नई दिल्ली स्थित तीस हजारी की इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी (कमर्शियल कोर्ट) अदालत ने अनामिका प्रकाशन, प्रयागराज से प्रकाशित महेंद्र मिश्र की पुस्तक ‘भारतीय सिनेमा’ के प्रकाशन और बाजार में बिक्री के लिए उपलब्ध कराने पर रोक लगा दी है। जुलाई 2017 में वाणी प्रकाशन समूह के साथ हुए करार के अनुसार यह पुस्तक उन्हीं के प्रकाशन से प्रकाशित व वितरित होनी थी। इसके लिए 750 पन्नों की पांडुलिपि की छपाई से पूर्व की तैयारियां और विभिन्न चरणों जैसे-प्रूफ रीडिंग, डिजाइनिंग आदि पर काम चलता रहा। तभी वाणी प्रकाशन को पता चला कि यह किताब कहीं और से आ रही है।

वाणी प्रकाशन समूह के निदेशक अरुण माहेश्वरी के मुताबिक अगस्त 2018 को वाणी प्रकाशन ग्रुप और महेंद्र मिश्र के मध्य एक लिखित करार के अनुसार उन्होंने इस पुस्तक के अधिकार (छपाई, वितरण और अनुवाद) वाणी प्रकाशन ग्रुप को दिए थे। वाणी प्रकाशन ने फरवरी 2020 तक इस पुस्तक के संपादन, प्रूफ रीडिंग और डिजाइनिंग पर अपना समय, तकनीकी ज्ञान, पुस्तक की मूल अवधारणा पर काफी खर्च कर इसका पीडीएफ व मुख्य पृष्ठ पूरी तरह तैयार कर लिया। लेकिन अगले ही माह मार्च 2020 में कोविड-19 के कारण संपूर्ण विश्व में तालाबंदी हो गई और सारी कार्यप्रणाली ठप हो गई। जून 2020 तक इस पुस्तक को पुस्तकाकार रूप में लाने की प्रक्रिया में वाणी प्रकाशन सक्रिय हो गया। लेकिन तभी इस पुस्तक को अनामिका प्रकाशन, प्रयागराज से प्रकाशित करा लिया गया।

अवैध रूप से पुस्तक के प्रकाशन के खिलाफ वाणी प्रकाशन अदालत पहुंचा। तीस हजारी की एक अदालत ने वाणी प्रकाशन ग्रुप के हक में फैसला देकर इस पुस्तक की बिक्री पर रोक लगाते हुए तय किया कि इस पुस्तक की बिक्री किसी आनलाइन या आफलाइन, किंडल आदि इलेक्ट्रॉनिक या किसी भी माध्यम द्वारा नहीं की जा सकती। कोर्ट का यह आदेश इस महीने पांच दिसंबर से लागू हो गया है।

वाणी प्रकाशन समूह के निदेशक अरुण माहेश्वरी ने कहा, ‘जहां भी अराजकता होती है वहां न्याय की शरण में जाना ही होता है। इस किताब के लिए हमने नख-शिख तक परिश्रम किया था। हमने लेखक को समझा कर बहुत सी चीजें जुड़वाई भी। हमारा एक सपना था कि हम भारतीय सिनेमा को लेकर एक बड़ी किताब निकालें, जिसे लेकर हमने लेखक से लगभग दो वर्ष तक विचार-विमर्श किया और उनकी पांडुलिपि को संशोधित करवाते रहे। उन्होंने भी बहुत धैर्य से काम किया। लेकिन मुझे लगता है कि किसी ने उन्हें इसे लेकर बुरी तरह भड़का दिया तभी उन्होंने ऐसा किया। इस तरह से किताब का कहीं और से आना मेरे लिए गहरा आघात था। फिर जब मैंने उस प्रकाशक से बातचीत की तो उन्होंने भी खराब व्यवहार किया हमारे साथ। तब मुझे मजबूरन यह कदम उठाना पड़ा। हालांकि, मैं इस कदम से दुखी हूं लेकिन ऐसा करना मेरी मजबूरी थी।’

अरुण माहेश्वरी ने कहा, ‘किसी भी तरह का अनुबंध दो पक्ष करते हैं। अनुबंध को खत्म करना होता है तब भी दोनों आपस में मिल कर करते हैं। इसमें लेखक ने मनमानी की। हालांकि, लेखक का तर्क है कि मैंने पहले ही कह दिया था। कह देने से नहीं होता है। यदि उन्होंने कहा भी तो सिर्फ कह देने से बात नहीं मान ली जा सकती है। उसके लिए तर्क भी देने चाहिए थे। जैसे हमने तर्क दिए हैं कि ये किताब जो हमने तैयार की थी हूबहू उन्होंने छाप दी है और अशुद्धियों के साथ ही छाप दी है। उनका कहना था कि हमने फिर तैयार की है। लेकिन यह तैयार नहीं की गई। हमारी ही किताब को उन्होंने मूल रूप से ले लिया है। हमारे तीन साल के मानसिक, शारीरिक और आर्थिक परिश्रम का हनन किया। भरपूर प्रेम के साथ होते हुए अपराध तो हुआ’।

इस खबर के संबंध में जब अनामिका प्रकाशन, प्रयागराज के निदेशक विनोद कुमार शुक्ल से बात की गई तो उन्होंने कहा कि अब मैं इस पर क्या प्रतिक्रिया दूं, लेखक ही बेहतर बता पाएंगे। लेखक महेंद्र मिश्र ने इस पर किसी भी तरह की प्रतिक्रिया देने से इनकार कर दिया।