बचपन अगर बाल तस्करी के बीच फंसकर रह जाए तो बच्चा अपने बचपन, क्षमता और मानवीय गरिमा के साथ-साथ शारीरिक और मानसिक विकास से भी वंचित रह जाता है। गौरतलब है कि बच्चों के घरेलू काम, विभिन्न क्षेत्रों में बाल श्रम, भीख मांगना, अंग तस्करी और व्यावसायिक यौनकर्म जैसी अवैध गतिविधियां बाल तस्करी की कोख से ही जन्म लेती हैं।
पिछले दिनों भारत में ‘बाल तस्करी : स्थितिजन्य डेटा विश्लेषण से अंतर्दृष्टि और तकनीक संचालित हस्तक्षेप रणनीतियों की आवश्यकता’ विषयक एक रपट प्रकाशित हुई। यह 2016 से 2022 के बीच इक्कीस राज्यों और 262 जिलों में बाल तस्करी से जुड़े आंकड़ों पर आधारित है। इसमें स्पष्ट है कि देश में बच्चों की तस्करी के मामलों में उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक वृद्धि हुई है, जबकि बिहार और आंध्र प्रदेश क्रमश: दूसरे और तीसरे स्थान पर रहे हैं। पश्चिम बंगाल, ओड़िशा, तेलंगाना, गुजरात और मध्यप्रदेश भी बाल तस्करी से ग्रस्त हैं।
कोरोना काल के बाद दिल्ली में बाल तस्करी से जुड़े मामलों में 68 फीसद की वृद्धि दर्ज हुई है। इस रिपोर्ट के मुताबिक 2016 से 2019 के बीच उत्तर प्रदेश में बाल तस्करी की 267 घटनाएं हुईं। कोरोना काल के बाद 2021 से 2022 के बीच इन घटनाओं की संख्या बढ़कर 1214 हो गई। इसी तरह कर्नाटक में बाल तस्करी की घटनाओं में अठारह गुना वृद्धि हुई है।
यहां यह भी देखने में आया कि जिलों की बाल तस्करी से जुड़े मामलों में जयपुर पहले स्थान पर रहा। सूची में अन्य चार शीर्ष जिले देश की राजधानी दिल्ली के रहे। बाल तस्करी से ही संबधित बालश्रम से जुड़े बच्चों का विश्लेषण बताता है कि होटल और ढाबों पर 15.6 फीसद, परिवहन उद्योग में 13 फीसद और कपड़ा उद्योग में 11.18 फीसद बच्चे मजदूरी करते पाए गए। प्रसाधन उद्योग में पांच से आठ साल के बच्चे बाल मजदूरी में संलग्न पाए गए।
हालांकि रिपोर्ट यह भी साफ करती है कि देश में बाल तस्करी से जुड़ी जागरूकता के चलते आज अनेक मामले दर्ज हो रहे हैं। इसी का परिणाम है कि इस अवधि में 18 वर्ष से कम उम्र के 13,549 नाबालिग बच्चों को इससे बचाया भी गया है। बचाए गए 80 फीसद बच्चे 13 से 18 वर्ष की आयु के थे, जबकि 13 फीसद बच्चे 9 से 12 वर्ष की आयु के थे और इनमें दो फीसद से अधिक बच्चे नौ वर्ष से भी कम आयु के थे।
यहां संदर्भवश लड़कियों और महिलाओं के गायब होने से जुड़ी दूसरी ताजा रिपोर्ट भी गौरतलब है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो द्वारा संकलित आंकड़े पिछले महीने संसद में प्रस्तुत किए गए। उसके मुताबिक 2019 से 2021 के बीच 13.13 लाख से अधिक लड़कियां और महिलाएं लापता हुईं। इनमें से 18 वर्ष से अधिक आयु की 10.61 लाख महिलाएं और 18 साल से कम आयु की 2.51 लाख लड़कियां लापता हुईं। इनमें से ज्यादातर लड़कियां मध्यप्रदेश और पश्चिम बंगाल से थीं। महाराष्ट्र, ओड़ीशा और छत्तीसगढ़ से भी काफी अधिक नाबालिग लड़कियां और महिलाएं लापता हुईं।
केएससीएफ की बाल तस्करी और एनसीआरबी की लापता बच्चों से जुड़ी रिपोर्ट में कहीं न कहीं सहसंबध भी है। दोनों रिपोर्ट इस बात पर सहमत हैं कि भारत में हर आठ मिनट में एक बच्चा लापता हो जाता है। इनमें से अधिकांश को जबरन श्रम, गुलामी और यौन कार्य में झोंक दिया जाता है। विश्व स्तर पर मानव तस्करी से जुड़ी रिपोर्ट से पता चला है कि मानव तस्करी के पीड़ितों में एक बच्चा जरूर रहा है। पर कम आय वाले देशों में पाए गए पीड़ितों में से आधे बच्चे रहे हैं। उनमें से अधिकांश को जबरन श्रम के लिए तस्करी करके लाया जाता है।
बाल तस्करी संबंधी कारणों की पड़ताल करने से पता चलता है कि गरीबी के साथ-साथ भुखमरी, अशिक्षा, बेरोजगारी तथा आर्थिक रूप से कमजोर परिवार को भरण-पोषण के लिए आर्थिक सहारे की जरूरत जैसे कारक बच्चों को घर से बाहर निकलने पर मजबूर करते हैं। गरीबी से बाहर निकलने या कर्ज चुकाने के लिए कुछ माता-पिता जाने-अनजाने अपने बच्चों को तस्करों के हवाले कर देते हैं।
वंचित समुदाय भारत में बाल तस्करी के लिए सबसे असुरक्षित समुदाय है। इन समुदायों के बच्चों के माता-पिता को उनकी खराब आर्थिक स्थिति के कारण या तो उन्हें गुमराह किया या उनकी बेहतर आजिविका के विकल्प के रूप में अपने बच्चों को बाहर भेजने या उन्हें बेच देने के लिए मजबूर किया जाता है। अवलोकन यह भी बताते हैं कि भारत में संस्थागत चुनौतियों के अलावा पारंपरिक, धार्मिक और सांस्कृतिक प्रथाएं भी युवा लड़कियों को देवदासी प्रथा में धकेलने पर मजबूर करती हैं, जहां जीवन भर उन्हें यौन दासता के लिए मजबूर होना पड़ता है।
उल्लेखनीय है कि आज अनेक देश ऐसे हैं, जहां बाल तस्करी पर कठोर दंड के प्रावधान हैं। ऐसे देशों के लोग भारत में पर्यटक बनकर यहां व्वसायिक यौन कार्यों में संलग्न बाल वेश्याओं की मांग को बढ़ाते हैं। इस कारण भी नाबालिग लड़कियों की तस्करी को बल मिलता है। आंकड़े यह भी बताते हैं कि भारत में अनुमानित तीन लाख भिखारी सड़कों पर हैं। इनमें से तकरीबन पचास हजार बच्चे तस्कर गिरोह के चंगुल में फंस जाते हैं। यह भी अनुमान है कि भारत में ‘रेड लाइट’ क्षेत्रों में यौनकर्म के लिए बीस लाख से भी अधिक महिलाओं और बच्चों की तस्करी की जाती है। भारत सरकार का अनुमान है कि यौन तस्करी में संलग्न बच्चों में अधिक संख्या लड़कियों की है।
यह सच है कि बाल तस्करी अनेक बुराइयों का संकुल है। इसकी रोकथाम के लिए अनेक कानूनी प्रावधान किए गए हैं। इसमें भारत के संविधान का अनुच्छेद-23 स्पष्ट रूप से मानव तस्करी पर प्रतिबंध लगाता है। इसी के साथ-साथ अनैतिक व्यापार रोकथाम अधिनियम -1986, बाल विवाह निषेध अधिनियम-2006, बाल श्रम निषेध अधिनियम 1986 और संशोधित (2016), बंधुआ मजदूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम-1976, किशोर न्याय अधिनियम (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) 2015, यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम 2012 (पाक्सो) प्रमुख हैं।
कानून में नाबालिगों की तस्करी के लिए आजीवन कारावास और जुर्माने का भी प्रावधान है। लेकिन सच यह है कि दर्ज किए गए मामलों में दस फीसद से भी कम में सजा हो पाती है। यही वजह है कि कानूनों की शिथिलता और मुकदमों की पैरवी ठीक से न होने के कारण तस्करी को बल मिलता है।
बाल तस्करी में सबसे अधिक बच्चों का बचपन घायल होता है। यह बालश्रम उन्मुख और बाल शोषण युक्त सामाजिक घटना है। इससे बच्चों का बचपन तो सिकुड़ता ही है, बालक अनेक प्रकार की वंचनाओं का शिकार होकर प्रतिक्रियावादी भी होता है। यहीं से उसके मनोमष्तिष्क में परिवार और समाज से प्रतिशोध लेने की भावना भी घर कर जाती है। जघन्य और घृणित अपराधों में नाबालिग बच्चों के शामिल होने के पीछे उनकी वंचनाओं से उभरते प्रतिशोध का यही मनोविज्ञान कार्य करता है।
बाल तस्करी के उन्मूलन में बच्चों के माता-पिता का सहयोग अपरिहार्य है। इससे जुड़े कानून भी वहीं तक काम करते हैं, जहां उसे वादी का सहयोग प्राप्त हो। पर जहां वादी खुद प्रतिवादी बन जाए, वहां कानून निष्क्रिय हो जाते हैं और तस्करी जैसी बुराई को बल मिलता है। अब यह उत्तरदायित्व समाज और बाल हित से जुड़ी संस्थाओं का है कि वे सम्यक पारस्परिक सहयोग के साथ इस बाल तस्करी को समूल नष्ट करने में अपनी प्रतिबद्धता दोहराएं और बाल तस्करी से ग्रस्त इन बच्चों के पुनर्वासन में अपना सहयोग प्रदान करें।