अंतिम जाति जनगणना वर्ष 1931 में हुई थी। इस गणना को लेकर भाजपा, कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के जो भी दृष्टिकोण रहे हों, लेकिन इसके बाद इस मुद्दे पर विराम लग जाएगा। अब सरकार की ताजा घोषणा के मुताबिक, भारत की संपूर्ण जातियों की गिनती होगी। इसमें मुसलिम, ईसाई और पारसी भी शामिल रहेंगे। इसके परिणाम क्या होंगे, यह भविष्य के गर्भ में हैं, लेकिन जातियों की गणना को लेकर जिस तरह से इसे सामाजिक न्याय का मुद्दा बना कर उछाला गया है, उसके नतीजों में बहुत कुछ शेष नहीं रह गया है।
ज्यादातर राज्यों में अभी भी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की सुविधा पिछड़े और अनुसूचित जाति एवं जनजातियों को मिल रही है। इसलिए आरक्षण को बढ़ाने की कवायद खोखली ही साबित होगी? दरअसल, जिस जातीय व्यवस्था को नेताओं को तोड़ने की जरूरत थी, वे उसे तात्कालिक बनाम काल्पनिक लाभ का मुद्दा बना कर कमजोर होते जातीय क्षरण को मजबूती देने के प्रयास में लगे दिख रहे हैं।
चुनाव में प्राय: उछाला जाता है जाति का मुद्दा
भारतीय समाज की यह विडंबना रही है कि मुद्दा कोई भी हो, जाति उभर कर सामने आ जाती है। इसीलिए चुनाव में यह मुद्दा प्राय: उछाला जाता है। जबकि भेदभाव पैदा करने वाली व्यवस्था को समाप्त करने की जरूरत है। सामाजिक समानता भारतीय परंपरा का हिस्सा रही है, लेकिन इसे भुला दिया गया। नतीजतन, घातक परिणाम सामने आए। आरंभ में वर्ण और जाति व्यवस्था में कोई भेदभाव नहीं था।
मगर ब्रिटिश शासक अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए इस खाई को गहरा करते रहे। आजादी के बाद जातीय भेदभाव के इस अतीत को हमें भुला देना चाहिए था, लेकिन चुनाव जिताऊ इस टोटके को सभी प्रगतिशील दलों ने अपनाया। जबकि जाति के स्तर पर छुआछूत खत्म होने लगा था। स्त्रियों में आर्थिक स्वावलंबन बढ़ने से अंतरजातीय विवाह भी बढ़े और ऐसे विवाहों को सामाजिक स्वीकार्यता मिलने लगी है। गणना के नतीजे आने के बाद ऊंट किस करवट बैठेगा, फिलहाल कुछ कहा नहीं जा सकता।
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जाति तो नहीं, लेकिन वर्ण की पहचान ऋग्वेद की कतिपय ऋचाओं में मिलती है। हालांकि इसे प्रकृति और पुरुष में समानता का दर्जा देते हुए उल्लेखित किया गया है। कहा गया है कि अखिल ब्रह्मांड एक महामानव या विराट पुरुष है। कालांतर में इसी विराट पुरुष को चार मुख्य श्रेणियों में विभाजित कर दिया गया। जातीय संरचना अपनी जगह हजारों वर्षों से है। आभिजात्य वर्ग यही स्थिति बनाए रखना चाहता है।
मुसलमानों के बीच भी कई जातियां हैं, पर इनकी जनगणना में भी पहचान का आधार धर्म है। शायद इसीलिए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि ‘जाति व्यवस्था का कुछ ऐसा दुश्चक्र है कि हर जाति को अपनी जाति से निम्न मानी जाने वाली जाति मिल जाती है। यह एक पूरा का पूरा चक्र है। अगर यह जाति चक्र एक सीधी रेखा में होता, तो इसे तोड़ा जा सकता था। यह वर्तुलाकार है।’ वैसे भी धर्म के बीज-संस्कार जिस तरह से हमारे बाल अवचेतन में जन्मजात संस्कारों के रूप में बो दिए जाते हैं, कमोबेश उसी स्थिति में जातीय संस्कार भी कम उम्र में उड़ेल दिए जाते हैं।
महात्मा गांधी ने जाति प्रथा को तोड़ने का किया था प्रयास
इस तथ्य को एकदम से नहीं नकारा जा सकता कि जाति एक चक्र है। अगर जाति चक्र न होती, तो अब तक टूट गई होती। जाति पर जबरदस्त कुठाराघात ऋषि चार्वाक ने किया था। उनका दर्शन था, इस अनंत संसार में कुल में जब कामिनी ही मूल है तो जाति की परिकल्पना किसलिए? गौतम बुद्ध ने भी जो राजसत्ता भगवान के नाम से चलाई जाती थी, उसे धर्म से पृथक किया। चाणक्य ने जन्म और जातिगत श्रेष्ठता को तिलांजलि देते हुए व्यक्तिगत योग्यता को मान्यता दी। गुरुनानक देव ने जातीय अवधारणा को अमान्य करते हुए राजसत्ता में धर्म के उपयोग को मानवाधिकारों का हनन माना। संत कबीरदास ने जातिवाद को धता बताते हुए कहा कि ‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान, मोल करो तलवार का, पड़ी रहने दो म्यान।’ जातीयता को सर्वथा नकारते हुए संत रविदास ने कहा था कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा।’
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महात्मा गांधी के जाति प्रथा तोड़ने के प्रयास तो इतने अतुलनीय थे कि उन्होंने ‘अछूतोद्धार’ जैसे आंदोलन चला कर साफ-सफाई का काम दिनचर्या में शामिल कर, उसे आचरण में आत्मसात किया। भगवान महावीर, संत रैदास, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, विवेकानंद, संत ज्योतिबा फुले और भीमराव आंबेडकर ने जाति तोड़ने के अनेक प्रयत्न किए, लेकिन जाति प्रथा मजबूत होती चली गई। इतने सार्थक प्रयासों के बाद भी क्या जाति टूट पाई? कुलीन मानसिकता, जाति तोड़ने की कोशिशों के समांतर अवचेतन में पैठ जमाए बैठे मूल से अपनी जातीय अस्मिता और उसके भेद को लेकर लगातार संघर्ष करती रही है। नतीजतन जातीय संगठन और राजनीतिक दल भी अस्तित्व में आ गए। कई बड़े नेताओं ने जातीय संगठनों की आग पर खूब रोटियां सेंकीं।
राजनीति की दुर्भाग्यपूर्ण पहलू बनी जाति
भविष्य में निर्मित होने वाली इन स्थितियों को आंबेडकर ने 1956 में ही भांप लिया था। उन्होंने आगरा में भावुक होते हुए कहा था कि ‘उन्हें सबसे ज्यादा उम्मीद दलितों में पढ़े-लिखे बौद्धिक वर्ग से थी कि वे समाज को दिशा देंगे, लेकिन इस तबके ने हताश ही किया है। दरअसल, आंबेडकर का अंतिम लक्ष्य जातिविहीन समाज की स्थापना थी। जाति टूटती तो स्वाभाविक रूप से समरसता व्याप्त होने लग जाती, लेकिन देश की राजनीति का यह दुर्भाग्यपूर्ण पहलू रहा कि नेता जाति और वर्ग भेद को ही आजादी के समय से मुख्य हथियार बनाते रहे हैं।
जातिगत आरक्षण के संदर्भ में संविधान के अनुच्छेद 16 की जरूरतों को पूरा करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था है। मगर आरक्षण किसी भी जाति के समग्र उत्थान का मूल कभी नहीं बन सकता? आरक्षण के सामाजिक सरोकार केवल संसाधनों के बंटवारे और उपलब्ध अवसरों में भागीदारी से जुड़े हैं। इस आरक्षण की मांग शिक्षित बेरोजगारों को रोजगार और ग्रामीण अकुशल बेरोजगारों के लिए सरकारी योजनाओं में हिस्सेदारी से जुड़ गई हैं।
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निजी क्षेत्र में भी आरक्षण देने की मांग की जा रही है। परंतु जब तक सरकार समावेशी आर्थिक नीतियों को अमल में लाकर आर्थिक रूप से कमजोर लोगों तक नहीं पहुंचती, तब तक पिछड़ी या निम्न कही जाने वाली जाति या आय के स्तर पर पिछले छोर पर बैठे व्यक्ति के जीवन स्तर में सुधार नहीं आ सकता। यहां सवाल यह उठता है कि पूंजीवाद की पोषक सरकारें समावेशी आर्थिक विकास की पक्षधर क्यों होगी? यदि सरकारें समतामूलक व्यवस्था बनाती हैं, तो आरक्षण का औचित्य कम होगा और जातियां टूटने का रास्ता प्रशस्त होता चला जाएगा। जाति को संरक्षण देने की बजाय उसे तोड़ने की जरूरत है।