मनीष कुमार चौधरी

मात्र आबादी बढ़ने से जनसांख्यिकीय लाभांश में वृद्धि हो जाएगी, ऐसा मानना पूरी तरह से ठीक नहीं है। इसके लिए कई अन्य कारक भी जिम्मेदार होते हैं। एक बड़ा कारण यह भी है कि हमारे देश के विभिन्न राज्यों की विकास दरों में जमीन आसमान का फर्क है, क्योंकि विकास को लेकर हर राज्य की प्राथमिकताएं अलग-अलग हैं।

जनसांख्यिकीय लाभांश यानी डेमोग्राफिक डिविडेंड के बारे में बातें तो बहुत की जाती हैं, लेकिन क्या वह वास्तविक है? क्या किसी देश की बढ़ती आबादी से इस लाभांश को प्राप्त किया जा सकता है। ऐसा है तो आबादी के किस वर्ग से इस तरह का लाभ मिलता है। यह सर्वविदित है कि युवा आबादी बड़ा उत्पादक कार्यबल होती है और यह आर्थिक विकास के इंजन के रूप में कार्य करती है। भले तथ्यों पर यह धारणा खरी उतरती हो कि युवा आबादी से ही जनसांख्यिकीय लाभांश का अधिकतम लाभ मिलता है, लेकिन यह सौ फीसद सही नहीं है।

दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं- संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप से लेकर जापान तथा चीन तक की आबादी बूढ़ी होती जा रही है। वैश्विक स्तर पर, अगले तीस वर्षों में पैंसठ और उससे अधिक आयु के लोगों की संख्या, जो 2021 में 76.1 करोड़ थी, बढ़कर 2050 में 1.6 अरब होने की उम्मीद है। नए संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या अनुमानों के अनुसार तब तक यूरोप और उत्तरी अमेरिका में हर चार में से एक व्यक्ति पैंसठ वर्ष या उससे अधिक आयु का होगा। तेजी से बढ़ती उम्र ने वैश्विक अर्थव्यवस्था के भविष्य के बारे में चिंताओं को जन्म दिया है।

कुछ अध्ययनों से पता चला है कि वृद्ध समाज में जनसंख्या के आय स्तर में वृद्धि धीमी हो जाती है। फिर भी इस बात के प्रमाण बढ़ रहे हैं कि अगर उन्नत अर्थव्यवस्थाएं अपने बुजुर्गों के अच्छे स्वास्थ्य को बनाए रखने में सक्षम होती हैं, तो वे न केवल उम्र बढ़ने के आर्थिक नुकसान को कम कर सकती हैं, बल्कि इसे एक लाभ में भी बदल सकती हैं।

बुढ़ापा सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर को धीमा कर सकता है, लेकिन प्रति व्यक्ति आय को उतना प्रभावित नहीं करता। विशेषज्ञों का मानना है कि प्रौद्योगिकी और उच्च जीवन प्रत्याशा के स्तर कामकाजी उम्र की आबादी में उत्पादकता बढ़ा और संभावित रूप से सिकुड़ती श्रमशक्ति से होने वाले नुकसान की भरपाई कर सकते हैं। पुरानी पीढ़ियों की संचित संपत्ति भविष्य के निवेश को आगे बढ़ा सकती है।

कुछ देश दिखा रहे हैं कि यह कैसे किया जा सकता है। चीन में प्रति सौ कर्मचारियों पर सोलह बुजुर्गों का अनुपात 2025 तक दोगुना हो जाएगा। चीन की आबादी साठ वर्षों में पहली बार 2022 में घटी है। अपनी बूढ़ी आबादी के बावजूद विकसित राष्ट्र अब तक एक आर्थिक ‘गोल्डीलाक्स’ क्षेत्र में रहे हैं, यानी न बहुत युवा, न बहुत बूढ़े। क्योंकि उनकी प्रजनन दर में तेजी से गिरावट आ रही है। पूर्वी और दक्षिण पूर्व एशिया, यूरोप, उत्तरी अमेरिका, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के देशों में वर्तमान में कामकाजी उम्र की आबादी का उच्चतम अनुपात है, जिसे संयुक्त राष्ट्र 25 से 64 वर्ष के बीच का बताता है। मगर यह कामकाजी उम्र की आबादी अब स्थिर हो गई या घट रही है।

आमतौर पर किसी समाज की कामकाजी उम्र की आबादी उपभोग से अधिक उत्पादन करती है। कुछ मामलों में जीडीपी पर बढ़ती आबादी का प्रभाव अधिक चरम हो सकता है। चीन एक उदाहरण है। 2020 से 2060 तक चीन की कामकाजी उम्र की आबादी की विकास दर में हर साल एक फीसद की गिरावट का अनुमान है, जबकि 1990 से 2015 तक अन्य वर्षों की तुलना में यह हर साल 1.5 फीसद बढ़ रही थी।

हालांकि जीडीपी विकास दर ही हमेशा इस बात का सबसे अच्छा संकेतक नहीं है कि कोई अर्थव्यवस्था उम्र बढ़ने से कैसे निपट रही है। जनसंख्या की भलाई के लिए सबसे ज्यादा मायने रखता है- आय का स्तर, जिसे प्रति व्यक्ति जीडीपी द्वारा मापा जाता है। एक अध्ययन से पता चला है कि प्रति व्यक्ति आय के स्तर पर उम्रदराज कामकाजी आबादी का प्रभाव नगण्य है। उम्र को उत्पादकता से बहुत ज्यादा जोड़ना नहीं चाहिए। आप सत्तर साल की उम्र में स्वस्थ रह सकते और खूब काम कर सकते हैं।

भारत के संदर्भ में देखें तो बीते दशक में देश की आबादी सोलह करोड़ बढ़ी है। इसकी तुलना में चीन की आबादी इससे आधी यानी आठ करोड़ बढ़ी है। कई विश्लेषकों का मत है कि जनसंख्या वृद्धि से भारत को लाभ हुआ है, क्योंकि बीते दशक में जन्मे लाखों लोग जल्द ही कार्यक्षम आबादी का हिस्सा बन जाएंगे और फिर सेवानिवृत्त होने तक अपने आर्थिक योगदान से देश की अर्थव्यवस्था को लाभ पहुंचाते रहेंगे।

इस तरह देखें तो भारत को चीन की तुलना में दोगुना जनसांख्यिकीय लाभ मिलना चाहिए। मगर ऐसा नहीं है। इसकी दो वजहें हैं। पहला, चीनियों की तुलना में एक औसत भारतीय कम काम करता है। दूसरा, चीन के 68 फीसद की तुलना में भारत का श्रमशक्ति योगदान 45 फीसद है। इससे स्पष्ट है कि मात्र आबादी बढ़ने से जनसांख्यिकीय लाभांश में वृद्धि हो जाएगी, ऐसा मानना पूरी तरह से ठीक नहीं है। इसके लिए कई अन्य कारक भी जिम्मेदार होते हैं। एक बड़ा कारण यह भी है कि हमारे देश के विभिन्न राज्यों की विकास दरों में जमीन आसमान का फर्क है, क्योंकि विकास को लेकर हर राज्य की प्राथमिकताएं अलग-अलग हैं।

शिक्षा का अभाव भी जनसांख्यिकीय लाभांश के मार्ग में एक बड़ा अवरोध है। भारत के असंगठित क्षेत्र में कार्यरत श्रमिकों में 31 फीसद अशिक्षित, 13 फीसद प्राथमिक स्तर पर शिक्षित और महज छह फीसद लोग स्नातक हैं। वैश्विक स्तर पर देखें तो औपचारिक रूप से कुशल श्रमिकों का अनुपात कुल कार्यबल के रूप में चीन में 24 फीसद, संयुक्त राज्य अमेरिका में 52 फीसद, ब्रिटेन में 68 फीसद और जापान में 80 फीसद है।

जबकि भारत में यह मात्र 3 फीसद है। यही कारण है कि भले श्रमशक्ति में प्रतिवर्ष 1.5 करोड़ अतिरिक्त लोग जुड़ जाते हैं, लेकिन प्रतिवर्ष रोजगार मात्र 12 से 15 लाख लोगों को ही मिल पाता है। अगर हमने अपनी कार्यशक्ति सहभागिता दर नहीं बढ़ाई और कामगारों का कौशल नहीं सुधारा तो चाहे जितना जनसांख्यिका लाभांश हो, उससे हमें ज्यादा फायदा नहीं मिलने वाला है। जनसांख्यिकीय लाभांश वह भी हो सकता है जो उम्र बढ़ने वाली आबादी के साथ आता है। गौरतलब है कि वृद्ध समाज श्रम-बचत प्रौद्योगिकियों को अधिक तेजी से अपनाते हैं, अधिक पूंजी-गहन बनाते हैं, जिससे अन्य देशों की तुलना में प्रति व्यक्ति आय अधिक होती है।

अर्थशास्त्री बताते हैं कि उम्र बढ़ने पर ध्यान केंद्रित करने में देश अक्सर अपनी कार्य-आयु वाली आबादी का बेहतर उपयोग करने में विफल हो रहे हैं। संभव है कि हमारे पास बढ़ती उम्र की आबादी हो, लेकिन वर्तमान में हमारे पास बहुत सारे बेरोजगार युवा भी हैं। दुनिया की सबसे पुरानी आबादी वाला जापान वृद्ध लोगों की स्वास्थ्य आवश्यकताओं पर ध्यान केंद्रित करने वाली नीतियों को विकसित करने में अग्रणी है, जबकि वृद्ध लोगों को काम करने की अनुमति देकर श्रम बाजारों को अधिक लचीला बना रहा है।

जापान ने अपनी सेवानिवृत्ति की आयु को 60 से बढ़ाकर 65 वर्ष कर दिया है और 2021 के कानून के माध्यम से नियोक्ताओं को 70 वर्ष की आयु तक अपने कार्यबल को प्रयास करने और बनाए रखने की आवश्यकता पर जोर दिया है। इसके अलावा एशिया में सिंगापुर ने 2022 से कंपनियों के लिए कर्मचारियों को पुनर्रोजगार की पेशकश करना अनिवार्य कर दिया है। इस दशक के अंत तक सिंगापुर सेवानिवृत्ति और पुनर्रोजगार की आयु क्रमश: 65 और 70 तक बढ़ाने की योजना बना रहा है। विरोधाभास यह भी है कि सरकारों द्वारा उठाए गए ऐसे कदमों के पीछे राजनीतिक लाभ छिपे हैं।