कुछ समय पहले एक अध्ययन में यह सामने आया है कि दक्षिण भारत के विद्यार्थी जहां विज्ञान विषय को प्राथमिकता देते हैं, वहीं उत्तर भारत के विद्यार्थी कला वर्ग के विषयों में ज्यादा रुचि लेते हैं। केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की ओर से कराए गए अध्ययन के अनुसार, वर्ष 2022 में कक्षा 11-12 के विभिन्न राज्य शिक्षा मंडलों से प्राप्त आंकड़ों से पता चलता है कि तमिलनाडु, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में क्रमश: 1.53, 2.01 और 2.19 फीसद विद्यार्थियों ने कला के विषयों को महत्त्व दिया। जबकि पश्चिम बंगाल, पंजाब, हरियाणा, गुजरात और झारखंड में विज्ञान विषय क्रमश: 13.42, 13.71, 15.63, 18.33 और 22.9 फीसद विद्यार्थियों की पहली पसंद रहा। इसके ठीक विपरीत कला को गुजरात में 81.5 फीसद, बंगाल में 78.94, पंजाब में 72.89, हरियाणा में 76.76 और राजस्थान में 71.23 फीसद विद्यार्थियों ने प्राथमिकता दी।
मौलिक आविष्कार के क्षेत्र में पेटेंट की संख्या बढ़ने की गति धीमी
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद यानी एनसीईआरटी का सहयोगी विभाग ‘परख’ इन आंकड़ों का सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक विश्लेषण करेगा। मगर समाज और शिक्षा शास्त्रियों को भी इन आंकड़ों पर विचार करने की जरूरत है। एक ऐसे समय में, जब विज्ञान व तकनीक व्यक्ति और समाज को हर स्तर पर प्रभावित कर रहे हैं और कृत्रिम बुद्धिमत्ता का हस्तक्षेप निरंतर बढ़ रहा हो, तब विज्ञान और कला विषयों को लेकर यह अनुपात चिंताजनक क्यों है? यह विसंगति इस तथ्य को भी दर्शाती है कि भारत में वैज्ञानिकों की कमी के मूल में क्या कारण है और मौलिक आविष्कार के क्षेत्र में पेटेंट की संख्या बढ़ने की गति धीमी क्यों है।
पुणे की राष्ट्रीय रसायन प्रयोगशाला में 123 वैज्ञानिकों के पद खाली
विज्ञान के क्षेत्र को प्रोत्साहित करने की सरकार की अनेक कोशिशों के बावजूद देश के लगभग सभी शीर्ष संस्थानों में वैज्ञानिकों की कमी बनी हुई है। वर्तमान में देश के सत्तर प्रमुख शोध-संस्थानों में 3200 वैज्ञानिकों के पद खाली हैं। बंगलुरु के वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआइआर) से जुड़े संस्थानों में सबसे ज्यादा 177 पद रिक्त हैं। पुणे की राष्ट्रीय रसायन प्रयोगशाला में 123 वैज्ञानिकों के पद खाली हैं। देश के इन संस्थानों में यह स्थिति तब है, जब सरकार ने पदों को भरने के लिए कई आकर्षक योजनाएं शुरू की हैं।
नौकरशाही की गलत कार्यप्रणाली भी अविश्वास पैदा कर रही है
इनमें शोध के लिए सुविधाओं का भी प्रावधान है। साथ ही विदेश में कार्यरत वैज्ञानिकों को स्वदेश लौटने पर आकर्षक वेतन-भत्ते के प्रस्ताव दिए जा रहे हैं। इसके बावजूद न तो विद्यार्थियों में वैज्ञानिक बनने की रुचि पैदा हो रही है और न ही विदेश से वैज्ञानिकों के लौटने का सिलसिला शुरू हो पाया है। इसकी पृष्ठभूमि में एक तो वैज्ञानिकों में यह भरोसा पैदा नहीं हो रहा है कि जो प्रस्ताव दिए जा रहे है, वे निरंतर बने रहेंगे, दूसरे, नौकरशाही की ओर से कार्यप्रणाली में अड़ंगों की प्रवृत्ति भी विश्वास पैदा करने में बाधा बन रही है।
मौजूदा परिदृश्य में कोई भी देश वैज्ञानिक उपलब्धियों से ही सशक्त और सक्षम बन सकता है। मानव जीवन को भी यही उपलब्धियां सुखद और समृद्ध बनाए रखती हैं। भारत में युवा प्रतिभाओं या शिक्षित बेरोजगारों की भरमार है, इसके बावजूद वैज्ञानिक बनने या मौलिक शोध में रुचि लेने वाले युवाओं की संख्या कम है। इसकी प्रमुख वजहों में एक तो यह है कि वैज्ञानिकों को हम खिलाड़ी, अभिनेता, नौकरशाह और राजनेताओं की तरह आदर्श नहीं बना पा रहे हैं। कई स्तर पर विज्ञान से ज्यादा महत्त्व खेल को दिया जाता है। तवज्जो न मिलना भी वैज्ञानिक प्रतिभाओं के पलायन का एक बड़ा कारण है। जाहिर है, हमें ऐसा माहौल रचने की जरूरत है, जो मौलिक अनुसंधान एवं शोध-संस्कृति का पर्याय बने।
इसके लिए हमें उन लोगों को भी महत्त्व देना होगा, जो अपने देशज ज्ञान के बूते आविष्कार में तो लगे हैं, लेकिन अकादमिक ज्ञान न होने के कारण उनके आविष्कारों को वैज्ञानिक मान्यता नहीं मिल पाती है। दरअसल, हमारे यहां विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सरकार का प्रभुत्व है, लिहाजा उसमें जोखिम उठाने की इच्छाशक्ति का अभाव है। जबकि, वैज्ञानिक अनुसंधानों की बुनियाद कल्पनाशीलता और पारदर्शिता पर टिकी होती है, जिसे बिना जोखिम उठाए अंजाम तक नहीं पहुंचाया जा सकता।
आज वैश्वीकरण के दौर में विज्ञान एवं तकनीकी के क्षेत्र में अनुसंधान और विकास बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। मगर उदारवादी अर्थव्यवस्था का दूसरा दुखद पहलू यह है कि हमारे उच्च दर्जे के विज्ञान शिक्षा संस्थान प्रतिभाओं को आकर्षित ही नहीं कर पा रहे हैं। हमारी ज्यादातर प्रतिभाएं या तो विदेश पलायन कर जाती हैं या इंजीनियरिंग के साथ एमबीए करके निजी बैंकों, बीमा कंपनियों या अन्य प्रबंधन संस्थानों से जुड़ जाती हैं। यानी जो प्रतिभावान लोग बुनियादी शिक्षा हासिल किए होते हैं, वे उसके विपरीत कार्य-संस्कृति में काम करने को विवश होते हैं। क्या यह विरोधाभासी कार्य संस्कृति प्रतिभा के साथ छल नहीं है?
एक समय था जब विज्ञान संस्थानों में धन की कमी थी। मगर, अब इन संस्थानों के पास धन और संसाधनों की कमी नहीं रह गई है। बावजूद इसके, युवा विज्ञान से किनारा कर रहे हैं तो हमारी वैज्ञानिक कार्य-संस्कृति में ही कहीं कोई कमी हो सकती है। आज जो शोध हो रहे हैं, उनमें पूर्व में हो चुके कार्यों को अदल-बदल कर दोहराए जाने की प्रवृत्ति ज्यादा दिखती है, जो वास्तव में चिंताजनक है। दुनिया के शीर्ष दो सौ विश्वविद्यालयों में भारत के संस्थान आज भी जगह तलाश रहे हैं।
यहां गौरतलब है कि वर्ष 1930 में जब भारत में फिरंगी हुकूमत थी, तब देश में वैज्ञानिक शोध का बुनियादी ढांचा न के बराबर था। विचारों को रचनात्मकता देने वाला साहित्य भी अपर्याप्त था। अंग्रेजी शिक्षा भी शुरुआती दौर में थी। बावजूद इसके सीवी रमन ने साधारण देसी उपकरणों के सहारे देशज ज्ञान व भाषा को आधार बनाकर काम किया और भौतिक विज्ञान में देश को नोबेल दिलाया। सत्येंद्र नाथ बसु ने आइंस्टीन के साथ काम किया। मेघनाद साहा, रामानुजन, पीसी रे और होमी जहांगीर भाभा ने अनेक उपलब्धियां हासिल कीं। एपीजे अब्दुल कलाम और के. शिवम जैसे वैज्ञानिक भी मातृभाषा में आरंभिक शिक्षा लेकर महान वैज्ञानिक बने हैं।
जगदीशचंद्र बसु ने पेड़ों में जीवन की खोज खुद के बनाए उपकरणों से करके दुनिया को आश्चर्य में डाल दिया था। मगर अब उच्च शिक्षा में तमाम गुणवत्तापूर्ण सुधार होने के बावजूद इस तरह की नई उपलब्धियां हासिल कर पाना मुमकिन नहीं हो रहा है। विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्र में हम पश्चिम के प्रभुत्व से छुटकारा नहीं पा रहे। हालांकि भारत के अंतरिक्ष अभियान इस दिशा में एक अपवाद के रूप में सामने आए हैं, जिनमें स्वदेशी तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है।
दरअसल, बीते 75 वर्षों में हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसी अवधारणाओं का शिकार भी हो रही है, जिसमें समझने-बुझने व तर्कशीलता की बजाय रटने की पद्धति विकसित हुई है। दूसरे, संपूर्ण शिक्षा को विचार व ज्ञानोन्मुखी बनाने की बजाय नौकरी अथवा करिअर उन्मुखी बना दिया गया है। हमारी शिक्षा पद्धति में कल्पनाशील वैचारिक स्रोतों को तराशने का अध्यापकीय कौशल भी कमोबेश नदारद है। अंग्रेजी का दबाव भी नैसर्गिक प्रतिभाओं को कुंठित कर रहा है। अमेरिका, रूस, चीन और जापान जैसे जिन देशों से हम वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में पिछड़ रहे हैं, उनसे हमें सबक लेने की जरूरत है कि उनकी विज्ञान व तकनीकी शिक्षा के माध्यम अपनी मातृभाषाएं हैं।
वहां अनुसंधान और आविष्कार के काम विश्वविद्यालय स्तर पर ही शुरू हो जाते हैं। अगर कोई गैर अकादमिक शिक्षा प्राप्त व्यक्ति किसी आविष्कार को साकार रूप देता है, तो उसकी उपलब्धि को विज्ञान शोध संस्थान हाथों-हाथ ले लेते हैं। जबकि हमारे यहां ऐसे कार्यों को प्रोत्साहन देने या मान्यता देने की कार्य-संस्कृति का अभाव है। देश में जब तक वैज्ञानिक कार्य-संस्कृति के अनुरूप माहौल नहीं बनेगा, तब तक दूसरे देशों से प्रतिस्पर्धा में आगे निकलना मुश्किल है। साथ ही हमारी युवा प्रतिभाएं भी वैज्ञानिक बनने की दिशा में आगे नहीं बढ़ पाएंगी। विज्ञान विषय में अरुचि को दर्शाने वाला अध्ययन इस तथ्य का प्रमाण है।
