सुरेश सेठ
ऐसा नहीं कि इस जागते देश में पहले विषाणु नहीं थे लेकिन ये विषाणु नजर आते थे। नौकरशाही की फाइलों के नीचे लगे चांदी के पहियों के रूप में नज़र आते थे कि जो नागरिकों के दिए गए समयबद्ध सेवा के अधिकार को बातूनी बना देते। इस सेवा के सूचना पट्ट नजर आते, नीचे वही ठनठन गोपाल। अधूरी योजनाएं, गुम कर दी गई फाइलें और कर्मचारियों से लेकर अफसरशाही तक का सेवा चाहने वालों के बारे में स्मृतिभ्रम। अपनी जिंदगी बस इसी तारीख पर तारीख में इन दफ्तरों की दहलीजों पर अपने जूतों के तलवे घिसाने में गुजर गई। परंतु इन्हें विषाणु कैसे कह दें। शक्लोसूरत से तो ये हम जैसे बेचारे लोग ही लगते हैं।
पिछले दिनों अपने देश पर वित्तीय आपातकाल की गाज गिर गई। कहां सपना था, अमेरिका और चीन जैसे ताकतवरोंं को पछाड़ कर सर्व शक्तिमान बन जाने का और कहां देश में ऐसी मंदी, ऐसी बेरोजगारी और ऐसी महंगाई आ गई कि जैसी पिछले कई वर्षों से न देखी थी। खेतिहर देश भारत में खेती-बारी सदा पूरी आबादी का दो तिहाई काम रही है। कृषि इस देश में जीने का ढंग थी। लेकिन जब इस देश ने शक्तिमानों के सामने सलाम के सिवाय जीने का कोई और ढंग ही नहीं सीखा, सदियों गोरे अंग्रेजों को कोर्निश बजाते रहे। अब नए मालिक भा गए तो उनकी जी हज़ूरी में सलाम बजाने लगे। फर्क यही आया है कि पहले उन्हें माबदौलत कह कर झुकते थे, अब जन-प्रतिनिधि कह कर ‘माई-बाप’ बता बलैया लेने लगे।
खैर, हमने तो हर हालत में समझौता कर लिया, साहिब! मान लिया कि यहां सपने देखना गुनाह नहीं। उन्हें साकार करने की इच्छा रखना गुनाह है। देश क्रांति, भ्रष्टाचार उन्मूलन से लेकर जनक्रांति तक हम चाहे जितनी क्रांतियों के सिक्के हवा में उछाल दें, लेकिन यहां चित्त भी मेरी पट्ट भी मेरी इन ऊंची अटारियों वालों की रहेगी। भ्रष्टाचार, गरीबी, भुखमरी, पिछड़ेपन और अज्ञानता के सूचकांक हमारे और भी फटीचर हो जाने की गवाही देते रहेंगे। हमारे मीरे कारवां इन झूठी गवाहियों के बल पर देश की अभूतपूर्व तरक्की को उपलब्धि बताते रहे। हम इन विजय यात्राओं के इस कारवां के गुजर जाने के बाद अपने अतीत के गौरव को शिरोधार्य कर रहे थे कि जिंदगी के मौजूद विषाणुओं की इस कतार में रोग के वायरस के उन अदृश्य विषाणुओं की विश्वव्यापी जमात ने प्रवेश कर लिया।
पता लगा, भाई बड़ा भयावह विषाणु है। खांसी, जुकाम से शुरू होता है और देखते ही देखते आपकी सांस की नली को भींच फेफड़ों को ऐसे नाकारा बना देता है कि आदमी की डर से जान बीच में अटक जाती है। पहले लोगों को अपने अपराधों की शर्मिंदगीसे चेहरा ढकते देखा था। अब तो हर आदमी को चेहरा छिपाने का हुक्म हो गया। किसी को अपना यह बीमार हो सकने वाला चेहरा दिखाया तो भारी जुर्माना लगेगा। लीजिए, अब अतीत हमें आसरा देने लगा। तब प्रयोग की गर्इं मलेरिया की, प्लेग की, इबोला की, सार्स की दवाइयां नया कलेवर घर आपका रोग मिटाने के लिए चली आ रही हैं।
अनुगृहीत हो संक्रमित लोग इनमें अपनी मुक्ति तलाश करते हैं क्योंकि पुरानी इबारतों पर नए शीर्षक, पुराने चेहरों पर नए मुखौटे देखने की उन्हें आदत हो गई है। यही नहीं, ‘दवा आने की उम्मीद’ जैसे शीर्षकों के साथ रोग हरने की खबरें आज दुनियाभर में प्रसारित हो रही हैं। अब इन प्रसारित दावों और घोषणाओं पर ही सट्टा होने लगा। खोखले दावे भी वारे न्यारे कर देते हैं। लेकिन जिनके हाथ खाली थे, वो खाली ही रहे। यहां तो दवाओं के वादे भी ब्लैक में बिकने लगे और चोरबाजारी से उठकर नंबर दो की दुनिया में जीने का आदी आम आदमी इस धंधे में भी अपने लिए कोई दिलासा तलाश रहा है।