जलवायु संकट का सामना अब लगभग हर देश कर रहा है। इसके बावजूद दो सप्ताह तक चलने वाले जलवायु सम्मेलन की शुरुआत में ऐसा नहीं लग रहा कि इसके समाधान के लिए विकसित देश गंभीर हैं। यह आशंका इसीलिए और बढ़ गई है कि अब अमेरिका की सत्ता उन डोनाल्ड ट्रंप के पास होगी, जो जलवायु परिवर्तन की समस्याओं से निपटने से अपने पहले कार्यकाल में ही हाथ खींच चुके हैं। इसी का परिणाम है कि अजरबैजान के बाकू शहर में चल रहे सम्मेलन में देखा जा रहा है कि दुनिया के प्रमुख देश अपने वादे से मुकरते लग रहे हैं। ये वही पूंजीपति विकसित देश हैं, जो विकासशील और छोटे देशों को जीवाश्म ईंधन पर अंकुश लगाने के लिए आर्थिक सहायता की प्रतिबद्धता जता चुके हैं। बाकू में यह सम्मेलन इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि यहां दुनिया का पहला तेल कुआं खोदा गया था।
अमेरिका सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले देशों में प्रमुख हैं
संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में 2015 में हुए ऐतिहासिक पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते को बड़ा झटका लगा था। इस समझौते पर दुनिया के एक सौ पचहत्तर देशों ने हस्ताक्षर किए थे। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी आत्मकेंद्रित दृष्टि के कारण समझौते को खारिज कर दिया था। तब ये आशंकाएं उठी थीं कि वैश्विक समस्याओं पर आगे कोई सहमति नहीं बन पाएगी। इस नाते अमेरिका का इस वैश्विक करार से बाहर आना दुनिया के सुखद भविष्य के लिए बेहतर संकेत नहीं था। जबकि अमेरिका सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले देशों में प्रमुख हैं। 2020 में ट्रंप के सत्ता से बाहर हो जाने के बाद यह उम्मीद फिर से जगी थी कि जलवायु सुधार की दिशा में दुनिया आगे बढ़ेगी। पर अब ट्रंप फिर से राष्ट्रपति पद का चुनाव जीत गए हैं। इसलिए एक बार फिर आशंका जताई जाने लगी है कि ‘काप-29’ का किसी ठोस नतीजे पर पहुंचना मुश्किल है।
अपने औद्योगिक हितों की चिंता और चुनावी वादे की पूर्ति के लिए ट्रंप ने यह पहल की थी। दरअसल, ट्रंप अमेरिकी कंजर्वेटिव पार्टी के उस धड़े से सहमत थे, जो मानता था कि जलवायु संकट और बढ़ता वैश्विक तापमान एक थोथी आशंका है। इसमें कटौती से अमेरिका के औद्योगिक हित प्रभावित हो सकते हैं। वे देश की जीडीपी दर और आर्थिक संपन्नता घटने की बात भी कहते रहे हैं। इन्हीं धारणाओं के कारण ट्रंप ने चुनाव में ‘अमेरिका प्रथम’ और ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ का नारा दिया था। वर्ष 2024 में चुनाव जीतने के बाद एक बार फिर ट्रंप अमेरिका प्रथम का नारा लगा कर अपने हित संरक्षण की पहल कर चुके हैं। जबकि आर्थिक रूप से मजबूत देश होने के कारण अमेरिका को समूची धरती को बचाने के प्रयास में अहम भूमिका निभाने की जरूरत है।
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इटली में दुनिया के सबसे धनी देशों के समूह जी-7 की शिखर बैठक में भी पेरिस संधि के प्रति वचनबद्धता दोहराने के संकल्प पर ट्रंप ने हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था। साथ ही भारत और चीन पर आरोप लगाया था कि इन दोनों देशों ने विकसित देशों से अरबों डालर की मदद लेने की शर्त पर समझौते पर दस्तखत किए हैं। लिहाजा, यह समझौता अमेरिका के आर्थिक हितों को प्रभावित करने वाला है। यही नहीं, तब ट्रंप ने कहा था कि ‘भारत ने 2020 तक अपना कोयला उत्पादन दोगुना करने की अनुमति ले ली है। वहीं चीन ने कोयले से चलने वाले सैकड़ों बिजलीघर चालू करने की शर्त पर दस्तखत किए हैं। इसलिए मैं हर उस समझौते को तोड़ दूंगा, जिसमें अमेरिकी हितों का ध्यान नहीं रखा गया है।’
ट्रंप ने यहां तक कहा था कि संयुक्त राष्ट्र की ‘हरित जलवायु निधि’ अमेरिका से धन हथियाने की साजिश है।’ इस सोच ने जाहिर कर दिया था कि अमेरिका अब वैश्विक समस्याओं के प्रति उदार रुख नहीं अपनाएगा। इसलिए यह आशंका बढ़ गई है कि ट्रंप वैश्विक समस्याओं के निदान के प्रति उदार नहीं दिखाई देंगे। यहां यह स्पष्ट करना मुनासिब होगा कि पेरिस समझौते के बाद 2015 में भारत को हरित जलवायु निधि से कुल उन्नीस हजार करोड़ रुपए की मदद मिली, जिसमें अमेरिका का हिस्सा महज छह सौ करोड़ रुपए था। ऐसे में ट्रंप का यह दावा नितांत खोखला था कि भारत को इस निधि से अमेरिका के जरिए बड़ी मदद मिल रही है।
साफ है, अगर ट्रंप अपना पुराना रवैया अपनाते हैं, तो विकासशील देश वित्तीय संसाधनों के अभाव में कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने में कोई उल्लेखनीय पहल नहीं कर पाएंगे। वैश्विक वचनबद्धता के बावजूद विकसित देशों का कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए दिया योगदान जरूरत से बहुत कम है। 2022 में यह योगदान 115.9 अबर डालर था, जो बहुत कम माना गया, क्योंकि दुनिया को जलवायु परिवर्तन से जुड़े लक्ष्य हासिल करने हैं, तो प्रतिवर्ष 2030 तक एक लाख करोड़ धनराशि के योगदान की जरूरत पड़ेगी। वैसे भी इस समय अनेक विकासशील देश पूंजीपति देशों के कर्ज में फंसे हुए हैं। चीन ने जिन देशों को कर्ज दिया है, उनका तो बहुत बुरा हाल है। नतीजतन, 2011 से 2022 के बीच कर्ज के कुचक्र में फंसे देशों की संख्या 22 से बढ़ कर 59 हो गई है। इन देशों पर अपनी जीडीपी का 60 फीसद से अधिक कर्ज है। साफ है, इन देशों को ब्याज देने के लिए भी कर्ज लेना पड़ रहा है। ऐसे में ये देश पर्यावरण संरक्षण संबंधी प्रतिबद्धताओं को निभा नहीं पाएंगे।
अफ्रीका एक ऐसा देश है, जो विश्व का मात्र दो से तीन फीसद कार्बन उत्सर्जन करता है। इसके बावजूद जलवायु परिवर्तन की तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए ऊर्जा संकट से भी गुजर रहा है। इसलिए ऐसे देशों के लिए पर्यावरण संरक्षण के उपाय अपनाना कठिन है। दरअसल, चीन के बाद अमेरिका ऐसा राष्ट्र है, जो सर्वाधिक 16.4 फीसद कार्बन उत्सर्जन करता है। जून 2016 की विश्व ऊर्जा सांख्यिकी की समीक्षा के अनुसार तो चीन दुनिया में सर्वाधिक 27.3 फीसद कार्बन उत्सर्जन करता है। भारत महज 6.6 फीसद कार्बन उत्सर्जन में भागीदार है। ‘इंडिया स्पेंड’ की मई 2015 की रपट के मुताबिक भारत का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन में वैश्विक स्तर पर बीसवां हिस्सा है। जबकि दुनिया की आबादी का छठा हिस्सा भारत में रहता है। अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी और कनाडा के लोग भारत के लोगों की तुलना में पांच से बारह गुना ज्यादा प्रदूषण फैलाते हैं।
बाकू सम्मेलन में भारत फिर से जलवायु संकट से निपटने के लिए विकसित देशों की ओर से दी जाने वाली वित्तीय मदद का मुद्दा प्रमुखता से रखेगा। साथ ही गंभीर प्राकृतिक आपदाओं से जूझ रहे देशों की दिक्कतों को भी सामने लाएगा। इसके अलावा, भारत जलवायु परिवर्तन के प्रकोप को कम करने के लिए किए जा रहे उपायों, जैसे जीवाश्म र्इंधन के उपयोग में कमी लाने और ‘नेट जीरो’ आदि के लक्ष्य पर दुनिया के सभी देशों से आगे बढ़ने की अपील करेगा। पर ट्रंप अगर ‘अमेरिका प्रथम’ और संरक्षणवादी नीतियों को अपनाते हैं, तो जलवायु सम्मेलनों का कोई औचित्य ही नहीं रह जाएगा।