राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न कक्षाओं के बच्चों में बुनियादी गणित की समझ के स्तर में 2018 के मुकाबले जबर्दस्त गिरावट आई है। दुखद है कि नई तकनीकों के विकास, ज्ञान के नए क्षेत्रों और संचालन के नए-नए तरीकों के बावजूद, अनेक बच्चे मूलभूत साक्षरता और संख्यात्मक कौशल को सही ढंग से सीखे बिना ही जबरन आठवीं कक्षा तक पहुंचाए जा रहे हैं। इससे भी ज्यादा चिंताजनक यह है कि देश भर के ग्रामीण स्कूलों में कक्षा तीन के छात्रों की पढ़ने की क्षमता में जबर्दस्त गिरावट दिखी है। केवल 20.5 फीसद छात्र कक्षा दो की पुस्तक पढ़ सके।

भारी-भरकम राशि खर्च करने के बावजूद अगर सरकारी स्कूलों की दशा नहीं बदलती है, तो स्वाभाविक ही ठीकरा राज्य सरकार और प्रशासन के सिर फोड़ा जाता है। पगार के मामले में सबसे अच्छी हालत औसतन सरकारी शिक्षकों की है। मगर पढ़ाई के मामले में ये निजी स्कूलों के कम पगार वाले शिक्षकों के मुकाबले फिसड्डी ही क्यों रहते हैं? इसको लेकर न हमारे नुमाइंदे कभी फिक्रमंद दिखते हैं और न शिक्षा विभाग ही चिंता करता है।

इस बात को समझना होगा कि तमाम कोशिशों के बावजूद आखिर क्यों सरकारी स्कूल केवल अति साधारण तबकों तथा गांवों के ही होकर रह गए हैं? क्या वजह है कि थोड़े भी सक्षम और संपन्न परिवार अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाना चाहते हैं। इनसे टूटते विश्वास की वजहें जानकर भी जिम्मेदार लोग अपना पल्ला झाड़ लेते हैं, जो गलत है।

संबंधित महकमों ने क्यों कभी इसकी वजहें जानने की कोशिश नहीं की और अगर जान भी गए तो क्यों चुप रहे? बदलते माहौल में सुधारों के बावजूद सरकारी स्कूल, चाहे वे प्राइमरी हों, पूर्व माध्यमिक, माध्यमिक या फिर उच्च माध्यमिक, वह बदलाव क्यों नहीं आया, जिसके लिए ये स्कूल खुले? सच तो यह भी है कि भर्ती होने से पहले तक शिक्षक तरह-तरह के ख्वाब पाले देश के लिए कुछ कर गुजरने और नए शिक्षितों की फौज खड़ी करने के जज्बे से भरे नजर आते हैं। मगर जैसे ही उन्हें यह गुरुतर दायित्व मिलता है, वे भी उसी पुराने ढर्रे पर चलना शुरू कर देते हैं। इसी सांचे को समझना और तोड़ना होगा। भला इन हालात में कैसे सरकारी स्कूलों पर टिके नौनिहालों की तकदीर बदली जा सकेगी।

यह एक बड़ी सच्चाई है कि कई राज्यों के सरकारी, विशेषकर प्राथमिक स्कूलों में मुख्य रूप से कमजोर तबकों के बच्चे पढ़ते हैं। यह भी सही है कि गांवों में बच्चियों को बजाय पढ़ाने के, उनकी शादी कर देना प्राथमिकता होती है। इससे उनकी शिक्षा महज औपचारिक से ज्यादा कुछ नहीं रहती। सरकारी स्कूल भवनों की मरम्म्त, रंग-रोगन की व्यवस्था बेहद लचर होती है। बड़ी तादाद में ऐसे स्कूल भवनों की तस्वीरें भी सामने आती हैं, जो खंडहर या जीर्ण-शीर्ण हालत में हैं। यहां तक कि रात में आवारा पशुओं और असामाजिक तत्त्वों का ठिकाना बन जाते हैं।

शिक्षा की सत्रहवीं वार्षिक स्थिति रिपोर्ट यानी ‘ऐनुअल स्टेटस आफ एजुकेशन रिपोर्ट’ (असर), 2022 को जारी हुए आठ माह बीत चुके हैं। मगर हर बार इसके अध्ययन से उजागर नई-नई सच्चाइयां हैं। 616 जिलों के 19,060 गांवों में लगभग सात लाख बच्चों पर हुए इस सर्वेक्षण में अनेक तल्ख सच्चाइयां हैं। इसमें प्राथमिक कक्षाओं वाले 17,002 सरकारी विद्यालय शामिल थे, जिनमें 9,577 प्राथमिक तथा 7,425 उच्च प्राथमिक विद्यालय थे।

हालांकि सुकून की बात है कि सरकारी स्कूलों में सोलह वर्षों में पहली बार दाखिले में तेजी दिखी, जिसका कारण सिर्फ और सिर्फ कोविड है। रिपोर्ट के मुताबिक बच्चों के बुनियादी साक्षरता स्तर में जबर्दस्त गिरावट आई है। बच्चों के पढ़ने की क्षमता, अंकीय कौशल की तुलना में बहुत तेजी से असंतुलित हुई है। असंतुलन वर्ष 2012 के स्तर तक पहुंच रहा है, जो बेहद चिंताजनक है।

राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न कक्षाओं के बच्चों में बुनियादी गणित की समझ के स्तर में 2018 के मुकाबले जबर्दस्त गिरावट आई है। दुखद है कि नई तकनीकों के विकास, ज्ञान के नए क्षेत्रों और संचालन के नए-नए तरीकों के बावजूद, अनेक बच्चे मूलभूत साक्षरता और संख्यात्मक कौशल को सही ढंग से सीखे बिना ही जबरन आठवीं कक्षा तक पहुंचाए जा रहे हैं।

इससे भी ज्यादा चिंताजनक यह है कि देश भर के ग्रामीण स्कूलों में कक्षा तीन के छात्रों की पढ़ने की क्षमता में जबर्दस्त गिरावट दिखी है। केवल 20.5 फीसद छात्र कक्षा दो की पुस्तक पढ़ सके। 2018 की रिपोर्ट से तुलना करें तो पता चलता है कि 2022 में बच्चों के पढ़ने की क्षमता में सात फीसद की गिरावट आई है। हो सकता है कि इसके पीछे कोरोना के दौरान स्कूल बंदी कारण हो। मगर क्या सब कुछ सामान्य होने के बाद कोई प्रयास हुए? जवाब है, ज्यादा कुछ नहीं।

अब भी काफी प्रयास की जरूरत है, ताकि बच्चों के लिए सीखने की प्रवृत्ति को सुधारा जाए तथा इस तरह आकर्षक बनाया जाए कि बच्चे स्वयं उसके प्रति आकर्षित हों। हालांकि सर्व शिक्षा अभियान और अन्य कतिपय प्रयासों के तहत स्कूलों को बेहतर बनाने के लिए काफी कुछ किया गया है, लेकिन ये प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। स्कूलों में सिखाने की दक्षता सबसे आवश्यक है।

मौजूदा व्यवस्थाओं पर भी गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है। क्या और कैसे सुधार होने चाहिए, यह एक खुली किताब है। ज्यादातर सरकारी स्कूलों में उपयुक्त कक्ष, साफ पेयजल, शौचालय, पुस्तकालय और खेल के मैदान जैसी बुनियादी सुविधाओं तक का अभाव है। यह नहीं भूलना चाहिए कि इन्हीं सब कारणों से शिक्षा की समग्र गुणवत्ता प्रभावित होती है।

प्राथमिक विद्यालय जाने की आयु वाले करीब सारे विद्यार्थी फिर से स्कूल तो जाने लगे हैं, लेकिन वर्तमान शिक्षण प्रणाली से निराश हैं, क्योंकि उनमें सीखने की प्रवृत्ति घटी है। इसे ठीक कर आकर्षक बनाना होगा, ताकि पढ़ने के प्रति रुझान बढ़े। अनेक सरकारी स्कूलों में पर्याप्त कमरे, साफ पेयजल, शौचालय, पुस्तकालय और खेल के मैदान जैसी बुनियादी सुविधाएं न होने से समग्र गुणवत्ता प्रभावित होती है।

देश में ऐसे सरकारी स्कूलों की भरमार है, जहां प्रशिक्षित और योग्य शिक्षक हैं ही नहीं। स्कूल प्रबंधन और शिक्षकों के बीच की खाई से उत्तरदायित्व के प्रति विमुखता, पढ़ाई की खराब गुणवत्ता और छात्रों में उत्साह की जबर्दस्त कमी जगजाहिर है। भारत में लगभग 1.2 लाख स्कूल ऐसे हैं, जहां केवल एक शिक्षक है। ऐसे में गुणवत्ता तथा सरकारी उपायों को लागू करने के बारे में सोचना तक कठिन है। अकेला शिक्षक कैसे सभी कक्षाओं पर ध्यान देगा? जाहिर है, वह स्कूल में बच्चों की धमाचौकड़ी काबू करेगा या सारी कक्षाओं को पढ़ा लेगा?

दूसरी ओर, राजनीतिक दखल, अफसर-बाबुओं की सांठ-गांठ से सरकारी शिक्षक गांवों के बजाय नगर, कस्बे और शहरों में पलायन की जुगाड़ में रहते हैं, जिससे आई विसंगति भी चिंता का विषय है। शिक्षा नीति के बावजूद स्कूलवार तथा विषयवार शिक्षकों का अनुपात असंतुलित रहता है। भ्रष्ट तंत्र में सांठ-गांठ से झूठी जानकारियों के चलते एक ही विषय के कहीं कई-कई, तो कहीं एक भी शिक्षक नहीं होता है।

हजारों विद्यालयों में सभी विषयवार शिक्षक नहीं हैं। ऐसी राजनीतिक सिफारिशों का कोई विश्लेषण नहीं होता है। इस बहती गंगा में अफसर भला क्यों न डुबकी लगाएंगे। इसी से निरा ग्रामीण, आदिवासी-जनजातीय इलाकों में खासी छात्र संख्या के बावजूद शिक्षकों की हमेशा कमी रहती है। जबकि कस्बाई-नगरीय क्षेत्रों में छात्रों की कमी के बावजूद शिक्षकों की भरमार रहती है।

जब तक तैनाती में असंतुलन और शिक्षकों से बाबूगिरी कराने का ढर्रा नहीं बदलेगा, यकीनन शिक्षा का मौजूदा परिवेश नहीं बदलेगा। क्या शिक्षा और शिक्षक संवेदनशीलता की श्रेणी में नहीं आते हैं? क्यों शिक्षकों की अनिवार्यतया हर चार या पांच साल में दूसरी तहसील, ब्लाक या जिले में तबादला नीति नहीं है?

तैनाती से सेवानिवृत्ति तक एक ही स्कूल में दशकों बिताने वाला शिक्षक कैसे बेखौफ नहीं होगा? स्थानीय राजनीति से कैसे नहीं जुड़ेगा? बस यही खेल शिक्षा की तमाम लुभावनी और दस्तावेजी रीतियों-नीतियों का पालन और मखौल उड़ाने के लिए काफी है। इसे समझ कर भी न समझने की कोशिश पूरे शिक्षण तंत्र पर पलीता नहीं तो और क्या है!