केसी त्यागी/ बिशन नेहवाल

हाल ही में, घरेलू दाल बाजार को स्थिर करने के उद्देश्य से भारत सरकार ने मार्च 2025 तक तुअर और उड़द दाल के लिए शुल्क-मुक्त आयात के विस्तार की घोषणा की है। सरकार ने अपनी घरेलू मांग की पूर्ति के लिए ब्राजील और अर्जेंटीना जैसे देशों के साथ कई दौर की वार्ता की है। अगर सरकार के दावे पर विश्वास करें तो 2027 तक दलहन के मामले में देश आत्मनिर्भर होगा और 2028 से एक किलो दाल भी आयात करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

उत्पादन क्षमता बढ़ाने के तमाम दावों के बावजूद सरकार का शुल्क-मुक्त आयात का विरोधाभासी निर्णय भारतीय किसानों के लिए इसके निहितार्थ के बारे में महत्त्वपूर्ण सवाल उठाता है। इससे दाल उत्पादक किसानों के जीवन पर अनिश्चितता के बादल खड़े हो गए हैं। भारत में किसानों के पास दाल उत्पादन की बड़ी क्षमता है, लेकिन उन्हें पर्याप्त घरेलू बाजार न मिल पाने से हमेशा यह घाटे का सौदा रहता है।

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विदेश से शुल्क-मुक्त आयात होने से अब घरेलू दाल बाजारों में किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य मिल पाना कठिन है। पिछले रबी सीजन में दाल की खरीद में कोई खास फायदा न मिल पाने से उत्तर प्रदेश में किसानों ने इस बार दालों की खेती कम की है। विदेशी दालों का आयात बढ़ जाने से अगले वर्ष दालों पर किसानों को अच्छे दाम मिलने की संभावनाएं खत्म हो गई हैं।

भारत वैश्विक स्तर पर दालों का सबसे बड़ा उपभोक्ता, आयातक और उत्पादक है। अरहर और उड़द की दाल, भारतीय आहार का महत्त्वपूर्ण घटक होने के कारण रणनीतिक महत्त्व रखती है। शुल्क-मुक्त आयात का विस्तार मूल्य अस्थिरता, अपर्याप्त घरेलू उत्पादन तथा आपूर्ति और मांग को संतुलित करने की निरंतर चुनौती जैसे आवर्ती मुद्दों की पृष्ठभूमि में होता है। भारत में दालों के बाजार में उतार-चढ़ाव देखा गया है, किसान कम उत्पादकता, खंडित भूमि जोत और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों से जूझ रहे हैं। जबकि दालें पोषण सुरक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण हैं, उनके उत्पादन में आत्मनिर्भरता हासिल करना लगातार चुनौती रही है।

शुल्क-मुक्त आयात से घरेलू स्तर पर उत्पादित अरहर और उड़द दाल की कीमतों पर दबाव पड़ सकता है। जब बाजार सस्ते आयात से भर जाते हैं, तो अक्सर घरेलू बाजार में कीमतों में कमी आती है। इससे भारतीय किसानों की आय प्रभावित होती है। भारत का दालों का आयात वित्तवर्ष 2022-23 में छह साल के उच्चतम स्तर, अनुमानित 29 लाख टन, तक पहुंच गया।

अप्रैल-अक्तूबर में 19.6 लाख टन (14,057 करोड़ रुपए) से अधिक का आयात हुआ, जिसमें मसूर की दाल सबसे आगे है, जो दस लाख टन के आंकड़े को पार कर गई है। यह निर्णय संभावित रूप से भारतीय किसानों को अरहर और उड़द दाल की खेती से हतोत्साहित कर सकता है। सस्ते आयात की उपलब्धता के साथ, किसान बेहतर कमाई देने वाली अन्य फसलों की ओर रुख कर सकते हैं। पहले से ही दलहन की कम बुआई के आंकड़े सामने आ रहे हैं। इसमें दालों की उपलब्धता को लेकर चिंता बढ़ गई है।

अगर पिछले आंकड़ों से तुलना करें, तो बुवाई लगातार घट रही है। पिछले साल इस समय तक दलहन की बुवाई 148.53 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में हुई थी, जो इस बार घटकर 137.13 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में ही हुई है। दलहन की कम बुवाई के लिए राज्यों में किसानों का दलहन छोड़ कर अन्य फसलों की तरफ रुख कर लेना बड़ा कारण है। यह बदलाव दलहन उत्पादन बढ़ाने और आत्मनिर्भरता हासिल करने के सरकार के प्रयासों को कमजोर कर सकता है।

मसलन, एक क्विंटल मसूर उगाने की लागत सात हजार रुपए बैठती है, जबकि 2023-2024 के लिए मसूर दाल का घोषित एमएसपी छह हजार रुपए है, जिसे 2024-2025 के लिए बढ़ाकर 6425 रुपए कर दिया गया है। उसके बाद भी किसानों को वह दाम नहीं मिल पाता, क्योंकि दालों सहित किसी भी अन्य फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की समुचित व्यवस्था ही नहीं है।

ऊपर से सरकार कनाडा, ब्राजील, अर्जेंटीना, मोजांबिक, म्यांमा और दूसरे देशों से सस्ती दर पर दाल आयात कर लेती है। इससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक है कि दाल का आयात घरेलू से भी नीचे दामों पर होता है। इसका लाभ उपभोक्ताओं को नहीं मिल पाता, और सारा नाजायज मुनाफा व्यापारी खा जाते हैं।

तमाम किसान संगठन सरकार पर किसानों के साथ सौतेला व्यवहार करने का आरोप लगाते रहते हैं। दालों की मांग बढ़ने से कीमत का फायदा किसान को न मिले, इसलिए सरकारें दालों के आयात का दरवाजा खुला रखती हैं। दालों का उत्पादन बढ़ने पर सरकार किसानों के हित में कोई महत्त्वपूर्ण कदम नहीं उठाती, लेकिन जैसे ही दाल की कीमत बढ़ने लगती है, इस बहाने वह प्रतिबंध हटा देती है।

व्यापारी भी विदेश से आने वाली सस्ती दाल का इंतजार करते रहते हैं, जिससे किसानों को फायदा होता ही नहीं है। मार्च 2025 तक तुअर और उड़द दाल के शुल्क-मुक्त आयात का विस्तार एक जटिल चुनौती है, जिसके लिए एक सूक्ष्म दृष्टिकोण की आवश्यकता है। वैश्विक व्यापार की आवश्यकता के साथ भारतीय किसानों के हितों को संतुलित करना नाजुक काम है, जो एक व्यापक नीतिगत ढांचे की मांग करता है।

सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य मिले, पूरे देश में प्रत्येक फसल की घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद सुनिश्चित की जाए। इसके लिए बाजार संबंधों को मजबूत करना महत्त्वपूर्ण है। दालों सहित सब कृषि उत्पादों के यातायात, भंडारण, व्यापार, प्रसंस्करण और निर्यात पर लगे प्रतिबंध समाप्त कर दिए जाएं।

घरेलू उत्पादन कम होने की दशा में आयात और आयात कर की राशि का निर्णय फसल आने के बाद किया जाए। मजबूत कृषि बुनियादी ढांचे का निर्माण और किसानों और बाजारों के बीच संपर्क में सुधार से वैश्विक बाजार में उतार-चढ़ाव के प्रभाव को कम किया जा सकता है। अब समय का तकाजा है कि विश्व व्यापार संगठन की नित नई शर्तों से निकल कर ग्रामीण क्षेत्र और कृषि की उपेक्षा करना बंद कर गांवों को ही स्वावलंबी बनाने के प्रयास में जुटा जाएं।

भारतीय कृषि के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए, सरकार को निवेश, तकनीकी प्रगति और सहायक नीतियों के माध्यम से किसानों को सशक्त बनाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इसके साथ ही, प्रयासों को एक लचीला कृषि पारिस्थितिकी तंत्र बनाने की दिशा में निर्देशित किया जाना चाहिए, जो कृषक समुदाय की भलाई सुनिश्चित करते हुए वैश्विक बाजार के दबावों का सामना कर सके।

इन चुनौतियों से निपटने में सरकार, किसानों और अन्य हितधारकों के बीच सहयोग सर्वोपरि है। भारत के लिए एक स्थायी और समृद्ध कृषि भविष्य की यात्रा के लिए रणनीतिक दूरदर्शिता, सक्रिय नीति निर्धारण और भूमि पर मेहनत करने वालों की भलाई के प्रति प्रतिबद्धता की आवश्यकता है।