी हुई हो। जैसे नक्शा बनाना, स्क्रैबल खेलकर अंग्रेजी शब्द सीखना आदि। बच्चे के मनोरंजन और खेलने के अधिकार को माता-पिता ने मानो छीन लिया है।
बच्चों का अपने हमउम्र बच्चों के साथ खेलना अत्यावश्यक है और व्यक्तित्व के समग्र विकास की रीढ़ यही है। विविध शोध भी यही दर्शाते हैं। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने तीन से सात साल तक के सत्रह सौ बच्चों पर शोध करके यह निष्कर्ष निकाला है कि जो बच्चे अपने हमउम्र बच्चों के साथ खेलते हैं, उनका मानसिक और शारीरिक विकास ज्यादा अच्छा होता है।
इसके विपरीत भारत में बच्चों को स्कूल से छुट्टी दिलवाना, स्कूल शिक्षक से गृहकार्य मंगवाना और ट्यूशन शिक्षक से उसे पूर्ण करवा देना एक सामान्य बात है। अब ऐसे बच्चे का मानसिक विकास हो पाना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि उसने स्कूल जाकर अनुशासन, प्रेम, टीम बनाने, मानव व्यवहार जैसे गुण तो सीखे ही नहीं। एक शोध के अनुसार, बच्चे के स्कूल जाने और सामूहिक खेल खेलने से स्वस्थ मानसिक स्वास्थ्य की नींव पड़ती है। एक अन्य शोध के मुताबिक, एक साथ खेल खेलने से बच्चों में देने का भाव जागृत होता है, अनुशासन बढ़ता है और आपसी प्रेम और सकारात्मकता बढ़ती है।
बच्चों को सर्वगुणसंपन्न बनाने के चक्कर में अभिभावक अति कठोर रूप धारण कर बैठे प्रतीत होते हैं। उन्हें बच्चों का खेलना-कूदना शायद रास नहीं आ रहा। अति महत्त्वाकांक्षा के चलते बच्चों की समस्त सर्जनात्मक शक्ति छीन-सी ली गई है। आज माता और पिता, दोनों ही कमाने के लिए बाहर जा रहे हैं ऐसे में कई बार अभिभावकों की चाहे-अनचाहे उपेक्षा बच्चे को पीड़ित कर रही है।
इसकी एक बड़ी वजह है अभिभावकों का अत्यधिक धन, सत्ता और संपन्नता के प्रति बेलगाम आकर्षण। इसके अलावा, अभिभावक के रूप में क्रोध को नियंत्रित न कर पाना आज के युग की सबसे बड़ी समस्या बन चुकी है। क्रोध का स्तर इतना ज्यादा हो चला है, मानो संतान की एक गलती से समूचे विश्व में अशांति और उन्माद होकर विश्व युद्ध होने वाला हो।
मुसीबत यह है कि अब संयुक्त परिवारों के हाशिये पर चले जाने के कारण जो अनुभव बच्चा अपने दादा, काका, मामा आदि से सीखता था, वह खो रहा है। माता-पिता को पैसा कमाने, दफ्तर की राजनीति से उलझने से ही फुर्सत नहीं है। कई यह चाहते हैं कि बच्चा ‘उठ कहें तो उठे और बैठ कहें तो बैठे’ के सिद्धांत के तहत जिए। यह नामुमकिन है। बच्चे की जिज्ञासा को शांत करने के बजाय उसे दंडित करना क्या उचित कहा जा सकता है?
बच्चे के खेलने-कूदने या उत्पात मचाने पर क्रोध करने से पहले अभिभावकों को बच्चों के तीन महत्त्वपूर्ण गुणों को समझना चाहिए। बच्चे का पहला गुण है उसका त्वरित प्रतिक्रिया देने वाला होना। वह जिद करेगा। वह प्रतिक्रिया भी देगा। सीधी सपाट बात भी कहेगा। बच्चा त्वरित प्रतिक्रिया के लिए ही जाना जाता है। जैसे उसे प्यास लगी है तो उसे तुरंत पानी चाहिए। बच्चा यह नहीं सोचता कि हम उस पल गाड़ी चला रहे हैं। उसे बस पानी चाहिए।
अब हमें सोचना है कि उसकी असीम ऊर्जा को दिशा कैसे दी जाए। दूसरा गुण है जो अभिभावक बोलेंगे, जैसा अभिभावक करेंगे, वह वैसा ही करेगा। बच्चा अभिभावकों का अक्स है। बच्चों से बार-बार ‘ऐसा नहीं करो’ कहना उनकी सर्जनात्मक क्षमता को चकनाचूर कर देता है। अभिभावक बच्चों को रोबोट की तरह चलाना चाह रहे हैं जो असंभव है।
तीसरा गुण है बच्चे का अत्यधिक जिज्ञासु या सृजनशील होना। नया सृजन करना बच्चे का स्वभाव है। वह हर चीज में नयापन खोजता है। अभिभावकों से ऊल-जलूल प्रश्न करता है। उस पर खीझने या क्रोधित होने के बजाय अभिभावकों को चाहिए कि वे उसकी जिज्ञासा शांत करें। उसे सृजनशील बनाए रखने रहने के लिए प्रेरित करना आवश्यक है। बच्चों को छूट देने का यह अर्थ नहीं कि अनुशासन न सिखाया जाए। अनुशासन जरूरी है, पर बच्चे को हानिरहित गलतियां करने देना चाहिए। उन्हें किताबों के बाहर की किताबों को भी पढ़ने दिया जाना चाहिए। जीवन में खुशियों को अव्वल आने के लिए बच्चों को खेलने-कूदने दें।