मुस्लिम समाज में एक बार में तीन तलाक की प्रथा के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ने वाले संगठन ‘भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन’ (बीएमएमए) ने उच्चतम न्यायालय के आज के फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि अब सरकार और राजनीतिक दलों को मिलकर हिंदू विवाह अधिनियम की तर्ज पर ‘मुस्लिम परिवार कानून’ बनाना चाहिए। उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा कि मुस्लिमों में एक बार में तीन तलाक की प्रथा अमान्य, अवैध और असंवैधानिक है। शीर्ष अदालत ने 3:2 के मत से सुनाए गए फैसले में तीन तलाक को कुरान के मूल तत्व के खिलाफ बताया। बीएमएमए की संस्थापक नूरजहां सफिया नियाज ने ‘पीटीआई’ से कहा, ‘‘हम उच्चतम न्यायालय के फैसले का स्वागत करते हैं। यह उन सभी महिलाओं की जीत है जो इस लड़ाई में हमारे साथ थीं। यह एक लंबी लड़ाई थी और अब उम्मीद है कि एक अच्छे कानून के साथ इस लड़ाई का अंत होगा।’’

उन्होंने कहा, ‘‘हम चाहते हैं कि सभी राजनीतिक दल और सरकार मिलकर एक ऐसा मुस्लिम परिवार कानून बनाएं जिसमें मुस्लिम महिलाओं की चिंताओं का ध्यान रखा जाए। बेहतर होगा कि यह हिंदू विवाह अधिनियम की तर्ज पर हो।’’ गौरतलब है कि बीएमएमए ने कुछ महीने पहले ‘मुस्लिम परिवार कानून’ का एक मसौदा पेश किया था और इसे सरकार के पास भी भेजा था।

शीर्ष अदालत के पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने अपने 395 पन्नों के आदेश में कहा, ‘‘3:2 के बहुमत के जरिए दर्ज किए गए विभिन्न मतों को देखते हुए ‘तलाक-ए- बिद्दत’ तीन तलाक को दरकिनार किया जाता है।’’ प्रधान न्यायाधीश जे एस खेहर और जस्टिस एस अब्दुल नजीर जहां तीन तलाक की प्रथा पर छह माह के लिए रोक लगाकर सरकार को इस संबंध में नया कानून लेकर आने के लिए कहने के पक्ष में थे, वहीं जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस आर एफ नरीमन और जस्टिस यू यू ललित ने इस प्रथा को संविधान का उल्लंघन करार दिया। बहुमत वाले इस फैसले में कहा गया कि तीन तलाक समेत हर वो प्रथा अस्वीकार्य है, जो कुरान के मूल तत्व के खिलाफ है। तीन न्यायाधीशों ने यह भी कहा कि तीन तलाक के जरिए तलाक देने की प्रथा स्पष्ट तौर पर स्वेच्छाचारी है। यह संविधान का उल्लंघन है और इसे हटाया जाना चाहिए।

प्रधान न्यायाधीश खेहर और जस्टिस नजीर के अल्पमत वाले फैसले में तीन तलाक की प्रथा पर छह माह की रोक की बात की गई। इसके साथ ही राजनीतिक दलों से कहा गया कि वे अपने मतभेदों को दरकिनार करके एक कानून लाने में केंद्र की मदद करें। अल्पमत के फैसले के न्यायाधीशों ने कहा कि यदि केंद्र छह माह के भीतर कानून लेकर नहीं आता तो तीन तलाक पर उसका आदेश जारी रहेगा। प्रधान न्यायाधीश और जस्टिस नजीर ने अपने अल्पमत वाले फैसले में यह उम्मीद जताई कि केंद्र का कानून मुस्लिम संगठनों और शरिया कानून से जुड़ी चिंताओं को ध्यान में रखेगा। पीठ में मौजूद जज अलग-अलग धर्मों के थे। इनमें सिख, ईसाई, पारसी, हिंदू और मुस्लिम धर्म के जज थे। पीठ ने कुल सात याचिकाओं पर सुनवाई की, जिनमें मुस्लिम महिलाओं द्वारा समुदाय में व्याप्त ‘तीन तलाक’की प्रथा को चुनौती देने वाली पांच अलग याचिकाएं भी शामिल थीं।

सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने कहा था कि मुस्लिमों में शादी को तोड़ने के लिए ‘तीन तलाक’ की प्रथा सबसे बुरी है और यह वांछित तरीका नहीं है। हालांकि कुछ ऐसे पक्ष भी हैं, जो इसे वैध बताते हैं। इससे पहले केंद्र ने पीठ को बताया था कि यदि ‘तीन तलाक’को शीर्ष न्यायालय द्वारा अमान्य और असंवैधानिक ठहराया जाता है तो वह मुस्लिमों में शादी और तलाक का नियमन करने के लिए एक कानून लेकर आएगा। सरकार ने मुस्लिम समुदाय में तलाक की तीनों किस्मों- तलाक-ए-बिद्दत, तलाक हसन और तलाक अहसन को ‘एकपक्षीय’ और ‘न्यायेतर’ बताया था।

सरकार ने कहा था कि हर पर्सनल लॉ को संविधान के अनुरूप होना चाहिए और विवाह, तलाक, संपत्ति और उत्तराधिकार के अधिकारों को एक ही श्रेणी में रखना चाहिए और ये संविधान के अनुरूप होने चाहिए। केंद्र ने कहा था कि ‘तीन तलाक’ न तो इस्लाम का मौलिक हिस्सा है और न ही यह ‘बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक’ का मुद्दा है। यह मुस्लिम पुरूषों और वंचित महिलाओं के बीच ‘‘अंतरसमुदायिक संघर्ष’’ है।

पीठ ने खुद मुख्य मुद्दा उठाया। उस याचिका पर लिखा था, ‘‘मुस्लिम महिलाओं की समानता की तलाश।’’ शीर्ष अदालत ने इस सवाल का स्वत: संज्ञान लिया कि क्या तलाक की स्थिति में या अपने पतियों की अन्य शादियों के चलते मुस्लिम महिलाओं को लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है?