सेंट्रल इनफोरमेशन कमीशन का कहना है कि 1993 में सुप्रीम कोर्ट ने इमामों को तनख्वाह देने का जो फैसला लिया था वो संविधान के अनुरूप नहीं है। कमीशन का ये भी कहना है कि इससे समाज में एक गलत संदेश गया।
इनफोरमेशन कमिश्नर उदय माहुरकर ने ये बात शुक्रवार को एक आरटीआई याचिका पर सुनवाई के दौरान कही। दरअसल आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल ने उनसे पूछा था कि इमामों को जो तनख्वाह दिल्ली सरकार और दिल्ली वक्फ बोर्ड की तरफ से दी जा रही है उसका ब्योरा क्या है। अपने जवाब में सूचना आयोग ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला संविधान के अनुरूप नहीं है। टैक्स पेयर्स के पैसे को किसी धर्म विशेष पर खर्च करना गलत है। जवाब में कहा गया है कि ये बात संविधान के आर्टिकल 27 में कही गई है।
कमीशन का कहना था कि इससे न केवल देश में एक गलत संदेश गया। बल्कि समाज में द्वेष की भावना भी पनपी। अपने जवाब में कमीशन का कहना था कि 1947 से पहले मुस्लिमों को विशेष प्रावधान के तहत रियायतें देना भी गलत था। इसके बाद मुस्लिम समुदाय बेलगाम हुआ और देश के विभाजन के लिए भी यही चीज जिम्मेदार थी। अपने आदेश में कमीशन का कहना था कि दिल्ली सरकार हर साल वक्फ बोर्ड को 62 करोड़ रुपये का अनुदान देती है। जबकि इसकी अपनी आमदनी 30 लाख रुपये सालाना है।
इनफोरमेशन कमीशन का कहना था कि इमामों को हर माह 16 और 18 हजार की जो तनख्वाह दी जा रही है वो टैक्स पेयर्स के पैसे से है। कमीशन ने कहा कि अगर अल्पसंख्यक समुदाय के नाम पर मुस्लिमों को रियायत या अनुदान दिया जाता है तो बहुसंख्यक समुदाय को भी इसका हक है। आयोग का कहना था कि जो बातें सामने आई हैं वो उनके मुताबिक सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के लिए ये मसला बेहद अहम है।
कमीशन ने अपनी रजिस्ट्री को आदेश दिया कि इस आदेश की कापी कानून मंत्री के पास भी भेजी जाए। कमीशन ने अपने आदेश में ये अनुशंषा भी की कि संविधान के 25 से लेकर आर्टिकल 28 को लागू करने के लिए उचित कदम उठाए जाएं। कमीशन ने अपने आदेश में दिल्ली वक्फ बोर्ड को आदेश दिया कि वो याचिकाकर्ता सुभाष अग्रवाल के खर्च को वहन करे, क्योंकि उन्होंने इस मामले को सिरे तक पहुंचाने के लिए अपना समय और संसाधन खर्च किए।