जगदीश बाली
बहुत से सफल और अनुभवी लोग कहते हैं कि विद्यालयों की परीक्षाओं में मध्यवर्ती अंक हासिल करने वाले विद्यार्थी अक्सर ऊंचा मुकाम हासिल करते हैं और शतक के निकट रहने वाले बहुतायत उस ऊंचाई को नहीं छू पाते या कहीं भीड़ में खो जाते हैं। इसके बावजूद हकीकत यह है कि हमें अंकों से ही मुहब्बत है।
हर साल केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड और अन्य शिक्षा बोर्ड के परीक्षा परिणाम आने के साथ ही अखबारों में ऊंचे अंक हासिल करने वाले विद्यार्थियों के चेहरे चमकने लगते हैं। सोशल मीडिया पर भी अंकों की धूम मच जाती है। बधाइयों का सिलसिला चल पड़ता है। बधाई तो जरूर बनती है, पर एक और महत्त्वपूर्ण पक्ष की ओर ध्यान देने की जरूरत है।
अंकों की दौड़ और स्पर्धा का एक पहलू यह भी है कि कम अंक हासिल करने वाली बहुआयामी प्रतिभाएं कहीं अनदेखी रह जाती हैं। अधिक से अधिक अंक पाने की होड़ में विद्यार्थी ऐसे तोते बन रहे हैं जिन्हें सिर्फ रटना आ गया है। वे एक ही रंग के तोते बन रहे हैं। यह भी कम कमाल नहीं कि छात्र भाषा और साहित्य के विषयों में भी शत-प्रतिशत अंक प्राप्त कर रहे हैं। अंग्रेज़ी, संस्कृत, हिंदी और समाजशास्त्र गणितीय विषय नहीं हैं। इनमें शत-प्रतिशत अंक हैरान तो करते ही हैं, पर कई सवाल भी खड़ा करते हैं।
एक वह जमाना था जब पचहत्तर-अस्सी प्रतिशत अंक लाने वाले पहले सौ में शुमार हो जाते थे। इससे कम आने पर भी मस्ती होती थी। एक आज का जमाना है कि इतना अंक लाने वाले की बात ही नहीं होती और इससे नीचे वालों की तो जैसे कोई हस्ती ही नहीं होती। नब्बे-पनचानबे प्रतिशत वाले भी बुझे- बुझे से रहते हैं, क्योंकि वे इस दबाव में रहते हैं कि किसी श्रेष्ठ संस्थान में दाखिला मिल पाएगा कि नहीं।
कमाल यह भी है कि उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन करने वालों गुरुजी को अंग्रेजी, समाजशास्त्र, हिंदी और संस्कृत जैसे मानविकी विषयों में भी अंक काटने का मौका नहीं मिलता। यह देखा जा सकता है कि अक्सर अंग्रेजी जैसे विषयों में नब्बे से अधिक अंक लाने वाले विद्यार्थियों को भी इस विषय का आधारभूत ज्ञान नहीं होता।
बच्चों को अंकों की जो घुट्टी पिलाई जा रही है, उससे वे हर विषय में शत-प्रतिशत अंक लाना चाहते हैं और एक अंक कट जाने पर अफसोस करते हैं। माता-पिता भी अपने बच्चों पर अंकों का दबाव बनाए रखते हैं, क्योंकि अच्छे संस्थान में दाखिले के लिए अंक चाहिए। बातें सर्वांगीण विकास की होती हैं, पर आंख, कान, मन सब अंकों पर ही अटके रहते हैं। उत्कृष्ट शिक्षण संस्थानों में दाखिला भी अंकों के अनुसार हो रहा है।
उदाहरण तो एडिसन, आइंस्टीन, स्टीव जाब्स और रौवलिंग जैसे लोगों के दिए जाते हैं, पर मन है कि अंकों से ही प्रीत कर बैठा है। अच्छे अंक लेना उपलब्धि तो है, पर अंकों का अत्यधिक दबाव होने से छात्र ‘तोता’ बन कर रह गए हैं। यह उनके मानसिक विकास और व्यक्तित्व के लिए उचित नहीं।
अंकों के इस संघर्ष में विद्यार्थी येन केन प्रकारेण अंक प्राप्त करने का प्रयास करता है।
इस दौड़ में समाज भी अपना हिस्सा बाकायदा निभा रहा है। नाते-रिश्ते वालों को अपने भतीजे, भांजों और अन्य की चिंता रहती है। परिणाम आते ही उनकी दृष्टि अंकों पर दरूर पड़ती है। अंकों का विश्लेषण करने में वे बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। कम अंक वाले विद्यार्थी बड़ी मुश्किल से इस समय को गुजारते हैं। अच्छे शिक्षण संस्थान के अलावा, मां-बाप इसे समाज में अपनी नाक का विषय भी बना लेते हैं। कई अध्यापकों के लिए भी अंक प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता का सवाल होता है। किसी विषय में ‘डिस्टिंकशन’ आने पर गुरुजी का रुतबा बना रहता है।
बेहतर अंक आना खराब बात नहीं है, पर यह भी महत्त्वपूर्ण है कि अंक कैसे-कैसे करके आए हैं और क्या अंक ही सब कुछ है। अंकों की इस भागम-भाग में हमारी वे खेल प्रतिभाएं कहीं मन मसोस कर रह जाती हैं, जो सत्र भर प्रतियोगिताओं में पदक जीत कर स्कूल का नाम रोशन करते हैं। उनके लिए सिर्फ कुछ पलों की तालियों के सिवाय कोई अंक नहीं।
कहीं कोई गायक, कोई धावक, कोई नर्तक, कोई संगीतज्ञ, कोई लेखक अपने हुनर को आवाज नहीं दे पाता, क्योंकि वे अंकतालिका में ऊपर नहीं आते और जो अंक तालिका में ऊपर नहीं आते, वे फिर कहां आ पाते हैं। मालूम नहीं कि ऐसे कितने हुनरमंद सितारे अंकों के पर्दे के पीछे छिपे रह जाते हैं और चांद की चमक का माद्दा रखने वाले चेहरे टूटे हुए सितारे बन जाते हैं। अंकों के आगे भी जहां है। वास्तव में हमें बहुआयामी शिक्षा चाहिए। हमें केवल अंक पाने वाले रटने वाले तोते नहीं, बल्कि जिंदगी से लोहा लेने वाले विधाओं के धनी इंसान चाहिए। प्रतिभा का आकलन केवल अंक नहीं हो सकते।