आज की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में मानसिक समस्याएं बहुत तेजी से लोगों को अपना शिकार बना रही हैं। इसके घातक प्रभाव हर वर्ग, हर उम्र के लोगों पर देखने को मिल रहे हैं। मानसिक अवसाद का विस्तार इतना तेज है कि इससे न तो कोई देश बचा है और न कोई राज्य। आज हर गांव, गली मोहल्ले में अवसाद के मरीज मिल जाते हैं। विडंबना यह है कि मानसिक तनाव, आत्महत्याएं और बेचैनी की ये समस्याएं अब बच्चों और किशोरों में गंभीर होती जा रही हैं। बच्चे आज खेलने-कूदने की उम्र में मानसिक परेशानियों का सामना कर रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन और संयुक्त राष्ट्र बाल कोष यानी यूनिसेफ की ताजा रपट ‘मेंटल हेल्थ आफ चिल्ड्रन ऐंड यंग पीपल’ के अनुसार दुनिया का लगभग हर सातवां बच्चा किसी न किसी मानसिक समस्या से जूझ रहा है। इसमें बेचैनी और अवसाद प्रमुख हैं।

मानसिक अवसाद से घिरे बच्चों की मासूमियत खोती जा रही है। उनकी खिलखिलाती मुस्कान चिड़चिड़ाहट में बदल गई है। वे बहुत जल्दी गुस्सा करने लगे हैं। उनमें सहनशक्ति कम होती जा रही है। कई बार तो वे अपने माता-पिता की बात से इतने नाराज हो जाते हैं कि उन पर हमला तक करने से नहीं चूकते। विशेषज्ञों का कहना है कि मानसिक तनाव बढ़ने पर किशोर अब आत्महत्या का रास्ता बहुत तेजी से अपना रहे हैं। अवसाद के शिकार इन बच्चों के माता-पिता यह समझ ही नहीं पाते कि जो बच्चे कुछ महीनों पहले तक हर पल खेलते-कूदते, हंसते-गाते रहते थे, मासूमियत और नटखटपन से भरे रहा करते थे, उनके व्यवहार में अचानक इतना बदलाव क्यों आ गया है कि वे उनकी कोई बात सुनना और समझना ही नहीं चाहते। अभिभावकों को यह समझ ही नहीं आता कि इस स्थिति को कैसे संभालें।

भारत में पांच करोड़ से अधिक बच्चे मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रसित

यूनिसेफ की रपट के अनुसार, भारत में हर सात में से एक बच्चा अवसाद का शिकार है। इसी तरह वर्ष 2019 में ‘इंडियन जर्नल आफ साइकियाट्री’ में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चला कि भारत में पांच करोड़ से अधिक बच्चे मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रसित हैं। विशेषज्ञों के अनुसार 1999 से, जबसे भारत ने उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की अर्थव्यवस्था को अपनाया है, पश्चिमी सभ्यता बहुत तेजी से भारतीय समाज में फैली है, हमारी दैनिक आदतों में तुरंता आहार, शीतल पेय और सोशल मीडिया ने विशेष स्थान बना लिया है। नौनिहालों की रोजमर्रा की जिंदगी में हुए इस परिवर्तन से उनमें अवसाद, तनाव, चिड़चिड़ापन के मामले तेजी से बढ़ गए हैं।

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‘नेशनल लाइब्रेरी आफ मेडिसिन’ में वर्ष 2024 में प्रकाशित अध्ययन के आंकड़ों के मुताबिक अति प्रसंस्कृत यानी ‘अल्ट्रा प्रोसेस्ड’ और ‘फास्ट फूड’ के सेवन से भारतीय बच्चों में तनाव का खतरा दोगुना हो गया है। डाक्टरों का कहना है कि हमारे पोषण और मस्तिष्क का सीधा संबंध होता है। अध्ययनों से पता चलता है कि आज का युवा ‘अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड’ का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। इस तरह के खाद्य पदार्थ तैयार करने के लिए इन्हें कई औद्योगिक प्रक्रियाओं से गुजारा जाता है। इनमें अस्वस्थ वसा, चीनी, नमक और कृत्रिम सामग्री की अधिकता होती है, जो नींद से जुड़ी समस्या को 40 फीसद तक बढ़ा देता है। इससे लंबे समय में याददाश्त कमजोर होती है और बच्चा ‘डिमेंसिया’ का शिकार हो सकता है।

फास्ट फूड खाने से बच्चों में ज्यादा बढ़ रही समस्या

दरअसल, डिब्बाबंद आहार ‘न्यूरोट्रांसमीटर’ जैसे ‘डोपामिन’ और ‘सिरोटोनिन’ (खुशहाली हार्मोन) के स्राव को बाधित करता है, जिससे बच्चों में अवसाद का खतरा बढ़ जाता है। विशेषज्ञ मानते हैं कि तुरंता आहार का सेवन व्यक्ति को अधीर (बेसब्र) भी बनाता है। फास्ट फूड खाने से पेट बहुत जल्दी भर जाता है और जल्दी संतुष्टि मिल जाती है। अगर लगातार फास्ट फूड खाया जाता है, तो व्यक्ति को तुरंत संतुष्टि पाने की आदत हो जाती है और जब चीजें जल्दी नहीं आतीं, तो व्यक्ति में चिड़चिड़ापन देखा जाता है। गौरतलब है कि जंक फूड जल्दी ऊर्जा तो देते हैं, क्योंकि इनमें शर्करा की मात्रा अधिक होती है, लेकिन तेजी से बढ़ी शर्करा की मात्रा से शरीर डोपामिन के स्राव को दबा देता है और शरीर शर्करा का आदी हो जाता है जैसे हम नशे के आदी हो जाते हैं। जब शरीर को शर्करा नहीं मिलती, तो वह थकान और तनाव महसूस करता है।

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वर्ष 2023 में पत्रिका ‘फंट्रियर्स’ में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया था कि जो किशोर प्रतिदिन सात घंटे से अधिक समय ‘स्क्रीन’ (मोबाइल, टीवी, लैपटाप) पर बिताते हैं, उनमें अवसाद की संभावना दोगुनी हो जाती है। पिछले दशकों में भारत में बहुत तेजी से सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी का विकास हुआ है। आज भारत का लगभग हर क्षेत्र डिजिटल हो गया है। शिक्षा के क्षेत्र में भी तेजी से डिजिटलीकरण हुआ है, जिससे युवाओं का ‘स्क्रीन टाइम’ प्रतिदिन लगभग सात-आठ घंटे हो गया है। इसके अलावा, हर युवा सोशल मीडिया का आदी बन चुका है, जिससे भारत मानसिक अवसाद के मामले में अग्रणी हो गया है।

शारीरिक श्रम नहीं करने से भी बच्चों में आ रहा अवसाद

विशेषज्ञों के मुताबिक युवाओं और बच्चों में तेजी से बढ़ते तनाव और अवसाद की एक वजह उनके शारीरिक श्रम में आई कमी है। पिछले दो दशक में युवाओं में मैदान के खेल का चलन कम हुआ है और ‘इनडोर गेम’ की ओर उनका रुझान बढ़ गया है। एकल परिवार, प्रदूषण और बाल असुरक्षा की घटनाओं के बढ़ने से भी बच्चे बाहर खेलने नहीं जाते हैं। इससे उनका शारीरिक श्रम कम हो रहा है, जो उनमें तनाव और मानसिक अवसाद बढ़ा रहा है। चिकित्सक बताते हैं कि अवसाद की समस्या आनुवंशिक भी हो सकती है। अगर किसी बच्चे के पास ऐसा जीन्स है, जो तनाव वाले न्यूरोट्रांसमीटर के स्राव को बढ़ाता है, तो बच्चा मानसिक रोगी हो सकता है। दरअसल, किशोरावस्था के दौरान लड़के-लड़कियों में कई प्रकार के हार्मोन संबंधी बदलाव होते हैं, जो उनकी सोचने की क्षमता और व्यवहार में बदलाव लाते हैं। इसके अलावा, बोर्ड परीक्षाओं और प्रतियोगिता में आगे निकलने और अपने आप को साबित करने की होड़ भी उन्हें चिड़चिड़ा और मनोरोगी बना देती है।

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अवसाद, तनाव, उदासी और चिड़चिड़ेपन के अनेक कारण हो सकते हैं, लेकिन हमें उनके समाधान पर जोर देना चाहिए। विशेषज्ञों की राय में, अगर आपको लगता है कि आपके बच्चे में अवसाद के लक्षण दिख रहे हैं, तो उसे अनदेखा किए बिना, तुरंत स्वास्थ्य विशेषज्ञ की मदद लें। अभिभावकों को बच्चों को शारीरिक श्रम करने को प्रेरित करना चाहिए। सर्वेक्षण से पता चलता है कि आज भी भारत में मानसिक रोग और रोगी को एक अभिशाप के रूप में देखा जाता है और ग्रामीण इलाकों में इसे लेकर काफी कम जागरूकता है। ऐसे में, बच्चों के बेहतर मानसिक स्वास्थ्य के लिए प्राथमिक विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक सरकार को एक मानसिक स्वास्थ्य समिति बनानी चाहिए। देश की आर्थिक और सामाजिक उन्नति के लिए आत्मविश्वास से भरी मानव पूंजी का सृजन करना अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए हंसता-खिलखिलाता बचपन चाहिए।