हमारे देश में जिस तरह गांवों से पलायन और शहरों का आकार बढ़ रहा है, उस अनुपात में हैसियत और जरूरत के मुताबिक लोगों को घर उपलब्ध कराना बड़ी चुनौती बनता गया है। इसके लिए सरकारें नई-नई योजनाएं चलाती हैं, मगर वे लक्ष्य तक नहीं पहुंच पातीं। स्पष्ट और व्यावहारिक नीति न होने की वजह से आवासीय कालोनियां बसाने और घर बनाने वाले सरकारी बाबुओं और राजनेताओं से मिलीभगत करके अवैध निर्माण करते और ग्राहकों को अपने जांल में फांसते रहते हैं। ऐसी कई गगनचुंबी मीनारें जालसाजी की निशानी साबित हुई हैं। कैसे यह धोखाधड़ी रुके और आम लोगों को सिर छिपाने की जगह मिल सके, विश्लेषण कर रहे हैं अभिषेक कुमार सिंह।
भारत जैसे आबादीबहुल देश में रोटी, कपड़े के बाद तीसरी सबसे अहम जरूरत, मकान की उपलब्धता का क्या हाल है, इसका अंदाजा इससे लग जाता है कि पिछले डेढ़-दो दशक में घर के सपने दिखाकर तमाम निर्माण कंपनियों ने हजारों-लाखों जरूरतमंद लोगों को अपने जाल में फंसा रखा है। इन्होंने खुलेआम धोखाधड़ी की और प्राधिकरणों से मिलीभगत कर कौड़ियों के भाव ली गई जमीनों पर या अवैध तब्दीलियां कर करोड़ों-अरबों की कमाई कर ली या फिर घर बना कर ही नहीं दिए। इससे सरकारों, बैंकों की भूमिका भी संदेह के घेरे में आती रही है।
हाल में नोएडा में ढहाए गए अवैध टावर इसकी ताजा मिसाल हैं। बिल्डर ने नोएडा प्राधिकरण के अधिकारियों से साठगांठ कर नियमों को ताक पर रख दिया और आबंटियों की मांग अनसुनी कर मनचाहा बदलाव कर दो ऊंची मीनारें खड़ी कर दी। जरा सोचिए, अगर कुछ आबंटी इस धोखाधड़ी के खिलाफ आवाज नहीं उठाते और मामले को अदालत में नहीं ले जाते, तो क्या होता। नोएडा के ट्विन टावर पूरी ठसक के साथ विद्यमान होते और उनमें रहने वालों के साथ आस-पड़ोस बसे लोग हमेशा हवा में खुल कर सांस लेने तक को तरसते रहते।
पर यहां अहम सवाल है कि क्या सत्ता-नेता, सरकारी प्राधिकरणों का यह गठजोड़ एक ट्विन टावर के नेस्तनाबूद होने भर से टूट सकेगा। देश में ऐसी अवैध इमारतों से जुड़े हजारों किस्से हैं। लाखों लोग ‘रेरा’ जैसे कानून के बावजूद एक अदद घर की आस में आज भी धक्के खा रहे हैं। लेकिन एक मुख्य सवाल का जवाब अब भी नदारद है कि क्या जिंदगी भर की पूंजी एक छत की तलाश में बिल्डरों के हवाले करने वालों को भविष्य में कोई धोखा तो नहीं मिलेगा।
भारत दुनिया के उन देशों में है, जहां भू-संपत्ति (आवासीय और कारोबारी) की कीमतें आसमान छू रही हैं। सिर्फ महानगर, बड़े शहर नहीं, कस्बों तक में एक मामूली घर आम आदमी की हैसियत से बाहर चला गया है। सरकार प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत गरीब-गुरबों की कुछ मदद का दावा अवश्य कर रही है, लेकिन मध्यवर्ग कहां जाए। वह मध्यवर्ग जो रोजी-रोटी के लिए बड़े शहरों-महानगरों की तरफ कूच करता है, पेट काट-काट कर रिहाइश के लिए जिंदगी भर की जमापूंजी बिल्डरों को सौंपता है, लेकिन बदले में उसे ज्यादातर मामलों में धोखा ही मिला है।
इसका ताजा प्रसंग नोएडा के ट्विन टावर में हुई अनियमिता है। अनियमितता का संदर्भ खरीदारों के पैसों से नहीं, बल्कि ज्यादा कमाई या कहें कि बिल्डर के लालच से जुड़ा है। बिल्डर ने जमीन आूबंटन और आरंभिक निर्माण के बाद नोएडा प्राधिकरण के अधिकारियों-इंजीनियरों के साथ मिलीभगत की और फ्लैटों की संख्या अवैध रूप से कई गुना बढ़ाने के लिए बनाए जा रहे टावरों की ऊंचाई में बढ़ोतरी कर दी और उनमें परस्पर कायम रखी जाने वाली दूरी या स्पेस को दमघोंटू तरीके से घटा दिया, ताकि कम जमीन में ज्यादा फ्लैटों का निर्माण हो सके।
टावरों की ऊंचाई बढ़ाने का असर पड़ोस में स्थित आवासीय सोसायटियों पर भी हुआ। उनके घरों में हवा और धूप की आवाजाही बंद हो गई। दो सौ करोड़ रुपए के खर्च से कुतुब मीनार से ऊंचे दो टावरों में बनाए गए फ्लैटों की बिक्री से बिल्डर को आठ सौ करोड़ रुपए कमाई की उम्मीद थी। समस्या यह थी कि बिल्डर ने प्राधिकरण से मिलीभगत कर निर्माण योजना में तीन बार संशोधन किया और ये दो टावर असल में उस जमीन पर खड़े कर दिए गए, जहां मूल योजना में पार्क और महज दो मंजिला व्यावसायिक काम्प्लेक्स बनाना निर्धारित किया गया था।
ये गठजोड़ टूटता क्यों नहीं
ट्विन टावरों में अनियमितता का मामला जब सर्वोच्च न्यायालय की दहलीज पर पहुंचा, तो अदालत ने बिल्डर और नोएडा प्राधिकरण की नीयत पर टिप्पणी की थी। अदालत ने तब प्राधिकरण के अधिकारियों को संबोधित करते हुए कहा था कि उनकी आंख-नाक-कान से भ्रष्टाचार साफ टपकता देखा जा सकता है। पर प्राधिकरण के अधिकारियों, राजनेताओं और बिल्डरों की मिलीभगत का कोई इकलौता या अनूठा उदाहरण नहीं है।
देश के कोने-कोने में ऐसे असंख्य भवन हैं, जो या तो इसी किस्म के अवैध गठजोड़ की बुनियाद पर बन रहे हैं या बनकर अरसा पहले तैयार हो चुके हैं और उनमें लोग जैसे-तैसे रह रहे हैं। भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे तंत्र की मिसाल बनी मुंबई की आदर्श सोसायटी का किस्सा भी ज्यादा पुराना नहीं है। वर्ष 2016 में मुंबई हाईकोर्ट के आदेश पर आदर्श सोसायटी में बनी गगनचुंबी इमारत को नोएडा के ट्विन टावरों की तरह ही ध्वस्त कर दिया गया था। आदर्श सोसायटी का मामला अपने निर्माण के आरंभ से ही विवादों में था।
यह इमारत मूलत: कारगिल युद्ध के शहीदों के आश्रितों को फ्लैट मुहैया कराने के मकसद से बनाई गई थी। लेकिन इसकी ज्यादा चर्चा तब हुई, जब पता चला कि मुंबई के संभ्रांत इलाके में स्थित इस इमारत में तत्कालीन मुख्यमंत्री के रिश्तेदारों, महाराष्ट्र के बड़े मंत्रियों, वरिष्ठ नौकरशाहों और सेना के बडे़ अधिकारियों को अवैध रूप से फ्लैट आबंटित कर दिए गए हैं। मामले में तत्कालीन मुख्यमंत्री तक को अपने पद से हाथ धोना पड़ा था।
हुआ यह था कि कारगिल युद्ध के शहीदों के परिजनों और सेवानिवृत्त फौजियों के लिए साल 1999 में कोलाबा में एक छह मंजिला इमारत का प्रस्ताव दिया गया। कुछ दिन बाद ही सेवानिवृत्त और शहीदों के साथ ही सेवा में कार्यरत सैन्य कर्मियों को भी इसमें शामिल कर लिया गया। फरवरी 2002 में महाराष्ट्र सरकार ने इसके लिए जमीन का आबंटन कर दिया, जिसके साथ यहां निर्माण कार्य शुरू हो गया।
जमीन के आबंटन के साथ ही खबरें आर्इं कि नौसेना का जमीन आवंटन को लेकर ऐतराज है। लेकिन नौसेना की आपत्ति को अनदेखा कर दिया गया। इसके अलावा नियमों को ताक पर रख कर छह के बजाय इकतीस मंजिला इमारत खड़ी कर दी गई। बिल्डिंग तैयार होते ही फ्लैट का चुपचाप राजनेताओं, बड़े सैन्य अधिकारियों के रिश्तेदारों के नाम पर आबंटन कर दिया गया। एक आरटीआई के जरिए 2010 में पता चला कि जो फ्लैट सैन्यकर्मियों और उनके परिजनों को आबंटित किए जाने थे, वे तो असल में बेहद कम कीमत पर राजनेताओं और नौकरशाहों ने अपने और रिश्तेदारों के नाम करवा लिए हैं।
जब मामला अदालत में पहुंचा तो न्यायालय ने छूटते ही कहा कि यह सरासर धोखाधड़ी का मामला है। यह आरोप भी लगा कि पूरे घोटाले में तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक चौहान, पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख, सुशील शिंदे और शिवाजी राव आदि की संलिप्तता है। अंतत: अदालत के आदेश पर इस इमारत को ढहा दिया गया।
बिल्डर, नौकरशाहों, प्राधिकरण के अधिकारियों, राजनेताओं के अवैध गठजोड़ का यह किस्सा अंतहीन है। नोएडा-ग्रेटर नोएडा स्थित बिल्डर आम्रपाली समूह के खिलाफ 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया था, वह ऐसी ही जालसाजियों का एक और नमूना है। अदालत ने इसकी परियोजनाओं में घर लेने वाले बयाीस हजार ग्राहकों को राहत दिलाने के मकसद से अधूरे प्रोजेक्ट आम्रपाली से छीन कर उन्हें पूरा करने का जिम्मा सरकारी कंपनी नेशनल बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन कारपोरेशन (एनबीसीसी) को दे दिया था।
साथ ही, नोएडा और ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण से इस समूह को मिली सभी लीजें रद्द कर दी गई थी। अदालत ने प्राधिकरणों को फटकार भी लगाई थी, जिनके अधिकारियों ने बिल्डर से सांठगांठ कर खरीदारों के पैसे में हेर-फेर में मदद की। यहां मुद्दा यह है कि जो काम बेहद लंबे इंतजार के बाद सुप्रीम कोर्ट को करना पड़ रहा है, सरकारें और प्राधिकरण अगर चाहते तो क्या यह सब कुछ पहले नहीं हो सकता था।
पिछले कुछ अरसे में अवैध इमारतें ढहाने के अलावाल चंद नामी बिल्डरों के मालिकों-सीईओ की गिरफ्तारी भी ग्राहकों से धोखाधड़ी के संबंध में की गई है। उन्हें जेल में ठूंसा गया और उन्हें दी गई जमीनों के आवंटन प्राधिकरणों ने रद्द कर दिए हैं। ऐसी कार्रवाइयां एक संतोष तो जगाती हैं कि आखिर फर्जीवाड़ करने वाले बिल्डरों के खिलाफ देश में कुछ तो कार्रवाई हुई है, वरना करोड़ों-अरबों का चूना लगाने के बावजूद कोई उन पर हाथ डालने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। लेकिन इससे कुछ अहम सवाल भी उठ खड़े हुए हैं।
जैसे, एक सवाल तो यही है कि निजी बिल्डर कंपनियों पर जब कुछ मामले सालों-साल अदालत में चलेंगे, वर्षों बाद कहीं जाकर उन पर कोई फैसला आएगा, तब तक ग्राहक सिवाय हाथ मलने के कुछ कर नहीं सकेगा। या फिर जिस तरह आदर्श सोसायटी या नोएडा के जुड़वां टावरों को ढहाया गया है, उससे लोगों को घर तो मिला नहीं। हालांकि कह सकते हैं कि बरसों-बरस तक पूरे देश के आवास सेक्टर में धांधलियां होने के बाद सरकार और कानून की नजर इस गोरखधंधे पर गई है और अब इस उद्योग के कायदे-कानून बदल रहे हैं।
एक बड़ा बदलाव इस संबंध में लागू हुए रियल एस्टेट रेग्युलेटरी एक्ट (रेरा) से आया है, क्योंकि इस कानून के लागू के बाद बिल्डरों का वह जलवा नहीं रह गया है जो पहले हुआ करता था। इसमें बिल्डरों के लिए कड़ी शर्तें रखी हैं, ताकि वे ग्राहकों से वादाखिलाफी और कोई धोखाधड़ी न कर पाएं। लेकिन इस बीच जिन हजारों लोगों ने तमाम नामी बिल्डरों के विज्ञापनों और वादों के झांसे में आकर अपनी पूंजी फंसा दी है, उन्हें फिलहाल सिवाय इसके कोई राहत मिलती नहीं दिखाई दे रही है कि उनके साथ दगा करने वाले बिल्डर जेल भेजे जा रहे हैं या उनकी अवैध इमारतों को गिराया जा रहा है। साथ ही, कई मामलों में रेरा भी जनता की ज्यादा मदद नहीं कर पा रहा है- यह दावा भी किया जा रहा है।