हाल के दशकों में सरकारों द्वारा आवासीय संकट की दिशा में कोई गंभीर पहलकदमी न करने के जितने दुष्परिणाम निकल सकते थे, वे सारे के सारे इस समय हमारे देश में मौजूद हैं। एक तो मकानों की ऊंची कीमतें, ऊपर से प्रापर्टी डीलरों और कई बिल्डरों की धोखाधड़ी और मकान देने में अनावश्यक देरी ने निम्न और मध्यवर्ग के अपने घर के सपने को ग्रहण ही लगा दिया।

कह सकते हैं कि मौजूदा सरकार स्टार सिटी बनाने में यकीन नहीं रखती, बल्कि इसके उलट आवासों को किफायती बनाए रखना चाहती है। उसका ध्यान सस्ते घर उपलब्ध कराने पर है। दावा है कि इस समय देश में वाजिब कीमतों वाले छह करोड़ घरों का निर्माण चल रहा है। पर इस क्षेत्र में ज्यादा बड़ी तब्दीली की उम्मीद आवासीय सेक्टर में पारदर्शिता लाने से ही संभव है, जिसकी जरूरत कई वजहों से पैदा हुई है।

यों तो देश में दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) जैसे अन्य सरकारी संगठन और प्राधिकरण समय-समय पर आवासीय योजनाएं (फ्लैट, मकान और जमीन से संबंधित) निकालते रहते हैं, लेकिन वे योजनाएं नाकाफी ही नहीं रही हैं बल्कि कई स्थानों पर तो सरकारी योजनाओं के मकान इतने महंगे रहे हैं कि मध्यवर्ग उन योजनाओं के जरिए घर-मकान पाने के सपने को हाशिये पर रख देना ही बेहतर समझता है। खुद डीडीए का हाल यही है।

इसके अलावा भी यह नजारा देश के तकरीबन हर मंझले और बड़े शहर में कायम है जहां रोजी-रोजगार के सिलसिले में पड़ोसी इलाकों या राज्यों से आ पहुंचे लोग या तो गांव-देहात की अपनी सारी जमीन-जायदाद बेच कर या हैसियत से कई गुना ज्यादा कर्ज लोग घर लेने की कोशिश करते हैं या फिर अपने घर के सपने को मुल्तवी रखने में ही अपनी भलाई समझते हैं। हालांकि किराए के मकानों में भी महंगाई की जैसी आग लगी है, उसने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा है। लिहाजा या तो वे शहरों के इर्दगिर्द अवैध ढंग से काटी गई कालोनियों में सिर छिपाने को छोटा-मोटा इंतजाम करते रहते हैं।

पर यह इंतजाम कैसा हो सकता है, दिल्ली-एनसीआर में अधूरे पड़े लाखों फ्लैट इसकी गवाही देते हैं। लंबे समय तक किसानों, बिल्डरों और प्राधिकरण के बीच तनातनी के किस्सों और बीच-बीच में आने वाले अदालती निर्देशों ने इस इलाके में घर बुक करवाने वालों की सांस अटकाए रखी। यह नजारा अकेले दिल्ली या मुंबई का नहीं है, लखनऊ, कानपुर, पटना, रांची, इंदौर, भोपाल, चंडीगढ़ समेत तमाम उन शहरों का भी है।

हालांकि इस बीच सरकार ने शहरी इलाकों में सभी लोगों के सिर पर छत दिलाने के वास्ते जो एजेंडा तय किया है, उसके मुताबिक इस साल यानी 2022 के अंत तक नौ करोड़ मकान तैयार किए जाने हैं। इस योजना में शहरी आवास के लिए कमजोर आय वर्ग श्रेणी की मासिक आयसीमा दोगुना की जा चुकी है और और गरीबों को मकान दिलाने के वास्ते मकान के कर्ज पर पांच फीसद तक ब्याज सब्सिडी देने का प्रस्ताव हो चुका है। मगर नौ करोड़ मकान बनाकर उन्हें जरूरतमंदों को दे पाने की राह किसी भी लिहाज से कांटों भरी ही है।

नेशनल रीयल एस्टेट डेवलपमेंट काउंसिल की रिपोर्ट के मुताबिक, यह लक्ष्य पाने के लिए सरकार को आवासीय निर्माण क्षेत्र में 260 अरब डालर का निवेश करना होगा, जो उसके बूते के बाहर की बात है। इसलिए उसे कर्जदाता संस्थाओं और विदेशी पूंजीदाताओं के सामने हाथ फैलाना पड़ सकता है और निजी बचतों पर डाका डालना पड़ सकता है। यही नहीं, निजी आवासीय योजनाओं के अप्रूवल (संस्तुति) के कामकाज में भी उसे काफी तेजी लानी होगी क्योंकि फिलहाल विश्व बैंक का आकलन यह है कि भारत में किसी निर्माण कार्य की अनुमति लेने की 34 न्यूनतम प्रक्रियाएं हैं और उन्हें पूरा करने में औसतन 196 दिन लगते हैं। यदि यही रफ्तार आगे भी कायम रहती है तो नौ करोड़ लोगों को मकान देने में साठ-सत्तर साल लग सकते हैं।