दिल्ली चुनाव में बीजेपी ने ऐतिहासिक प्रदर्शन करते हुए सरकार बना ली है, दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी लगातार जीतने के बाद सत्ता से बुरी तरह बेदखल हो गई। अब बीजेपी का कॉन्फिडेंस इतना तगड़ा चल रहा है कि उसने दिल्ली के बाद पश्चिम बंगाल फतह करने का दम भर दिया है। यह नहीं भूलना चाहिए कि बीजेपी के लिए बंगाल एक सपना है, ऐसा सपना जो वो पिछले कई सालों से साकार करने की कोशिश कर रही है। जब से केंद्र में मोदी की सरकार बनी है, बंगाल फतह करना बीजेपी की प्राथमिकता में रहा है। लेकिन बीजेपी के लिए यह राह काफी मुश्किल चल रही है।
यहां समझने वाली बात यह है कि ममता बनर्जी कोई अरविंद केजरीवाल नहीं हैं। ममता का अनुभव, ममता की कार्यशैली ना सिर्फ उन्हें आप संयोजक से अलग बनाती हैं, बल्कि कहना चाहिए उन्हें वैसी तमाम गलतियां करने से भी रोकती हैं जिस वजह से आम आदमी पार्टी ने दिल्ली जैसे राज्य में अपनी सरकार गंवा दी।
केजरीवाल और ममता क्यों एक समान?
सबसे पहले तो यह समझना जरूरी है कि अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी की स्टाइल ऑफ पॉलिटिक्स काफी समान है। दोनों का सीएम सफर भी लगभग एक साथ ही शुरू हुआ है। अगर ममता को 2011 में बंगाल में सरकार बनाने का मौका मिला तो वही अरविंद केजरीवाल ने भी 2013 में ही दिल्ली की सत्ता संभाली। ममता जमीन से जुड़ी नेता रहीं, आंदोलनकारी उनकी छवि दिखी, इसी तरह अरविंद केजरीवाल ने भी अन्ना हजारे के साथ आंदोलन कर अपनी छवि को बनाया, फिर आम आदमी वाली छवि बनाकर दिल्ली का दिल जीता।
मुफ्त की रेवड़ियों में ममता भी आगे, केजरीवाल भी
अब दिल जीता तो केजरीवाल को दिल्ली में सेवा करने का मौका कई सालों के लिए मिला, 2013 में जीते, 2015 में प्रचंड जीत हासिल की और फिर 2020 में भी वापसी कर ली। इसी तरह ममता बनर्जी ने भी 2011 में सरकार बनाई, फिर 2016 में अपने बहुमत को और मजबूत किया, फिर 2021 में बीजेपी की चुनौती को भी पूरी ताकत के साथ नेस्तनाबूत कर दिया। दोनों नेताओं के लिए स्थिति भी समान ही दिखी, अगर बंगाल में कांग्रेस-लेफ्ट से मुकाबला था, तो वहीं दिल्ली में कांग्रेस-बीजेपी से चुनौती थी। इसके ऊपर फ्री की रेवड़ियां बांटने में अगर केजरीवाल आगे थे तो ममता बनर्जी ने भी बंगाल में कई ऐसी योजनाएं शुरू कीं।
इतनी समानता, फिर भी केजरीवाल फेल, ममता कैसे पास?
लक्ष्मी भंडार योजना से महिलाओं को हर माह 1000 देने की उनकी कवायद टीएमसी के लिए गेमचेंजर साबित हुई है। छात्राओं को साइकिल देकर भी उन्होंने गरीबों का दिल जीतने की कोशिश की है। इसी तरह केजरीवाल ने भी फ्रीबीज के नाम पर ही अपना दिल्ली मॉडल तैयार किया, मुफ्त बिजली, पानी और महिलाओं बस में सफर के जरिए लोकप्रियता के शिखर को छुआ। अब सवाल तो यही उठता है कि जब अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी ने समान रणनीति पर काम किया, जब दोनों ही समान योजनाओं को जमीन पर लागू किया, फिर ममता कैसे जीत गईं और केजरीवाल कैसे हार गए।
ममता के पास विचारधारा, केजरीवाल कांग्रेस वोटबैंक के सहारे
इस सवाल का जवाब कई समीकरणों में छिपा है। सबसे पहले तो यह समझना जरूरी है कि ममता बनर्जी की टीएमसी एक विचारधारा के साथ आई थी। यह नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस तोड़कर टीएमसी का गठन हुआ, ऐसे में आसानी से कहा जा सकता था कि कांग्रेस का वोटबैंक ही टीएमसी का भी जनाधार बना। दिल्ली में तो केजरीवाल की आम आदमी पार्टी पूरी तरह कांग्रेस के वोटबैंक पर ही निर्भर रही, 2013 में जब कांग्रेस का सफाया हुआ, सारा वोट आप की तरफ शिफ्ट कर गया। ऐसे में कांग्रेस की राजनीति को ही केजरीवाल ने आगे बढ़ाया। लेकिन ममता बनर्जी ने ऐसी गलती पश्चिम बंगाल में नहीं की। उन्हें अहसास था कि पार्टी की एक अपनी विचारधारा होना बहुत जरूरी है।
इसी वजह से उन्होंने 2011 में ही मां, माटी और मानुष की विचारधारा को टीएमसी के साथ जोड़ा गया और ममता को एक प्रचंड जनादेश हासिल हुआ। ममता बनर्जी की विचारधारा एक बात यह भी खास रही कि उन्होंने कभी भी किसी भी कीमत पर अपनी विचारधारा के साथ कोई समझौता नहीं किया। उन्हें बीजेपी ने कितनी बार सिर्फ इसलिए कोसा कि वे सिर्फ मुसलमानों के लिए काम करती हैं, उनकी तुष्टीकरण वाली राजनीति है। लेकिन ममता को उनके इरादों से कोई नहीं हटा सका। नतीजा यह रहा कि हिंदू वोट तो ममता को मिला ही, मुस्लिमों का पूरा वोट भी उनकी पार्टी ले गई। लेकिन अरविंद केजरीवाल ने यही पर सबसे बड़ी चूक की।
ममता निडर-बेखौफ, केजरीवाल करने लगे सॉफ्ट हिंदुत्व
उन पर भी बीजेपी ने मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोप लगाए, दिल्ली दंगों के दौरान तो यहां तक कहा गया कि उन्होंने एक विशेष समुदाय के खिलाफ चुप्पी साध ली। अब केजरीवाल अपनी सच्चाई जानते थे, वे आसानी से इन बातों को नजरअंदाज कर सकते थे। लेकिन उन्होंने सॉफ्ट हिंदुत्व का रास्ता चुना और खुद को बजरंगबली का भक्त बता दिया। अब 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में तो यह रणनीति काम कर गई, लेकिन जानकारों ने सचेत कर दिया, लंबे समय में यही रणनीति उन्हें भारी भी पड़ सकती है। अब इस बार के दिल्ली चुनाव में सोशल मीडिया पर कई ऐसे पोस्ट सामने आए हैं जहां लोगों ने यह कहकर बीजेपी को वोट किया है कि अरविंद केजरीवाल ‘शाहीन बाग’ वालों को बचाते हैं, अरविंद केजरीवाल निर्भया के दोषियों को सिलाई मशीन देते हैं। इस तबके का यह कहकर वोट देना ही बता रहा है कि केजरीवाल की राजनीति को सॉफ्ट हिंदुत्व सूट नहीं किया।
बंगाल में नहीं बंटा मुस्लिम, केजरीवाल नहीं जीत पाए भरोसा
वैसे अरविंद केजरीवाल मात खाने का एक बड़ा कारण यह भी रहा कि मुस्लिमों का वोट बंट गया। 2015 और 2020 में तो अरविंद केजरीवाल ने ऐसा करने से रोक दिया था, लेकिन 2025 में वे ऐसा नहीं कर पाए। इस बार मुस्लिमों का वोट कांग्रेस के साथ बंट गया, ओखला और मुस्तफबादा जैसी सीटों पर ओवैसी की पार्टी ने भी कैची चला दी। ऐसे में मुस्तफाबाद सीट तो आम आदमी पार्टी हार गई और कई दूसरी सीटों पर उसका जीत का अंतर कम हो गया। लेकिन पश्चिम बंगाल में ऐसा नहीं हो सका, ममता बनर्जी ने मुस्लिम वोट को बंटने ही नहीं दिया, वहां पर मुसलमानों ने भी सिर्फ टीएमसी में ही भरोसा जताया। कारण वही था- ममता बनर्जी बीजेपी के नेरेटिव से डरी नहीं, उन्होंने अपनी राजनीति करना बंद नहीं कर दिया। ऐसे में वे तो पास हो गईं और बीजेपी के सामने केजरीवाल फेल।
ममता आज भी आम आदमी, केजरीवाल के साथ शीशमहल
अरविंद केजरीवाल इस मामले में भी फेल ही रहे कि वे ममता की तरफ अपनी सादगी को बरकरार नहीं रख पाए। इस मामले में तो पीएम मोदी भी सफल रहे, लेकिन अरविंद केजरीवाल पूरी तरह फेल। ऐसा इसलिए क्योंकि राजनीति में आने से पहले ही केजरीवाल ने दावे बड़े कर दिए, कभी सुरक्षा ना लेने से लेकर बंगले में नहीं रहने तक की कसमें खाई गई थीं। सोशल मीडिया उन वीडियो से पटा हुआ है जहां पर उन्होंने अपने बच्चों की कसम तक खाई थी। लेकिन वही अरविंद केजरीवाल शीशमहल विवाद में फंसी, वही अरविंद केजरीवाल कथित शराब घोटाले में जेल चले गए। अब अदालती सच्चाई तो बाद में पता चलेगी, लेकिन जनता की अदालत में केजरीवाल को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा, उनकी कट्टर ईमानदारी वाली राजनीति धूमिल हो गई।
लेकिन बात जब ममता बनर्जी की आती है, इतने सालों की राजनीति करने के बाद भी उन पर कैसे भी आरोप लग सकते हैं, लेकिन उनकी सादगी में कोई कमी नहीं आई है। सूती साड़ी और हवाई चप्पल अभी भी उनका ट्रेडमार्क स्टाइल बना हुआ है। लेकिन अरविंद केजरीवाल समय के साथ वो सादगी भी गंवा दी और उनकी राजनीति भी बीजेपी और कांग्रेस जैसी ही दिखाई देने लगी। इसी वजह से ममता आज भी बीजेपी के खिलाफ एक मजबूत विकल्प की तरह खड़ी हैं, लेकिन अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी धूल चाट रही है।
बीजेपी के लिए बंगाल क्यों इतना मुश्किल?
वैसे बंगाल में ममता के जीतने के और बीजेपी के हारने के कारण समझना भी जरूरी है। असल में बंगाल में टीएमसी और बीजेपी दोनों का कैडर काफी मजबूत है, छोटे-छोटे पॉकेट तक फैला हुआ है। लेकिन दिल्ली में आम आदमी पार्टी का संगठन उतना मजबूत नहीं, वो सिर्फ एक चेहरे के इर्द-गिर्द रहता है। बंगाल में तो यह भी देखने को मिला है कि ग्रामीण वोटर पूरी तरह ममता बनर्जी के साथ चलता है, वहां पर उसकी आबादी भी काफी ज्यादा है। इसी वजह से बीजेपी पिछड़ जाती है। बंगाल की डेमोग्राफी बताती है कि बीजेपी अभी भी नार्थ परगना, साउथ परगना, कोलकाता, हावड़ा और हुगली जैसे ग्रामीण क्षेत्रों में कमजोर चल रही है, वहां उसका सगंठन वो करिश्मा नहीं कर पाता जो शहरी इलाकों में करता है।
वही केजरीवाल इसलिए मात खा गए क्योंकि दिल्ली की ज्यादा संख्या शहरी है और शहरी वोटर इस बार बीजेपी के साथ चला गया है। केजरीवाल की फ्रीबीज का फायदा ग्रामीण इलाकों में, पिछड़े समाज में ज्यादा रहा, लेकिन मिडिल क्लास बीजेपी के साथ चला गया। ऐसे में बात चाहे डेमोग्राफी की हो, बात चाहे राजनीति की हो, बात चाहे रणनीति की, ममता, अरविंद केजरीवाल की तुलना में ज्यादा मजबूत साबित हुईं और इसी वजह उनका करिश्चा बंगाल में जारी है और दिल्ली में केजरीवाल का सूरज अभी के लिए अस्त हो चुका है। वैसे अब दिल्ली में आप अस्त हुई है, लेकिन उसका आगे का भविष्य क्या रहने वाला है, अगर जानना चाहते हैं तो यहां क्लिक करें