गुप्त साम्राज्य के प्रसिद्ध सम्राट चंद्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त और स्कंदगुप्त हुए हैं। इतिहास बताता है कि गुप्त साम्राज्य का उदय अनेक विदेशी आक्रमणों के फलस्वरूप हुआ था। उस समय एक बार फिर भारतीय व्यापारियों ने सुसमृद्ध साम्राज्य की आर्थिक पृष्ठभूमि प्रस्तुत की थी। इसी समय वैष्णव प्रभाव की छाया में जाति-व्यवस्था का पुनर्गठन हुआ था और अनेक धर्मशास्त्रों और पुराणों का निर्माण हुआ था। पुराणों ने भक्ति को अधिक प्रश्रय दिया था, जो निम्न जातियों को सहूलियत देने की प्रवृति का विकास था।

कर्म के आधार पर वर्ण निर्धारित होता है, जन्म के आधार पर नहीं

इस युग में दर्शन, धर्म, ज्योतिष आदि प्रायः सभी क्षेत्रों में अपूर्व उन्नति हुई। गुप्तों के समय शूद्रों ने उत्थान किया था। वे सेना में लिए जाते थे और उच्च पदों तक पहुंच जाते थे। वैसे वर्ण-व्यवस्था का पहला उल्लेख ऋग्वेद के पुरुष सूक्तम श्लोक में है। वहीं श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है कि किसी व्यक्ति को उसके कर्म और गुण के आधार पर वर्ण निर्धारित किया जाएगा, जन्म के आधार पर नहीं। समाज में रहने वाले लोग अपनी कोख से मनुष्य को ही जन्म देते हैं, उसका रंग-रूप मनुष्य का ही होता है, लेकिन उस बच्चे के जन्म लेते ही हम उसे जातियों में बांट देते हैं और फिर उन्हें अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक, अगड़ी और पिछड़ी जातियों, दलित और सवर्ण, हिंदू-मुसलमान में बांट देते हैं, जबकि सच में उस नन्हे शिशु को इस बात का कोई मलाल नहीं होता है कि उसके साथ समाज क्या खिलवाड़ कर रहा है। 

भारतीय जातिगत व्यवस्था का अंग्रेजों ने खूब लाभ उठाया

फिर अपने भारत में इस जातिगत व्यवस्था में हजारों वर्ष बीत गए। समाज जहां से शुरू हुआ था, उसी लीक पर चलकर वर्षों गुजार दिए। फिर जब औपनिवेशिक शासनकाल आया, तो अंग्रेजों ने इसका भरपूर लाभ उठाया और भारतीयों को जातिवाद, गरीब-अमीर का फर्क डालकर, हिंदू-मुस्लिम के नाम पर खूब लड़ाया। उद्देश्य उनका यही होता था कि इनमें फूट डालो और लंबे समय तक शोषण के बल पर राज करते रहो। इसमें वे सफल भी हुए और वर्षों तक भारत पर उनका राज्य कायम रहा। फिर जब आजादी मिली, तो हमारे अग्रिम पंक्ति के नेताओं ने समाज के बीच जाकर इसे समझाने का प्रयास किया, लेकिन समाज में जातिवाद का जो जहर घुल चुका था, उसे तत्कालीन नेता भी नहीं निकाल सके। उस पीढ़ी के नेताओं के साथ जब उनके बाद देश के कर्ता अग्रिम पंक्ति के नेता बनकर आए, तो उन्होंने तत्काल इसका लाभ उठाना शुरू कर दिया।

धारित जनगणना कराने वाला पहला राज्य बिहार बन गया

उन्होंने अपना उद्देश्य यह बना लिया कि समाज जितना अशिक्षित रहेगा, उनकी मनमानी उतनी चलेगी। फिर ऐसे नेतागण भोली-भाली जनता को गुमराह करने लगे। कभी अनाज बांटकर, कभी हिंदू-मुस्लिम के बीच फूट डालकर, कभी जातिगत आरक्षण के नाम पर, तो कभी जातिगत प्रतिशत दिखाकर समाज को भ्रमित करने लगे। औपनिवेशिक शासन काल 1881 में जनगणना कराई गई थी, लेकिन जाति आधारित जनगणना कराने वाला राज्य बिहार बन गया है। इस जाति आधारित जनगणना से यह बात बिहार में साफ हो गई है कि राज्य के किस जिले में, किस गांव या मोहल्ले में किस जाति के कितने लोग हैं। चाहे चंपारण की नील क्रांति के शांति के अग्रदूत महात्मा गांधी हों या 1975 के आंदोलन को नेतृत्व देने वाले जयप्रकाश नारायण हों और अब जातिगत जनगणना को नेतृत्व देने वाले बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, सबकी अगुआई बिहार ने ही की है।

इसी जातीय जनगणना को विपक्षी दल पूरे दमखम से समर्थन दे रहा है। विशेषकर कांग्रेस के वरिष्ठ सांसद राहुल गांधी इसके प्रबल समर्थक हैं और वह बार-बार इस बात को सार्वजनिक मंच से दोहरा चुके  हैं कि यदि उनकी सरकार बनी, तो वे देश में जातीय जनगणना कराएंगे। अब जब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता इस जातीय जनगणना को स्वीकार करके यह घोषणा कर चुके हैं कि उनकी सरकार बनी तो फिर कोई संदेह नहीं कि इसकी काट के लिए बीजेपी को भी इसका समर्थन करना होगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि इस जनगणना का प्रभाव यह होगा कि कोई भी राजनीतिक दल अपने उम्मीदवार को इसके कारण ही नाप-तोलकर मैदान में इस उम्मीद से उतरेगा, ताकि उनकी पार्टी वहां से जीत सके, क्योंकि हारने के लिए कोई भी दल चुनाव नहीं लड़ता। हां, वोट काटने के लिए कुछ लोग जरूर खड़े किए जाते हैं। वैसे, जब तक नीतीश कुमार द्वारा कराए गए जातीय सर्वेक्षण का परिणाम नहीं आया था, तब तक सभी इसका विरोध कर रहे थे, लेकिन जैसे ही राजनीतिज्ञों की समझ में यह बात आई कि इसका लाभ तो सभी राजनीतिज्ञों को मिलने वाला है, विरोध करने वाले सारे नेतागण और राजनीतिज्ञ मौन हो गए।

दरअसल, कहा जाता है कि जमीन का चारों कोना जब तक एक जैसा समतल नहीं होगा, हर कोने में फसल को एक जैसा पानी नहीं मिलेगा। ऐसा न होने पर एक जैसी फसल की उम्मीद कैसे की जा सकती है! यही सोचकर हमारे विद्वान संविधान विशेषज्ञों ने कुछ वर्षों के लिए आरक्षण का यह अधिकार दिया था कि कुछ दिन में समाज का वह पिछड़ा और उपेक्षित वर्ग बराबर में खड़े होने योग्य हो जाएगा, फिर उसे म‍िलने वाला आरक्षण वापस ले लिया जाएगा। उन्हें विश्वास था कि कुछ वर्षों में समाज का वह वर्ग हर वर्ग के साथ कदम से कदम मिलाकर साथ चलने को तैयार हो जाएगा। लेकिन यह क्या? इसका अधिकांश लाभ तो राजनीतिज्ञ ही उठाने लगे। चाहे वे कितने ही बड़े राजनीतिज्ञ या कितने ही धनाढ्य क्यों न हों, इसका लाभ अपने निज हित में उठाने लगे, परिणाम यह हुआ कि समाज का जो अति कमजोर और पिछड़ा वर्ग था, वह और अधिक पिछड़ गया, कमजोर हो गया।

कुछ भी सुफल समाज का नहीं हुआ और इसलिए आजादी के 75 वर्ष बाद भी आज हम आरक्षण की बात करते हैं और उसे खत्म न करने की वकालत करते हैं। सच में समाज का इतने वर्षों बाद भी आरक्षण का वह लाभ उस कमजोर और दलित को नहीं मिला, जिसकी आशा की गई थी, जिसका नियम बनाया गया था और ऊपर बैठे हुए जो हमारे शीर्ष नेतृत्वकर्ता थे, उन्होंने इसका लाभ उन तक पहुंचने ही नहीं दिया, जो वास्तव में जरूरतमंद थे। उन्हें यदि लाभ मिलता, तो हमारा शोषित समाज मजबूत होता। अब तो प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति और न जाने कितने बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ अपने को दलित और पिछड़े वर्ग का कहकर जनता की सहानुभूति का पात्र बनने में गौरवान्वित महसूस करते हैं। स्वयं प्रधानमंत्री बार-बार दोहराते हैं कि वे पिछड़ा और गरीब वर्ग से आते हैं। अब तो यहां तक कि माननीय उपराष्ट्रपति ने अपने को पिछड़े वर्ग का कहकर एक समुदाय विशेष की सहानुभूति का पात्र बनने की कोश‍िश की। आजाद भारत में इससे पहले ऐसा शायद ही कभी हुआ हो क‍ि प्रधानमंत्री या उपराष्ट्रपति ने स्वयं को किसी जाति-विशेष के साथ जोड़ा हो। नमन उन संविधान निर्माताओं को जिन्होंने इन पदों को किसी जाति विशेष के लिए आरक्षित नहीं किया। इसका अर्थ स्पष्ट है कि इस पद पर पदारूढ़ होने के बाद वह पद जातिविहीन हो जाता है और योग्यता को आधार माना जाता है। 

अब दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि हम अपने सीने पर इस बात का प्रमाणपत्र लेकर कहते हैं कि हम अमुक राज्य के अमुक समुदाय से हैं। अब यह जिम्मा समाज का बनता है कि वह आज की स्थिति को किस रूप में ले। गुप्तकाल में दी गई वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत स्वीकार करें या गीता में श्रीकृष्ण द्वारा कहे गए वाक्यों से करें कि ‘किसी व्यक्ति को उसके कर्म और गुण के आधार पर वर्ण के साथ निर्धारित किया जाएगा, जन्म के आधार पर नहीं।’ निर्णय प्रबुद्ध वर्ग को करना है, आपको करना है, समाज को करना है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। यहां व्‍यक्‍त व‍िचार उनके न‍िजी व‍िचार हैं।)