भारतीय समाज की उत्सवधर्मिता की चर्चा उन सर्वे और अध्ययनों में भी मिलती है, जो ब्रितानी हुकूमत ने यहां के समाज और लोक संस्कारों के बारे में अपनी समझ बढ़ाने के लिए कराए थे। नए समय में इस उत्सवधर्मिता के लोकपक्ष पर बाजार का उपभोगवादी पक्ष हावी हुआ है। पर गनीमत है कि इस असर के बावजूद उत्सवप्रिय भारतीय समाज की यह समझ अपनी जगह बरकरार है कि ये उत्सव घर-परिवार के साथ जुड़ाव के लिए अहम हैं। पर इस बार साल के आखिर के महीनों में शुरू होने वाले त्योहारी मौसम पर कोरोना संकट के कारण कई तरह की मार एक साथ पड़ रही है। जहां लोगों का घरों से निकलना अब भी सीमित है, वहीं ग्राहक से लेकर बाजार तक आर्थिक मंदी की मार साफ दिख रही है। ऐसे में भारतीय जन-मन की उत्सवप्रियता से जुड़े तमाम पहलुओं पर क्या असर पड़ेगा, इस बारे में बता रही हैं मृणाल वल्लरी।

सात महीने की आद्दा ने घुटनों के बल चलना शुरू किया तो कोरोना का कहर आ गया था। अब आद्दा चलना सीख चुकी है और चलने की कोशिश में गिरती भी खूब है। आद्दा के पहले जन्मदिन को लेकर उसका परिवार बहुत उत्साहित है। लेकिन इस बार आद्दा घर में सिर्फ मां-बाप के साथ केक काटेगी और उसके जन्मदिन का असल उत्सव होगा एक अनाथालय में। आद्दा की मां का कहना है कि बेटी के पहले जन्मदिन को लेकर बहुत अरमान थे लेकिन कोरोना काल ने जिंदगी और मानसिकता बहुत बदल दी है। यह मुझे उन बच्चों के बारे में सोचना सिखा गया है जिनके पास संसाधनों की बहुत कमी है।

मेरी बेटी के जन्मदिन पर वे बच्चे खिलखिलाएं जिनको ऐसे मौके कम मिलते हैं। मैंने बेटी के जन्मदिन पर खर्च होने वाला बजट अनाथालय भिजवा दिया। ऐसा करने के बाद मुझे जो सुकूं मिला, मैं बता नहीं सकती। मैंने ऐसा कुछ पहली बार किया है। इस बार गणेशोत्सव पर भी मैंने मिट्टी के गणेश जी बनाए और पूजा-पाठ पर खर्च होने वाला बजट भी अनाथालय के हिस्से ही रखा।

यह अनुभव महज एक मां या परिवार का नहीं है। यह दिखाता है कि बीते छह महीनों में परिवार के अंदर और बाहर एक नए तरह का मनोविज्ञान विकसित हुआ है, जिसके एक सिरे पर भारी अभाव है तो दूसरे सिरे पर इस अभाव से निपटने का संवेदनशील या मानवीय विकल्प।

इस बीच, होली से लेकर नवरात्रि, राखी, ईद-बकरीद और ओणम गुजरे। इस दौरान लोगों ने दिखाया कि हमें सिर्फ शारीरिक दूरी बरतनी है, मानसिक नहीं। दुनिया का कोई भी त्योहार हो उसका ढांचा सामाजिकता का ही होता है। क्रिसमस हो या दिवाली एक-दूसरे से मिलेजुले बिना, सामूहिकता में चर्च या दुर्गा पंडाल गए बिना ये सारे त्योहार बेमानी लगने लगते हैं। लेकिन बकरीद और गणेशोत्सव को देख कर लगता है कि आगे आने वाले बड़े त्योहारों से निपटने की भूमिका बन चुकी है।

सड़क की सिसकियां
वक्त के साथ हमारी चुनौतियां भी बदलती हैं। मार्च का अंत भारत की सड़कों पर नई इबारत लिख गया था। जब मध्यवर्गीय से लेकर उच्च तबका अपने घरों में सुरक्षित बैठ गया था तो छूटे हुए लोग सड़कों पर दिखाई देने लगे थे। जब एक तबका गूगल के इंजन पर सर्च कर रहा था कि उनका मेडिकल बीमा कोविड की छतरी बनेगा कि नहीं तो कामगारों ने देखा कि टिन के डब्बे में रखा चावल खत्म हो रहा है। उसने महसूस किया कि तीन घंटे कतारबद्ध रहने के बाद सरकारी थर्मोकोल की थाली में जितना खाना मिलता है वह श्रम से लौह बन चुके शरीर के साथ एक गुस्ताख मजाक ही है। ये कामगार निकल पड़े थे अपने घर की ओर।

सरकार को बस इससे मतलब था कि अदालत में साबित कर दिया जाए कि सड़क पर कोई नहीं है। अदालत ने अपनी तरह से इस दौरान न्याय और मनुष्यता को बांचा-जांचा। पर इस दौरान जो अपनी जिम्मेदारी निभाने के छींटदार एलान से आगे पूरी संवेदनात्मक ईमानदारी के साथ अपनी भूमिका और कोशिशों के साथ सामने आया, वह था पारंपरिक भारतीय समाज। सड़क पर बिलबिला रहे मजदूरों के लिए कोई अपने घर से खाना ला रहा था तो कोई जूते। कोई बच्चों के लिए दूध तो कोई महिलाओं के लिए सैनिटरी नैपकिन।

मौत के मंजर पर भी जिंदगी को आना ही होता है तो बहुत सी महिलाओं के लिए सड़क और तीन-चार दिन चल कर रास्ता भूलने वाली ट्रेनों में जचगी का भी तो इंतजाम करना था। इन सबके बीच जो टूटा-दरका और पूरी तरह नकाम साबित हुई वह थी सरकारी व्यवस्था, प्रशासन के बड़े-बड़े दावे।

सहयोग और संवेदना
गाजियाबाद में मोहन नगर बस अड्डे की ओर जाती सड़क के पास सर्विस लेन पर एक नर्सरी है। गणेशोत्सव के समय वहां एक महिला एक बड़ा सा थैला लेकर खड़ी है और वहां से गुजरने वाले हर रिक्शा वाले या मजदूरों को बिस्कुट के पैकेट पकड़ाती है। वह मार्च के अंत से ही ऐसा कर रही है। सबसे पहले वह बिस्कुट के पैकेट लेकर सड़क पर तब खड़ी हुई थी जब उसने अपने अपार्टमेंट की खिड़की से सड़क पर मजदूरों का हुजूम देखा था।

वो पानी की छोटी बोतलें और बिस्कुट के पैकेट खरीद कर रखने लगीं। उन्होंने कहा- धूप में चलते लोगों के लिए ग्लूकोज के बिस्कुट और पानी बहुत बड़ा सहारा होता है। मैं अपनी तरफ से यही छोटी सी कोशिश कर सकती हूं। पिछले कई महीनों से मैंने कपड़े या बिना जरूरत की कोई बड़ी चीज नहीं खरीदी है। लेकिन बिस्कुट और पानी की बोतलों पर महीने का पांच हजार रुपया तक खर्च किया है।

वहीं, मेरठ की ओर जाने वाली सड़क पर एक पत्रकार मजदूरों की तस्वीर खींच रहा था और उसका पिट्ठू बैग अजीब सी शक्ल का था कि पता नहीं उसमें कितना सामान भरा है। फोटो खींचने के बाद वो भी अपने बैग से बिस्कुट निकाल कर मजदूरों के बीच बांटने लगा। उसने कहा कि असली तस्वीर दिखाना तो मेरी ड्यूटी है लेकिन अब मैं सड़कों पर लोगों के बारे में सोचने भी लगा हूं। बाहर निकलने पर मेरे बैग में कैमरा रहे या न रहे बिस्कुट का पैकेट जरूर रहता है। पिछले दिनों बीते नवरात्रि और ईद के भी दौरान लोगों ने खाने के पैकेटों के साथ बिस्कुट के पैकेट अपनी भूमिका पर बांटे। कोरोना काल में पारले जी वो कंपनी थी, जो अपने मुनाफे के कारण जानी गई।

रोजगार का त्योहार
भारत में एक बड़ा तबका उत्सवी वस्तुओं के उत्पाद से ही जीवन का उत्साह बचा पाता है। त्योहार का मतलब गांव की मिट्टी का शहर के बाजार से मिलन भी होता है। मिट्टी के दीये से लेकर उसकी बाती और अन्य तरह के सामान। रामनवमी का इंतजार किसी अब्दुल के परिवार को भी रहता है तो ईद के चांद के साथ किसी रामदीन की जिंदगी भी चमकती है। कोरोना काल में यह सब ठप है और इनसे जुड़े छोटे रोजगार करने वालों के भूखे मरने की नौबत आ गई। किसी एक को सूझी कि चलो पंडाल के कपड़े नहीं सिलने हैं तो कलात्मक मास्क तो बनाए जा सकते हैं। फिर क्या था मिथिला पेंटिंग से लेकर कई इस तरह की कलाएं मास्क पर उतरने लगी।

इन लोक कलाकारों का उत्साहवर्द्धन करने के लिए लोगों ने त्योहारों में अपने रिश्तेदारों को इन कलात्मक मास्क के उपहार दिए। वैसे भी सर्जिकल या एक बार इस्तेमाल के बाद फेक दिए जानेवाले मास्क पर्यावरण के लिए नया खतरा बन चुके हैं। जब चिकित्सा विज्ञानियों की तरफ से कपड़े के मास्क को हरी झंडी दे दी गई है तो फिर इसके लिए स्थानीय कामगारों को ही तरजीह देनी चाहिए। आमतौर पर अर्थव्यवस्था इतना भारी-भरकम शब्द है कि हमें लगता है कि यह सिर्फ ऊपर से नीचे की ओर आ सकती है। त्योहारों के जरिए ही हम नीचे से ऊपर जानेवाली व्यवस्था की अहमियत समझें, उसे बचाएं और आगे बढ़ाएं। इस तरह अभाव अवसर में बदले न बदले, एक मानवीय सबक तो बन ही सकता है।