कानून के मुताबिक अधिनायकवाद सरकार का प्रतिसिद्धांत है। अधिनायकवाद के तहत, कानून के शासन में ह्रास होता, बहुलता को नकारा जाता, सत्ता का केंद्रीकरण किया और बहुमत की इच्छाओं पर कभी-कभी, एक व्यक्ति की इच्छा को थोपा जाता है। अधिनायकवाद आमतौर पर रबड़ की मुहर जैसी संसद संबद्ध होता है, जहां संसद की सभी या लगभग सभी सीटें सत्तारूढ़ व्यवस्था के पास होती हैं। ऐसी संसदें भी कानून पारित करती हैं!
दुर्भाग्य से, लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई संसदों ने अधिनायकवादी संसदों की नकल करना शुरू कर दिया है। और वे ऐसे कानून पारित करती हैं, जो वैधता की कसौटी पर खरे उतर भी सकते हैं और नहीं भी। मेरे विचार से ऐसे कानून निश्चित रूप से वैधता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। वैधता की कमी वाले कानून का एक ताजा उदाहरण इजराइल की संसद (नेसेट) द्वारा पारित वह विधेयक है, जो संसद द्वारा बनाए गए कानूनों की वैधता की समीक्षा करने के लिए अदालतों की शक्ति को प्रतिबंधित करता है।
संवैधानिक क्या है
इस मामले में भारत भी पीछे नहीं है। चूंकि अंगुलियां आपातकाल (25 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977) के दौरान पारित संविधान संशोधनों और कानून की ओर उठेंगी, इसलिए मैं सीधे तौर पर स्वीकार करता हूं कि उस दौरान किए गए कई संशोधन और पारित कानून वैधता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। उस घिसी-पिटी दलील से परे, आइए हाल के कानूनों के उदाहरण देखें, जो भारत की संसद द्वारा पारित किए गए।
‘संवैधानिकता’ के बारे में सरकार का दृष्टिकोण संकीर्ण है- कि कानून को संविधान के किसी भी स्पष्ट प्रावधान का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। मगर जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने बताया है कि कुछ अंतर्निहित सीमाएं हैं, जिन्हें पार नहीं किया जाना चाहिए: उदाहरण के लिए, संवैधानिक नैतिकता और आनुपातिकता।
सुहृत पार्थसारथी द्वारा एक और सीमा की ओर इशारा किया गया, जिन्होंने कहा था कि ‘‘भारतीय संविधान नैतिक मूल्यों से भरा हुआ है’’ और सीमा को संघ और राज्य के बीच संबंधों में ‘‘विभिन्न सूक्ष्मताओं से जुड़ी पवित्रता’’ के तौर पर परिभाषित किया गया है (द हिंदू, 1 अगस्त, 2023)। वर्तमान मानसून सत्र में, कम से कम तीन विधेयक ऐसे हैं, जो संवैधानिक सीमाओं को पार कर गए हैं।
वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक
2001 से 2021 के बीच, कुल वन क्षेत्र 675,538 वर्ग किमी से बढ़ कर 713,789 वर्ग किमी तक हो गया, जिसमें अधिकतर 10 से 40 फीसद वृक्ष आच्छादित घनत्व वाली भूमि है। (चालीस फीसद से अधिक आच्छादित घनत्व वाले वन क्षेत्र में गिरावट केवल 37,251 वर्ग किमी हुई थी।) मगर संशोधन विधेयक में प्रतिगामी प्रावधानों को पेश करके चालीस वर्षों के इस लाभ को उलट दिया गया है।
25 अक्तूबर, 1980 से पहले वन के रूप में दर्ज, लेकिन अधिसूचित नहीं की गई भूमि और 12 दिसंबर, 1996 से पहले गैर-वनीय उपयोग के लिए हस्तांतरित भूमि को बाहर रखा जाएगा। गैर-अधिसूचित प्राकृतिक वन (‘मानित वन’) को बाहर रखा जाएगा। ये निष्कासन टीएन गोदावर्मन मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले, वन अधिकार अधिनियम, 2006 और नियमगिरि पर्वत मामले में फैसले के विपरीत हैं।
अंतरराष्ट्रीय सीमाओं से सौ किमी के भीतर स्थित भूमि को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए रैखिक परियोजनाओं से बाहर रखा जाएगा। लगभग पूरा पूर्वोत्तर राज्य और हिमालयी क्षेत्र, जिनमें सबसे अधिक वन क्षेत्र है, और जैव विविधता के क्षेत्र (हाटस्पाट) हैं, उक्त सौ किलोमीटर के भीतर आते हैं। रणनीतिक और सुरक्षा संबंधी बुनियादी ढांचे के लिए भूमि को बाहर रखा जाएगा। गैर-वन उद्देश्यों की सूची में कटौती की गई है; चिड़ियाघर, सफारी, इको-पर्यटन अब गैर-वनीय उद्देश्य नहीं होंग; और केंद्र सरकार द्वारा निर्दिष्ट नियमों और शर्तों के तहत किसी भी भूमि को गैर-वानिकी उद्देश्य से बाहर रखा जा सकता है।
जिस तरह से वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 को बड़े पैमाने पर कमजोर करने के लिए संशोधन किए गए, उससे अधिनायकवाद का पता चलता है। विधेयक को संबंधित स्थायी समिति को नहीं, बल्कि संसद की संयुक्त समिति (जेसीपी) को भेजा गया था। जेसीेपी ने बहुमत से कोई बदलाव न करने की सिफारिश की। छह विपक्षी सांसदों ने जोरदार असहमति दर्ज की थी। मगर बिना किसी परामर्श के, और वनवासियों, विशेषज्ञों, पर्यावरणविदों तथा नागरिक समाज संगठनों की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए, विधेयक को बिना किसी सार्थक बहस के आगे बढ़ा दिया गया।
बहु-राज्य सहकारी समिति (संशोधन) विधेयक
बहु-राज्य सहकारी समितियों के चुनाव केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त चुनाव प्राधिकरण कराएगा। ऐसी समितियों में सरकार की हिस्सेदारी को बिना पूर्व अनुमोदन के हटाया नहीं जा सकता, ताकि सरकार की स्थायी उपस्थिति और नियंत्रण सुनिश्चित हो सके। सदस्यों की शिकायतों का निर्णय केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त लोकपाल करेगा।
बहु-राज्य सहकारी समितियों के बोर्ड, जिनमें सरकार की हिस्सेदारी है या जिन्हें सरकार ने ऋण दिया है, को भंग किया जा सकता है। यह विधेयक बिना किसी सार्थक बहस के व्यवधान के बीच पारित हो गया। हमने सहयोग के पवित्र सिद्धांतों, यानी लोकतंत्र, स्वायत्तता, स्वयं सहायता और किसी भी सरकारी नियंत्रण की अनुपस्थिति को अलविदा कह दिया है।
राष्ट्रीय राजधानी (संशोधन) विधेयक
अनुच्छेद 239 एए दिल्ली के संबंध में विशेष प्रावधान करता है। उप-अनुच्छेद (4) में ऐतिहासिक शब्द प्रयुक्त हैं- ‘‘… उपराज्यपाल की सहायता और सलाह के लिए मुख्यमंत्री प्रमुख हैं…’’। इसमें कोई संदेह नहीं कि संविधान में दिल्ली के लिए एक प्रतिनिधि और संसदीय सरकार की परिकल्पना की गई है। वर्तमान सरकार ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली अधिनियम यानी जीएनसीटीडी को नगर पालिका या उससे कम के दर्जे में बदलने की हर संभव कोशिश की थी। मगर वह दो बार विफल हुई।
अब सरकार एक विधेयक लेकर आई है, जो मंत्रियों से ‘सेवाओं’ (यानी सरकारी अधिकारियों) का नियंत्रण छीन कर उन्हें उपराज्यपाल के अधीन कर देगा। मंत्री उपराज्यपाल और उनके अधिकारियों की दया पर मोहरा बनकर रह जाएंगे। अब सुप्रीम कोर्ट तय करेगा कि अध्यादेश/ विधेयक कानूनी है या नहीं, लेकिन मैं स्पष्ट कर दूंं कि यह वैध नहीं है। यह विधेयक केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त एलजी को वायसराय बनाता है। इस पद को अंग्रेजों के भारत छोड़ते वक्त समाप्त कर दिया गया था।
विधायी ज्यादतियां
ये तीन विधेयक सरकार के केंद्रीकृत और सत्तावादी माडल लागू करने के लिए संसदीय कानून का उपयोग करने के उदाहरण हैं। ये ऐसी ज्यादतियां हैं, जिन्हें भविष्य में अवश्य ही समाप्त किया जाना चाहिए।