आज की नई दुनिया के सामने आसन्न विश्वयुद्ध का ऐसा खतरा पहले कभी नहीं था। वर्तमान में जो वैश्विक परिस्थितियां बन रही हैं, वह नई तरह की और बहुत बड़ी चुनौतियों संग जोखिम से भरी हुई है। दो-दो विश्वयुद्ध यह दुनिया देख चुकी है। प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918) और द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) के 80 वर्षों बाद, जो वास्तविकता दिख रही है, वैसी पहले कभी नहीं दिखी।
वर्तमान में कई देशों के आपसी युद्ध में विध्वंस की तस्वीरें दहला देती हैं। पहले ऐसा नहीं था। न इतनी उन्नत तकनीक थी और न ही टेलीविजन और सोशल मीडिया का वर्चस्व। युद्ध में उपयोग होने वाले उपकरण भी इतने घातक नहीं थे। ज्यादातर आमने-सामने युद्ध होते थे, तोप, बंदूक, गोला-बारूद और हवाई जहाजों से बमबारी और इससे हुई तबाही की तस्वीरें एक-दो दिनों बाद ही सामने आती थी और दुनिया युद्ध के बारे में जान पाती थी।
मगर अब परिदृश्य बदल गया है। मैदान के बजाय आसमान में ही सारी लड़ाई केंद्रित हो गई है। मिसाइल और ड्रोन तकनीक ने हजारों मील दूर से अचूक निशानों के जरिए जहां युद्ध कौशल विकसित किया, वहीं इसकी विभीषिका नए रूप में सामने है। निश्चित रूप से विध्वंस का ऐसा नजारा दिखने लगा है कि युद्ध के नाम से ही लोग सहम जाते हैं।
रूस-यूक्रेन के बीच तीन साल से ज्यादा समय से युद्ध जारी है। दूसरी ओर कुछ समय पहले मध्य-पूर्व में ईरान-इजराइल के बीच महज बारह दिनों की लड़ाई ने दुनिया को चिंता में डाल दिया था। तुर्किये-ईरान समेत कई और देशों के बीच तनाव चल रहा है। भारत-पाकिस्तान के बीच भी तनाव कम नहीं है। चीन-अमेरिकी संबंधों में तल्खी छिपी नहीं है।
राष्ट्रपति ट्रंप के शुल्क संग्राम ने दुनिया भर के देशों को झकझोर कर रख दिया है
इन सबके बीच अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के शुल्क संग्राम ने दुनिया भर के देशों को झकझोर कर रख दिया है। महज दो शक्तिशाली देश आमने-सामने नहीं है, उनके समर्थक भी टकराव करते नजर आ रहे हैं। विभिन्न देशों के बीच शुल्क और कारोबार को लेकर खींचतान से हालात ऐसे बन गए हैं कि भारत के मुकाबले कई गुना छोटा देश ताइवान भी आसमान की ओर मिसाइलें ताने खड़ा है। ये संकेत अच्छे नहीं हैं।
अमेरिका का सहयोगियों से पूछना कि अगर चीन से जंग हुई, तो कौन-कौन उसका साथ देगा, यह अलग इशारा है। चिंताजनक यह भी कि महज 35,980 वर्ग किलोमीटर में फैला ताइवान खतरनाक मिसाइलों से लैस है। उसे अमेरिका की शह है। चीन ने ताइवान को उकसाया है। ताइवान खुद को स्वतंत्र देश मानता है। वहां लोकतांत्रिक पद्धति है और स्वतंत्र चुनाव होते हैं। चीन में कम्युनिस्ट शासन है। दरअसल, 1949 में चीन में कम्युनिस्ट क्रांति के दौरान वहां गृहयुद्ध में हार चुकी राष्ट्रवादी सरकार ताइवान चली गई और वहां अपनी सरकार स्थापित की थी।
मगर चीन, अब भी ताइवान को अपना हिस्सा मानता है। इसी 12 जुलाई को चीन ने कहा कि वह ताइवान को वापस लेगा। लिहाजा ताइवान भी अपनी रक्षा तैयारियों को मजबूत कर रहा है। उसने अपनी ताकत बढ़ाने के लिए अमेरिका से हथियार खरीदे। जब ताइवान जैसा छोटा सा देश युद्ध के लिए तत्पर हो, तो इसके मायने बहुत गंभीर हैं।
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ताइवान को लेकर चीन-अमेरिका के बीच वर्षों से जारी टकराव कब किस नए मोड़ पर आ जाए, कोई नहीं जानता। अमेरिका दुनिया के नक्शे में ताइवान को एक देश बताता है। उसे सुरक्षा और उपकरण भी मुहैया कराता है। वहीं चीन कंबोडिया की मदद करने पर अपना ध्यान केंद्रित किए हुए है। कंबोडिया एक ऐसा देश है, जहां पिछले कई वर्षों से अंतरराष्ट्रीय मदद का इस्तेमाल बीते युद्धों से बची हुई बारूदी सुरंगों को हटाने के लिए किया जाता रहा है। ऐसी सुरंगों के कारण वहां नागरिक घायल हो रहे हैं और मारे भी जा रहे हैं।
इसे चीन की रणनीतिक चतुराई कहें या ट्रंप की चाल, जैसे ही अमेरिकी प्रशासन ने कंबोडिया को सहायता बंद की, कंबोडियन माइन एक्शन सेंटर यानी सीएमएसी का बयान सामने आया कि चीन ने 44 लाख डालर देने का वादा किया है ताकि बारूदी सुरंगों को साफ करने का काम अगले एक साल तक जारी रह सके।
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जाहिर है कि चीन, अमेरिका के पीछे हटते ही ऐसे मौके का फायदा उठाने से नहीं चूका और वहां अपना प्रभाव भी बढ़ाने लगा। ऐसा कर चीन अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, एशिया और दूसरे अन्य देशों के साथ अपने संबंधों को मजबूत करने की दिशा में आगे बढ़ेगा। इससे उसकी व्यापारिक और सामरिक नीतियों को बल मिलेगा।
हालांकि चीन की मंशा पश्चिम के पतन की रही है। यह राष्ट्रपति ट्रंप के कार्यकाल में आगे बढ़ती दिख रही है। अपने शुल्क का डर दिखा कर अमेरिकी राष्ट्रपति ने भले ही कैसे भी मंसूबे पाल रखे हों, लेकिन कहीं न कहीं उनका शुल्क संग्राम प्रतिस्पर्धी चीन के लिए एक तरह से मददगार ही है, क्योंकि दुनिया अपने-अपने व्यापार के मामले में चीन की ओर देख रही है। यह अस्वाभाविक भी नहीं है। मगर नीयत के मामले में चीन पर दुनिया को भरोसा नहीं है। बावजूद इसके चीन की गतिविधियां और उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि चीन धीरे-धीरे अपने मंसूबों की ओर दबे पांव बढ़ता जा रहा है।
दुनिया फिलहाल दो देशों के बीच वर्चस्व की टकराहट को देख रही है। मगर भारत की धमक से चीन-अमेरिका दोनों ही उलझन में हैं। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का व्यवहार न केवल अमेरिका की विश्वसनीयता को घटाता दिखता है, बल्कि अमेरिका की साख पर भारी पड़ रहा है। यही कारण है कि उनकी महत्त्वाकांक्षा ने पहले दुनिया के सबसे बड़े अमीर कारोबारी एलन मस्क को गले लगाया और फिर उन्हें दुश्मन मान बैठे। मस्क भी अमेरिका में तीसरी राजनीतिक पार्टी बनाने की चुनौती दे रहे हैं। कमोबेश यही भारत के साथ ट्रंप ने किया। वे अपने चुनाव से पहले तक दोस्ती का दंभ भरते नहीं अघाते थे। मगर अब पूरी तरह से व्यावसायिक हितों की बात करने लगे हैं। वर्चस्व के इस युद्ध में भारत को अब अपनी भूमिका बढ़ानी होगी।
कुल मिला कर स्थितियां ऐसी बन रही हैं कि गुटों में बंटी दुनिया अपने हितों पर केंद्रित होती जा रही है। अब तक अमेरिका और चीन को ताकतवर माना जाता रहा है। मगर अब वास्तव में ऐसा नहीं है। उभरते नए समीकरण कुछ और ही इशारा कर रहे हैं। यूरोप के तीन छोटे से देश हैं- एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया। ये बाल्टिक देश कहे जाते हैं। इनका क्षेत्रफल बिहार-झारखंड के कुल क्षेत्रफल के बराबर ही है। मगर ये चर्चा में रहते हैं। चूंकि भौगोलिक रूप से ये न केवल रूस के पास हैं, बल्कि यूक्रेन के भी करीब हैं। मगर अमेरिका की अगुआई वाले उत्तर अटलांटिक संधि संगठन यानी नाटो से भी जुड़े हैं। ऐसी चर्चा है कि चीन अपना पहला हमला ताइवान पर करेगा।
यहीं से महायुद्ध की शुरुआत हो सकती है। नाटो देश अमेरिका के साथ आ सकते हैं, तो चीन के साथ रूस, ईरान और उत्तर कोरिया आ सकते हैं। सीरिया, वेनेजुएला और क्यूबा भी रूस के समर्थन में हैं। मगर भारत जैसे कुछ देश हैं, जिनकी स्थिति गुटनिरपेक्ष वाली होगी जो समय-समय पर दिखी भी है।