यह पहला अवसर था, जब 2010 में दक्षिण अफ्रीका के पूर्ण सदस्य बनने के बाद, ईरान, मिस्र, इथियोपिया तथा संयुक्त अरब अमीरात के रूप में चार नए सदस्य यानी कुल नौ सदस्य ब्रिक्स के शिखर वार्ता में शामिल हुए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधन में आह्वान किया कि अब ब्रिक्स को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, बहुपक्षीय विकास बैंक और डब्लूटीओ जैसे वैश्विक संस्थानों में सुधारों के लिए एकजुट होना होगा। साइबर सुरक्षा, सुरक्षित एआइ, आतंकवाद जैसी विश्वव्यापी समस्याओं का समाधान खोजना होगा। साथ ही, अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद पर संयुक्त राष्ट्र में मिलकर काम करने की भी उन्होंने अपील की। आर्थिक सहयोग बढ़ाने में ब्रिक्स व्यापार परिषद और ब्रिक्स महिला व्यापार गठबंधन की सबसे बड़ी भूमिका का भी उन्होंने उल्लेख किया।
रूस-यूक्रेन और इजराइल-हमास युद्ध के संबंध में प्रधानमंत्री ने ब्रिक्स नेताओं से कहा कि भारत युद्ध का नहीं, बल्कि बातचीत और कूटनीति का समर्थन करता है। जिस प्रकार हमने कोविड जैसी महामारी का मिलजुल कर मुकाबला किया, वैसे ही हम आपसी मेलजोल से भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित, मजबूत तथा समृद्ध भविष्य सुनिश्चित कर सकते हैं। भारत ने स्पष्ट किया कि वह रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध खत्म करने में हर संभव मदद के लिए तैयार है। यह रुख भारत की व्यापक विदेश नीति के अनुरूप है, जो गुटनिरपेक्ष रहते हुए संवाद को बढ़ावा देने और मध्यस्थता करने का प्रयास करती है।
पुतिन-जिनपिंग के साथ मोदी की वार्ता का विशेष महत्व
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ब्रिक्स शिखर सम्मेलन से इतर रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ हुई प्रधानमंत्री की द्विपक्षीय वार्ताओं का अपना विशेष महत्त्व है। रूसी राष्ट्रपति से मोदी की मुलाकात ऐसे समय में हुई, जब अमेरिका और कनाडा भारतीय एकता और अखंडता को चुनौती देने वाले खालिस्तानी आतंकियों के प्रति सहानुभूति दिखा रहे हैं। मगर पुतिन ने यह कहकर कि ‘प्रधानमंत्री मोदी के साथ हमारे संबंधों में अनुवादक की जरूरत नहीं है’, एक बार फिर से भारत के साथ अपने अटूट विश्वास का स्पष्ट संदेश दिया और भारत के ‘सदाबहार मित्र’ के रूप में अपनी भूमिका को उजागर किया।
आज की ताजा खबर
भारत और रूस के रिश्ते को ‘विशेष और विशेषाधिकार प्राप्त रणनीतिक साझेदारी’ के रूप में देखा जाता है। अभी यूक्रेन संघर्ष की वजह से रूस के पश्चिमी देशों से तनावपूर्ण रिश्ते हैं, मगर भारत ने आर्थिक और रणनीतिक मामलों में रूस के साथ व्यावहारिक दृष्टिकोण बनाए रखा है। विशेष रूप से, भारत रूसी तेल का एक महत्त्वपूर्ण खरीदार बनकर उभरा है और इससे रूस को अपनी अर्थव्यवस्था मजबूत बनाने में मदद भी मिली है। मगर रूस के प्रति झुकाव रखने से भारत को पश्चिमी देशों की नाराजगी मिली है, क्योंकि वे रूस की व्यापारिक क्षमताओं को सीमित करने की कोशिश कर रहे हैं। मगर भारत का रुख स्पष्ट है कि वह ऊर्जा की खरीद में अपने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देगा। भारत के इस दृष्टिकोण से रूस भी खासा प्रभावित रहा है।
2019 में मोदी-जिनपिंग की हुई थी मुलाकात
प्रधानमंत्री की चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ की हुई द्विपक्षीय वार्ता के बारे में कहा जा रहा है कि इससे दोनों देशों के बीच पिछले पांच वर्ष के गिले-शिकवे दूर हो गए हैं। इससे पहले दोनों नेता अक्तूबर, 2019 में महाबलिपुरम में मिले थे। उसके बाद चीन की ओर से बेवजह पूर्वी लद्दाख में 2020 में पैदा किए सीमा विवाद के बाद दोनों देशों के बीच कोई द्विपक्षीय वार्ता नहीं हुई। हालांकि, इससे दोनों देशों के बीच व्यापारिक संबंधों पर कोई आंच नहीं आई। वित्तवर्ष 2023-24 के दौरान भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार चीन था। पिछले वित्तवर्ष में भारत और चीन के बीच दोतरफा व्यापार करीब 118.4 अरब डालर का था। यह भारत और अमेरिका के दरम्यान हुए व्यापार (118.3 अरब डालर) की तुलना में थोड़ा अधिक है। हालांकि, अमेरिका वित्तवर्ष 2021-22 और 2022-23 के भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार था। भारत के निर्यात और आयात में बड़ा अंतर होने की वजह से चीन के साथ व्यापार घाटा भी बढ़ गया है।
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इसमें दो राय नहीं कि भारत-चीन संबंधों का महत्त्व केवल दो देशों तक सीमित नहीं है। वैश्विक शांति, स्थिरता तथा प्रगति के लिए भी समान रूप से महत्त्वपूर्ण है। इसलिए प्रधानमंत्री ने शी जिनपिंग से स्पष्ट कहा कि आपसी विश्वास, सम्मान तथा संवदेनशीलता ही दोनों देशों के बीच मजबूत संबंधों का आधार बन सकती है और जिनपिंग ने भी इसे स्वीकार किया। दोनों नेताओं ने एलएसी पर सैनिकों को पीछे करने को लेकर ताजा समझौते पर भी प्रसन्नता व्यक्त की। मगर सीमा विवाद सुलझाने की दिशा में एक शंका अब भी बनी हुई है कि भारत ने तो गश्ती का जिक्र अपने आधिकारिक बयान में किया है, लेकिन चीन ने इस पर चुप्पी साध रखी है।
चीन की कथनी और करनी में अंतर
चीनी राष्ट्रपति ने अतीत में दोनों देशों के बीच 1993, 1996, 2005 और 2013 में परस्पर भरोसा पैदा करने वाले समझौतों को पूरी तरह नजरअंदाज किया है। उन्होंने अपनी सेना को भारतीय दावे वाले इलाकों में अतिक्रमण करने का आदेश दिया, जिसके फलस्वरूप जून, 2020 में गलवान घाटी जैसी घटना घटी। भारत ने चीनी हठधर्मिता और उसके विस्तारवादी मंसूबों के ऐसे कई मामले देखे हैं। अतीत में एक ओर चीन बातचीत से समस्या के समाधान की बात करता है, तो दूसरी ओर एलएसी के निकट बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे का निर्माण करता रहा है, जिससे भारत को भी, सतर्कता के चलते, बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे का निर्माण करने को बाध्य होना पड़ा। इसलिए भारत सरकार और रक्षा बलों को एलएसी की हर गतिविधि पर कड़ी नजर रखने की दरकार होगी।
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कुल मिला कर भारत के लिए ब्रिक्स का महत्त्व क्वाड की भांति, चीन के विस्तारवादी रवैए को घटाने के लिए महत्त्वपूर्ण है। भारत अभी दुनिया का अकेला ऐसा देश है, जिसकी रूस के साथ-साथ अमेरिका, यूरोपीय संघ से भी समान मैत्री है, जबकि चीन के संबंध में ऐसा नहीं है। इस वजह से भी चीन की भारत के प्रति एक चिढ़ या कहें कि शंका इस रूप में है कि वैश्विक पटल पर भारत सभी देशों को एक साथ लेकर अपनी नित नई पहचान गढ़ और अपनी धाक जमा रहा है। इसीलिए चीन, संयुक्त राष्ट्र में सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का बराबर विरोध करता आया है, जबकि वीटो प्राप्त अन्य देश अमेरिका, रूस, ब्रिटेन तथा फ्रांस भारत का बराबर समर्थन करते रहे हैं।
भारत-रूस साझेदारी वैश्विक शक्तियों का बहुध्रुवीय दिशा
बहरहाल, ब्रिक्स में सदस्यों के विस्तार से निकट भविष्य में निस्संदेह इस समूह की राजनीति और कार्यशैली में अंतर पड़ेगा और ‘बहुपक्षवाद को मजबूत करने’ पर बल मिलेगा। कहना न होगा कि एक ओर जहां ब्रिक्स समूह का मजबूत होना और भारत-रूस साझेदारी का गहरा होना वैश्विक शक्तियों के बहुध्रुवीय दिशा में व्यापक बदलाव को इंगित करता है, वहीं भारत के ब्रिक्स के नए सदस्यों से मैत्रीपूर्ण संबंध रहे हैं। इसलिए आने वाले समय में भारत, ब्रिक्स को और बेहतर तरीके से नई दिशा और आकार देने के साथ उसके संचालन में सक्रिय भूमिका निभाएगा।
भारत के लिए ब्रिक्स का महत्त्व क्वाड की भांति, चीन के विस्तारवादी रवैए को घटाने के लिए महत्त्वपूर्ण है। भारत अभी दुनिया का अकेला ऐसा देश है, जिसकी रूस के साथ-साथ अमेरिका, यूरोपीय संघ से भी समान मैत्री है, जबकि चीन के संबंध में ऐसा नहीं है। इस वजह से भी चीन की भारत के प्रति एक चिढ़ या कहें कि शंका इस रूप में है कि वैश्विक पटल पर भारत सभी देशों को एक साथ लेकर अपनी नित नई पहचान गढ़ और अपनी धाक जमा रहा है।
