हालांकि भारत अब भी इस बात को लेकर दृढ़संकल्प है और मजबूती से महसूस करता है कि परमाणु हथियारों से मुक्त दुनिया में ही उसके राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े हित सबसे अच्छी तरह सुनिश्चित हो सकते हैं। मगर उभरती भू-राजनीतिक गतिशीलता कुछ इस तरह की है कि उसमें उसे अपनी रक्षा तैयारियों को पुख्ता करने की जरूरत है। ‘पोखरण-दो’ के बाद भारत की जिम्मेदारियां बढ़ गई थीं, इसलिए जब उसने 2003 में अपने परमाणु सिद्धांत को औपचारिक रूप दिया, तो उसने स्पष्ट रूप से कुछ सिद्धांत भी बनाए, जिनके आधार पर भविष्य की कार्रवाई हो सकती है। भारत ने अपने परमाणु सिद्धांत के एक प्रमुख स्तंभ के रूप में प्रस्ताव रखा कि वह परमाणु हथियारों का ‘पहले उपयोग नहीं करेगा’।
गैर-परमाणु हथियार संपन्न देशों के खिलाफ परमाणु हथियारों का इस्तेमाल नहीं
इसका मतलब है कि भारत परमाणु हथियार संपन्न देशों के खिलाफ परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करने वाला वह पहला देश नहीं होगा और इसने इस बात पर भी जोर दिया कि गैर-परमाणु हथियार संपन्न देशों के खिलाफ वह परमाणु हथियारों का इस्तेमाल कभी नहीं करेगा। भारत के परमाणु सिद्धांत में ‘त्रिकोणीय’ क्षमता हासिल करने की भी बात कही गई है, जिसका अर्थ है कि वह अपनी परमाणु अभिरक्षा क्षमता बढ़ाने के लिए तीनों चरणों- जल, थल और वायु आधारित संपत्तियां हासिल करेगा।
यहां यह बात जोर देकर कही जानी चाहिए कि भारत के ‘पहले उपयोग न करने’ के सिद्धांत को पूरा करने के लिए उसे एक मजबूत और ठोस समुद्र आधारित परमाणु अभिरक्षा ढांचे की जरूरत थी। किसी भी संभावित घटना की स्थिति में थल और जल आधारित, दोनों ही संपत्तियां अत्यधिक असुरक्षित रहती हैं। यों भी, विश्वसनीय समुद्र आधारित क्षमता ही दूसरी मारक क्षमता प्रदान कर सकती है। इसी संदर्भ में भारत ने परमाणु ऊर्जा से चलने वाली पनडुब्बी हासिल करने की दिशा में तेजी से कदम बढ़ाया। हालांकि ‘एडवांस्ड टेक्नोलाजी वेसल’ (एटीवी) के तहत यह परियोजना 1980 के दशक की शुरुआत में बहुत पहले शुरू हो गई थी। विश्वसनीय समुद्र आधारित अभिरक्षा क्षमता हासिल करने में भारत के प्रयासों में बढ़ोतरी मुख्य रूप से ‘पोखरण- दो’ के बाद हुई।
आइएनएस अरिहंत को 2016 में नौसेना में शामिल किया गया था
भारत की दूसरी परमाणु ऊर्जा से चलने वाली बैलिस्टिक मिसाइल पनडुब्बी आइएनएस अरिघात का जलावतरण भारत की अपनी अभिरक्षा क्षमता को मजबूत बनाए रखने और रखरखाव के प्रति प्रतिबद्धता और समर्पण का परिणाम है। इसके पहले आइएनएस अरिहंत को 2016 में नौसेना में शामिल किया गया था, जो साढ़े सात सौ किलोमीटर तक मार करने वाली सागरिका (के-15) ‘सबमरीन लांच बैलिस्टिक मिसाइल’ यानी एसएलबीएम से लैस है। भारत के पड़ोस में भू-राजनीति के उभरते आयामों को देखते हुए यह निश्चित रूप से पर्याप्त नहीं था, इसलिए भारत को लंबी दूरी की एसएलबीएम के अलावा परमाणु ऊर्जा से चलने वाली पनडुब्बी का बेहतर संस्करण हासिल करने की दिशा में आगे कदम बढ़ाना पड़ा।
आयाम और इस्तेमाल किए जाने वाले रिएक्टर के संदर्भ में तुलना करें तो, आइएनएस अरिहंत और आइएनएस अरिघात दोनों में कई समानताएं हैं। केवल इसके तकनीकी पहलुओं पर कई महत्त्वपूर्ण सुधार किए गए हैं। स्वदेशी तरीके से विकसित तकनीकी में यह परिष्कार कर भारत ने दुनिया के समक्ष साबित कर दिया है कि वह दुनिया के किसी भी देश के समर्थन और सहयोग के बिना आयुध उपलब्धियां हासिल कर सकता है।
हिंद महासागर में चीन की बढ़ती पैठ और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उसके आक्रामक रुख को देखते हुए भारत के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा का समुद्री आयाम हमेशा से एक महत्त्वपूर्ण मसला रहा है। चीन लगातार समुद्री क्षेत्र में स्थिति को बदलने का प्रयास कर रहा है।
हिंद महासागर का चालीस फीसद जल भाग भारत के हिस्से में आता है। भारत के हितों को सुरक्षित और अधिक से अधिक संरक्षित करने की आवश्यकता है। निस्संदेह, भारत द्वारा आइएनएस अरिघात को संचालित करने से उसे अपनी समुद्री सुरक्षा को मजबूत बनाने में मदद मिलेगी और हिंद प्रशांत क्षेत्र (आइपीआर) में अभिरक्षा क्षमताओं को हासिल करने में भी आसानी होगी। क्षेत्र में स्थिरता लाने को लेकर आइपीआर कई चुनौतियों का सामना कर रहा है। दक्षिण पूर्व और दक्षिण प्रशांत के साथ-साथ हिंद महासागर के सारे तटवर्ती देश चीन से अपने हितों की सुरक्षा को लेकर भारत की तरफ नजर गड़ाए हुए हैं।
भारत को अपनी समुद्र आधारित परिसंपत्तियों पर ध्यान केंद्रित रखते हुए त्रिकोणीय क्षमता को मजबूत करने के अलावा अपनी समुद्री क्षमताओं को भी बढ़ाने की आवश्यकता है। आइएनएस अरिघात भारत के परमाणु त्रिकोण में एक दुर्जेय रणनीतिक परिसंपत्ति है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत के हितों की रक्षा के लिए आइएनएस अरिघात जो सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकेगा, वह यह कि इसमें गश्त लगाने की क्षमता है। हिंद प्रशांत क्षेत्र में बढ़ी भू-राजनीतिक गतिशीलता के चलते भारत के लिए एक मजबूत और विश्वसनीय समुद्र आधारित परमाणु अभिरक्षा की जरूरत रेखांकित हुई है। भारत में आए इस बदलाव का विश्लेषण चीन की नौसैनिक क्षमताओं के संदर्भ में भी किया जाना चाहिए।
चीन के पास वर्तमान में छह ‘आपरेशनल जिन क्लास’ (टाइप 094) बैलिस्टिक मिसाइल पनडुब्बियां हैं। वह अपनी परमाणु ऊर्जा चालित बैलिस्टिक मिसाइल पनडुब्बियों को उन्नत जेएल-3 एसएलबीएम से भी लैस कर रहा है। ऐसा लगता है कि जेएल-3 की अनुमानित मारक क्षमता दस हजार किलोमीटर से अधिक है और इसमें बहुस्तरीय युद्धक परमाणु हथियार ले जाने की भी क्षमता है।
दूसरी ओर भारत के आइएनएस अरिघात में चार ‘लांच ट्यूब’ हैं। इसमें 750 किलोमीटर की मारक क्षमता वाली 12 के-15 सागरिका एसएलबीएम या 3,500 किलोमीटर की मारक क्षमता वाली चार के-4 एसएलबीएम ले जाने की क्षमता है। यह तकनीकी परिष्कार पूरी तरह स्वदेशी तरीके से किया गया है। रणनीतिक रूप से, भारत चीन के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं करना चाहता, क्योंकि चीन की आकांक्षाएं अलग हैं। भारत को केवल चीन को रोकने और उससे रक्षा करने की जरूरत है। चीन मुख्य रूप से दक्षिण चीन सागर और उसके बाहर अपने प्रभुत्व का दावा पुख्ता करने के लिए अधिक उन्नत परमाणु ऊर्जा चालित पनडुब्बियों का निर्माण कर रहा है।
भारत मुख्य रूप से अपनी अभिरक्षा क्षमताओं को बढ़ाने और अपने समुद्री हितों की रक्षा के लिए अपनी तीसरी परमाणु ऊर्जा चालित पनडुब्बी आइएनएस अरिदमन के विकास पर काम कर रहा है। हालांकि, भारत का बेड़ा छोटा लगता है, लेकिन इसकी पनडुब्बियों का तकनीकी परिष्कार, चाहे वह आइएनएस अरिहंत हो या आइएनएस अरिघात, बहुत बेजोड़ है। इन तब्दीलियों के माध्यम से, भारत निश्चित रूप से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में एक दुर्जेय खिलाड़ी के रूप में उभरेगा और चीन की आक्रामक मुद्रा के बावजूद इस क्षेत्र को अत्यधिक स्थिर बनाने और सभी देशों के हितों की रक्षा करने में मदद करेगा। निकट भविष्य में हिंद-प्रशांत क्षेत्र को स्थिर और समावेशी बनाने में भारत की भूमिका और महत्त्वपूर्ण हो जाएगी।
(लेखक स्कूल आफ इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनयू में प्रोफेसर हैं।)