इस समय दस लाख से अधिक वन्यजीव प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर हैं। वर्तमान में पक्षियों की तकरीबन दस हजार जीवित प्रजातियां हैं, जिनमें से एक हजार चार सौ अस्सी विलुप्त होने को हैं और दो सौ तेईस गंभीर स्थिति में हैं। ‘स्टेट आफ इंडियाज बर्ड्स’ के मुताबिक कुछ ‘रैप्टर’ और बतखों की तादाद में सबसे ज्यादा कमी देखने को मिली है। इसी तरह भारतीय गौरैया और कठफोड़वा खत्म होने के कगार पर बताए जा रहे हैं। यों तो वन्य जीव-जंतुओं के विलुप्त होने का खतरा लंबे समय से मंडराता रहा है, लेकिन पिछली एक शताब्दी में विज्ञान के विकास के साथ वन्यजीवों पर खतरा बहुत तेजी से बढ़ा है।

जीव-जंतुओं की तस्करी और शिकार नहीं रुक रहा

आज के बदलते हालात में ग्लोबल वार्मिंग और ग्रीन हाउस गैसों से बढ़ती चुनौतियों की वजह से पक्षियों का संरक्षण बेहद मुश्किल होता जा रहा है। तरह-तरह की बीमारियां बढ़ रही हैं। वन्यजीवों को विलुप्त होने या शिकार से बचाने के लिए भारत में 1873 में वन्यजीव संरक्षण कानून बनाए गए थे, लेकिन उनसे भी वन्यजीवों, खासकर पक्षियों को शिकार से बचाने में मदद नहीं मिल पाती थी। जब देश आजाद हुआ तो 1952 में वन्यजीव बोर्ड की स्थापना की गई। फिर उसका पुनर्गठन 1991 में किया गया। बोर्ड के गठन के बाद वन्यजीवों के संरक्षण की कोशिशें तेज हुईं, फिर भी जीव-जंतुओं की तस्करी और शिकार पर पूरी तरह रोक नहीं लग पाई।

पिछली एक शताब्दी में तस्करी, शिकार और पारिस्थिकी-तंत्र के असंतुलन की वजह से अनेक दुर्लभ पक्षी भी धरती से हमेशा के लिए गायब हो गए। इसमें डोडो, कैरोलिना, तोता, यात्री कबूतर, हंसता हुआ उल्लू, लैब्राडोर बतख और दूसरे कई दुर्लभ पक्षी शामिल हैं।

ज्यादातर पक्षियों के खत्म होने के पीछे इंसान का हाथ

ज्यादातर पक्षियों के खत्म होने के पीछे इंसान का हाथ है। मसलन, दुनिया का इकलौता ‘राब्स फ्रीज-लिब्ड ट्री फ्राग-टफी’ मेढक 2016 में मर गया। उसे अटलांटा बोटेनिकल गार्डेन में रखा गया था। मगर उसके प्रजनन के लिए उसकी प्रजाति का कोई मेढक नहीं था। अब उसकी पीढ़ी धरती पर नहीं है। अफ्रीका में जेब्रा की एक उप-प्रजाति थी, जिसका नाम था क्वाग्गा।

उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक शिकारियों ने इनका इतना शिकार किया कि ये हमेशा के लिए विलुप्त हो गए। 1971 में इक्वाडोर में खोजा गया पिंटा आइलैंड टारटाय यानी कछुआ भी खत्म हो चुका है। दुनिया का आखिरी थाईलैसीन, जिसका नाम बेंजामिन था, जिसे तस्मानिया टाइडर कहते थे, वह भी 1936 में खत्म हो गया।

सबसे अधिक प्रजातियां अफ्रीका और दक्षिण एशिया की हैं

विलुप्त जीव-जंतुओं में पक्षी-वर्ग की विशेष प्रजातियां शामिल हैं। सबसे अधिक प्रजातियां अफ्रीका और दक्षिण एशिया के देशों में लुप्त हुई हैं। भारत में एक समय था, जब चिड़ियों की बारह सौ प्रजातियां पाई जाती थीं, लेकिन अब इनमें से पचास से अधिक प्रजातियां लुप्त हो गई हैं। एक अध्ययन के अनुसार पिछले पचास वर्षों में पक्षियों की सैकड़ों प्रजातियां धरती से लुप्त हो गईं और कई लुप्त होने के कगार पर हैं। गिद्ध और कठफोड़वा जैसे पक्षियों की प्रजातियां लुप्त हो गई हैं या लुप्त होने के कगार पर हैं। विकास संबंधी अस्थायी नीतियों और प्रकृति के प्रति बढ़ती असंवेदशीलता इसकी वजह बताई जा रही है।

आज भी भारत के कई पक्षीवास खतरे में हैं। इससे पक्षियों के लुप्त होने का खतरा बढ़ गया है। ‘बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी’ के ताजा अध्ययन में कहा गया है कि भारत के कम से कम दस जैव विविधता वाले इलाकों पर हमेशा के लिए लुप्त हो जाने का खतरा मंडरा रहा है। पक्षियों के महत्त्वपूर्ण वास-स्थानों को दुनिया भर में ‘आइबीए’ कहा जाता है। इनका संरक्षण भी चुनौतीपूर्ण हो गया है।

गोल्डन ईगल, बाज, गौर, गोडावन, सारस, तिलोर पर भी संकट

हिमालय के तलहटी क्षेत्र, पश्चिमी हिमालय के ऊंचे क्षेत्र, पूर्वी हिमालय का क्षेत्र, दक्षिण भारत तथा गंगा बेसिन क्षेत्र, भारतीय मरुस्थल थार रेगिस्तान, इंडोमलाया उपखंड जैसे क्षेत्रों में पाए जाने वाले अनेक पक्षियों के अस्तित्व पर खतरा उत्पन्न हो गया है। गोल्डन ईगल, बाज, गौर, गोडावन, सारस, तिलोर, हाक, निकोबारी कबूतर के अस्तित्व पर खतरा दिख रहा है। हिमाचल प्रदेश भारत का ऐसा हरियाली संपन्न प्रदेश है, जहां जैव विविधताएं मौजूद हैं। यहां पक्षियों की अनेक प्रजातियां निवास करती हैं। इनका संरक्षण लगातार चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। यहां पौंग बांध में हर साल मध्य एशिया और यूरोप की चौवन पक्षी प्रजातियां आती हैं।

चोरी छिपे पक्षियों का शिकार किए जाने से खतरा और बढ़ा

हिमालयी क्षेत्र में आने के कारण यहां का वातावरण हमेशा ठंडा बना रहता है। मगर बदलते मौसम, लोगों का कृत्रिमता की ओर अधिक झुकाव, प्रकृति के प्रति असंवेदनशीलता तथा चोरी-छिपे शिकार के कारण यहां के उद्यान के दुर्लभ पक्षियों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। राज्य सरकार इस ओर जागरूक जरूर है, लेकिन समस्या लोगों का पक्षियों के प्रति घटता प्यार है, जो इनके लिए संकट का कारण बन रहा है। इसलिए आम आदमी में हिंसा के बजाय अहिंसा और और क्रूरता के बजाय करुणा जैसे मूल्यों के प्रति जागरूक करना बेहद जरूरी है।

इसी प्रकार पक्षियों के संरक्षण के लिए केंद्रीय स्तर पर केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण की स्थापना वन्यजीव अधिनियम 1972 के अंतर्गत 1992 में की गई। इसका मकसद चिड़ियाघरों के कामकाज को देखना है। यह बारह सदस्यों वाली संस्था है। राज्य स्तर पर भी तकरीबन ऐसे ही संरक्षण बोर्ड बने हुए हैं, लेकिन इनकी सक्रियता के बारे में समय-समय पर सवाल उठते रहे हैं।

दुर्लभ प्रजातियों के संरक्षण के लिए विश्व स्तर पर वन्यजीवों की दुर्लभ प्रजातियों का अंतरराष्ट्रीय व्यापार समवाय भी बनाया गया है, जिसका कार्य संकटापन्न प्रजातियों के अवैध अंतरराष्ट्रीय व्यापार को रोकना है। भारत भी इसका सदस्य है। भारत ने इस बाबत अनेक जीव-जंतुओं की तस्करी पर रोक लगाने के लिए बड़े स्तर पर कदम उठाए हैं, लेकिन वे नाकाफी रहे हैं, क्योंकि पक्षियों और दूसरे वन्यजीवों की घटती संख्या और लुप्त होती पक्षी प्रजातियों के संरक्षण को मुकम्मल नहीं किया जा सका है। ऐसे में सवाल उठता है कि पक्षियों की घटती संख्या को कैसे रोका जा सकता है? क्या संरक्षण वाली परियोजनाओं को और सुधारने की जरूरत है या दूसरे स्तर पर भी कदम उठाए जाने चाहिए?

इसमें राष्ट्रीय स्तर के वन्य अभ्यारण्यों और उद्यानों के निर्धारित क्षेत्रफल को बढ़ाना और पक्षियों के संरक्षण के लिए बजट में और अधिक व्यय का प्रावधान, अवैध शिकार, सुरक्षा क्षेत्र को और बेहतर करना, दुर्लभ पक्षियों के संरक्षण पर और ध्यान देना, पर्यावरण को पक्षियों के अनुकूल बनाना, विकास की अंधी दौड़ में पक्षी उद्यानों के आसपास की रिहायशी बस्ती को हटाना या दूसरे स्थानों पर उद्यानों को स्थानांतरित करना, जल, भोजन और अन्य वातावरणीय समस्याओं को खत्म करके पक्षियों के वास के अनुकूल बनाना और शिकारियों को कठोर दंड देने के लिए मुफीद कानून बनाने से लेकर पक्षियों के प्रति लोगों में प्यार बढ़ाने जैसे कदम शामिल किए जाने चाहिए। पक्षियों को बचाने की चुनौती जानवरों से ज्यादा है। इसकी वजह उनका एक ठिकाना न होना है।