2 दिसंबर को आए गुजरात के स्थानीय निकाय चुनावों के नतीजों में भाजपा को लगे झटके की एक वजह यह है कि मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल का करिश्मा नरेंद्र मोदी के जैसा नहीं है। लेकिन यह एक मात्र वजह नहीं है। गुजरात मॉडल ही दांव पर लगा है। यह मॉडल आम लोगों को कभी रास नहीं आया। वे सालों से इसका शिकार बन रहे हैं। गुजरात का सोशल इंडिकेटर विकास दर की तुलना में काफी विरोधाभासी रहा है। ह्यूमैन डेवलपमेंट इंडेक्स में गुजरात 1999-2000 में दसवें नंबर पर था, 2011 में गिर कर 11वें पायदान पर आ गया। ऐसा मुख्य रूप से तीन समुदायों – आदिवासी, दलित और मुस्लिम – की दयनीय हालत के चलते हुआ। गुजरात की आबादी में आदिवासी 15 प्रतिशत, दलित 7 और मुस्लिम 9 फीसदी हैं। पिछले दशक में नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) की ओर से लगातार गुजरात सरकार को आगाह किया जाता रहा कि आदिवासियों और दलितों के विकास के लिए दी गई राशि उनकी जनसंख्या के अनुपात में पर्याप्त नहीं है।
लगातार दंगों के चलते मुस्लिम समाज भी हरदम मुसीबतों में ही रहा। उनकी अलग समस्याय है। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक सभी सरकारी महकमों में मुस्लिमों की भागीदारी कम है। शिक्षा विभाग में ऊंचे ओहदों पर केवल 1.7 फीसदी मुस्लिम हैं और निचले पदों पर इनकी संख्या 4.5 प्रतिशत है। गृह विभाग में ऊंचे और निचले, दोनों ही तरह के ओहदों पर इनकी भागीदारी 5.6 प्रतिशत है। स्वास्थ्य विभाग में ऊंचे पदों पर 2.2 और निचले पदों पर 1.5 प्रतिशत मुस्लिम हैं। यह समस्या मुसलमानों में शिक्षा का स्तर कम होने के चलते भी है। गुजरात में केवल 26 प्रतिशत मुस्लिम मैट्रिक तक पहुंचते हैं। एससी-एसटी का भी यही हाल है। जबकि, बाकी समुदाय के 41 प्रतिशत लोग मैट्रिक तक पढ़ रहे हैं। शहरी गुजरात में 24 फीसदी मुसलमान गरीबी रेखा के नीचे रह रहा है, जबकि एससी/एसटी के मामले में यह आंकड़ा 17 प्रतिशत और ओबीसी के मामले में 18 प्रतिशत है।
ये आंकड़े बताते हैं कि गुजरात मॉडल दो बातों पर निर्भर है- धार्मिक और सामाजिक। पर एक और बात है, जिस पर बराबर ध्यान दिए जाने की जरूरत है। यह है ग्रामीण और शहरी आबादी की औसत मासिक प्रति व्यक्ति आय में अंतर। यह अंतर 1993-94 में 49.8 प्रतिशत था, लेकिन 2007-08 में 68 फीसदी हो गया। 2011-12 में भी आंकड़ा यही रहा। इसका मतलब यह हुआ कि शहरों में रहने वाले लोगों गांव के लोगों की तुलना में दो-तिहाई से ज्यादा खपत कर रहे हैं। इन असमानताओं के बावजूद भाजपा को चुनाव जीतने में दिक्कत नहीं आई तो इसकी वजह यह है कि उसे जीत दिलाने के लिए शहरी मतदाता ही काफी हैं। अगर चुनावी जीत में गांवों की जनता निर्णायक होती तो सीएसडीएस के एक सर्वे के मुताबिक 2012 में राज्य में कांग्रेस चुनाव जीत गई होती। लेकिन गुजरात में शहरीकरण की दर देश के बाकी किसी राज्य से ज्यादा है।
तो अब भाजपा की जमीन खिसक क्यों रही है? इसकी वजह है रूरल और सेमी-रूरल आबादी के बीच बढ़ती खाई। दो साल फसल खराब होने और कृषि संकट की आशंका के मद्देनजर यह खाई बढ़ी है। जो लोग मध्य वर्ग के तौर पर उभरने की उम्मीद पाले बैठे थे, उनकी हताशा भी एक वजह है। निम्न मध्य वर्ग से आने वाले युवा पटेल इसी श्रेणी में आते हैं। पटेलों की आबादी 14 प्रतिशत है। कुछ महीने पहले उनके आंदोलन को दबा कर राज्य सरकार ने उन्हें वैसे भी अपने खिलाफ कर लिया था। पर युवा पटेल सड़कों पर उतरे क्यों थे? इसकी वजह भी गुजरात मॉडल की ही एक ‘खूबी’ है। युवाओं के लिए नौकरियों के अवसर नहीं बने। देश-विदेश की बड़ी कंपनियों को निवेश के लिए गुजरात नहीं लाया जा सका, जिसके चलते विकास कम हुआ। इस दिशा में जो गतिविधियां की गईं, वे लघु, छोटे व मंझोले उद्योगों (एमएसएमई) की कीमत पर की गईं। एमएसएमई की हालत खराब हो गई।
भाजपा की हार के पीछे गुजरात मॉडल में शहरी और मध्य वर्ग के प्रति पक्षपात तो कारण रहा ही, लेकिन बड़ा खतरा यह है कि कहीं राष्ट्रीय स्तर पर इसका दोहराव न हो। ‘मेक इन इंडिया’ काफी नहीं है, क्योंकि तरक्की का मतलब तभी है, जब नौकरियों के अवसर बनें। नौकरियां बड़ी कंपनियों की तुलना में छोटी कंपनियां ज्यादा देती हैं।
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