बच्चों की सधी-संतुलित परवरिश के लिए पारिवारिक परिवेश की सहजता आवश्यक है। इसमें माता-पिता की आपसी समझ और साथ सबसे अहम है। बच्चों के मन और जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव अभिभावकों के स्नेहपूरित साथ का ही पड़ता है। उम्र के पहले पड़ाव पर मिले बड़ों के आपसी लगाव या अलगाव का प्रभाव उम्र भर बना रहता है। यही कारण है कि अभिभावकों के संबंध का बिखराव केवल दो व्यक्तियों के अपने साझे जीवन से अलग होने भर की बात नहीं है।

बड़ों के बीच पैदा हुआ उलझाव, अवहेलना और फिर अलगाव का बर्ताव बालमन को भी गहराई से प्रभावित करता है। बावजूद इसके, बिखरते रिश्तों के इस दौर में दुनिया के हर हिस्से में एकल अभिभावकों की संख्या बढ़ रही है। यहां तक कि परंपरागत ढांचे वाले भारतीय समाज में भी एकल अभिभावकों के आंकड़े बढ़ रहे हैं। बच्चों की परवरिश के मामले में साझा दायित्व की कमी हाल के वर्षों में महानगरों से लेकर गांवों, कस्बों तक देखने को मिल रही है।

बच्चों के पालन-पोषण से कितने ही भावनात्मक और व्यावहारिक पक्ष जुड़े होते हैं। कभी आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है, तो कभी सामाजिक जीवन में उपेक्षा और असहज स्थितियां हिस्से आती हैं। बच्चों की परवरिश से जुड़ी भागदौड़ और चिंताएं तो हर पल घेरे रहती हैं। यही वजह कि हमारे देश में एकल अभिभावक परिवार कभी समाज का स्वीकृत हिस्सा नहीं रहे।

हालांकि आज के बदलते दौर में इस मामले में बड़ा बदलाव आया है, पर परवरिश के पहलुओं पर इस बिखराव का असर भी दिख रहा है। बिखरते रिश्ते न केवल बच्चों की सधी-संतुलित परवरिश में बाधा बन रहे हैं, बल्कि सामाजिक-पारिवारिक ढांचे पर भी नकारात्मक असर डाल रहे हैं। दुनिया के किसी भी समाज में पति-पत्नी के संबंधों का बिखराव पीड़ादायी ही होता है, पर भारत में यह महिलाओं के जीवन से जुड़ी जद्दोजहद को कई गुना बढ़ा देता है। इसका दंश बच्चे कई तरह के भटकाव और अलगाव के रूप में झेलते हैं।

‘यूनाइटेड किंगडम आफिस फार नेशनल स्टैटिस्टिक्स’ के एक अध्ययन के मुताबिक एकल माता-पिता के बच्चों में मानसिक बीमारी से पीड़ित होने की संभावना दोगुनी होती है। इस विषय में ब्रिटेन और अमेरिका के शोधकर्ताओं का यह भी मानना है कि बिना पिता वाले बच्चों के दुखी होने की संभावना तीन गुना अधिक होती है। साथ ही, उनमें असामाजिक व्यवहार, मादक द्रव्यों के सेवन और किशोर अपराध में संलग्न होने की संभावना भी अधिक होती है।

दुनिया के हर हिस्से में अधिकतर एकल अभिभावक माताएं हैं। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार भारत में करीब 4.5 करोड़ परिवार एकल माताएं चला रही हैं। करीब एक करोड़ एकल माताएं तो पूरे परिवार को अकेले संभाल रही हैं। महिलाओं के जीवन पर पड़ने वाले सामाजिक-मनोवैज्ञानिक प्रभाव की स्थिति इस बात से समझी जा सकती है कि तीन करोड़ बीस लाख एकल माताएं संयुक्त परिवारों में रह रही हैं।

संयुक्त राष्ट्र द्वारा वर्ष 2015 से 2020 तक 89 देशों से आंकड़े एकत्रित कर ‘प्रोग्रेस आफ द वर्ल्ड वीमन’ नाम से जारी रपट में अलग-अलग परिवारों की संरचना का विश्लेषण किया गया था। अध्ययन में पाया गया था कि भारतीय परिवारों में 46.7 फीसद दंपत्ति अपने बच्चों के साथ रह रहे हैं। वहीं इकतीस फीसद से ज्यादा संयुक्त परिवारों में रहते हैं। पारिवारिक ढांचे की बदलती स्थिति विकसित देशों में और स्पष्ट देखी जा सकती है।

‘प्यू रिसर्च सेंटर’ के अनुसार, अमेरिका में 18 वर्ष से कम आयु के 25 से 30 फीसद बच्चे एकल-माता-पिता के घर में रहते हैं। आर्थिक सहयोग और विकास संगठन के सैंतीस सदस्य देशों में दस से पच्चीस फीसद बच्चे एकल अभिभावक घरों में रहते हैं। समझना मुश्किल नहीं कि साल-दर साल इस बिखराव के कारण बच्चों की सुरक्षा और पालन-पोषण के भावनात्मक पक्ष प्रभावित हो रहे हैं।

बिखरते सामाजिक-पारिवारिक ढांचे के इस दौर में भारत, एकल अभिभावक वाले परिवारों के मामले में अमेरिका, चीन और जापान के बाद चौथा सबसे बड़ा देश बन गया है। कभी संयुक्त परिवार की संस्कृति को जीने वाले भारतीय समाज में अब अलगाव के बाद बच्चों का संरक्षण लेने या न लेने की कानूनी लड़ाई आम बात हो गई है।

इन हालात में बच्चों का जीवन भी बहुत उतार-चढ़ाव के दौर से गुजरता है। बच्चों को जिस सुरक्षित और विश्वसनीय परिवेश की आवश्यकता होती है, वह बिखरते भारतीय परिवारों से गायब होता जा रहा है। यही वजह है कि एकल अभिभावक परिवारों के बढ़ते आंकड़े चिंता का विषय बने हुए हैं।

दरअसल, पारिवारिक बिखराव को देखते-जीते बच्चों के मन-जीवन पर इन हालात का गहन प्रभाव पड़ता है। अध्ययन बताते हैं कि जो बच्चे लगातार साझा जीवन जीते माता-पिता के साथ परवरिश पाते हैं, वे अकादमिक ही नहीं सामाजिक और भावनात्मक मोर्चे पर भी उन बच्चों की तुलना में बेहतर होते हैं, जिनके माता-पिता बचपन में अलग हो जाते हैं।

ब्रिटेन में हुए एक अध्ययन के अनुसार दो से छह वर्ष की आयु के छोटे बच्चे अभिभावकों के अलगाव से सबसे अधिक भयभीत होते हैं। मासूमियत के इस पड़ाव पर उनका मन एक तरह से बहिष्कृत और भ्रमित भाव से घिर जाता है। वहीं 7 से 12 वर्ष की आयु के बच्चे माता-पिता के रिश्ते की टूटन स्वीकार कर अपने मनोभावों को कहने में तो समर्थ होते हैं, पर इसके बाद माता-पिता पर विश्वास करना छोड़ देते हैं। ऐसे बच्चे दूसरे लोगों से सहायता और समर्थन पाने का मार्ग खोजने लगते हैं।

इतना ही नहीं, एकल अभिभावक परिवारों में माता-पिता के तलाक या अलगाव के बाद बने हालात में बड़े होने वाले किशोरवय बच्चों के आपराधिक व्यवहार में शामिल होने संभावना बढ़ जाती है। असल में, उम्र के इस पड़ाव पर कई भावनात्मक और शारीरिक बदलावों का सामना कर रहे किशोरों को माता-पिता के अलगाव से बहुत बुरी स्थिति का सामना करना पड़ता है। इस परिवर्तन के साथ संघर्ष करते हुए इस आयुवर्ग के बच्चे परिवार से पूरी तरह दूर तक हो सकते हैं।

समझना मुश्किल नहीं है कि कमोबेश हर मामले में ही बच्चे पारिवारिक बिखराव का दंश झेलते हैं। बड़ों के रिश्तों की टूटन और उलझन बच्चों के मन-जीवन में भी भटकाव ले आती है। परिवार की यह स्थिति बच्चों में सामाजिक समायोजन के भाव को भी प्रभावित करती है। इसका असर उनके भावी जीवन पर भी पड़ता है। ऐसे बच्चे स्वयं भी भविष्य में सामाजिक-पारिवारिक संबंधों को सहजता से नहीं जी पाते। भावनात्मक-मानसिक स्वास्थ्य से लेकर व्यक्तिगत-सामाजिक जीवन तक, समाज के इन भावी नागरिकों के जीवन में हर पहलू पर इस एकाकीपन के दुष्परिणाम देखने को मिलते हैं।