नेपाल में सरकारों का बदलना कोई नई बात नहीं। मगर वहां किसी एक गठबंधन का कार्यकाल पूरा करना भी मुश्किल है। बीस महीनों के बाद ही नेपाल में एक बार फिर सरकार बदल गई है। अब माओवादी नेता पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ की जगह केपी शर्मा ओली नेपाल के प्रधानमंत्री बन गए हैं। गठबंधन में विचारधारा पीछे रहती है और सरकार में शामिल राजनीतिक दल अपने-अपने हित साधने में लगे रहते हैं। दूसरे दलों के समर्थन पर टिकी सरकार पर दबाव रहता है, लेकिन प्रतिरोध और समझौते के पहियों से सरकार चलती रहती है। अब केपी शर्मा ओली की पार्टी एनसीपी (यूएमएल) समर्थन की जगह सरकार का नेतृत्व कर रही है। अभी तक विपक्ष में बैठने वाली नेपाली कांग्रेस, एनसीपी (यूएमएल) को समर्थन दे रही है। यह गठबंधन कितने समय तक चलेगा, देखने की बात है।
देश में 1990 से ही अस्थिर सरकारों का दौर शुरू हो गया था
नेपाल में अस्थिर सरकारों का दौर तभी शुरू हो गया था, जब 1990 में पंचायत व्यवस्था की औपचारिक समाप्ति हुई। नवंबर 1990 में नया संविधान बना और नेपाली कांग्रेस के नेता केपी भट्टराई के नेतृत्व में अंतरिम सरकार बनी थी। देश में 1959 के बाद, 1991 में बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था के अंतर्गत चुनाव कराए गए। कुल 205 संसद प्रतिनिधियों में से नेपाली कांग्रेस को 112 सीटों पर विजय मिली थी। गिरिजा प्रसाद कोइराला प्रधानमंत्री बने, लेकिन नेपाली कांग्रेस की अंदरूनी कलह के चलते चार साल से पहले ही यह सरकार गिर गई और देश फिर चुनाव के लिए बाध्य हुआ।
तय अवधि से अट्ठारह महीने पहले, नवंबर 1994 में फिर चुनाव हुआ, लेकिन किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। 88 सीटों के साथ एनसीपी (यूएमएल) के मनमोहन अधिकारी अल्पमत सरकार के प्रधानमंत्री बने और नौ महीने बाद ही वह सरकार गिर गई। यह नेपाल में पहली कम्युनिस्ट सरकार थी। उसके बाद सितंबर 1995 में नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व में सद्भावना पार्टी और राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक पार्टी के सहयोग से नई सरकार बन गई। 1999 के चुनाव में नेपाली कांग्रेस को बहुमत मिला था, मगर राजा ज्ञानेंद्र ने अक्तूबर, 2002 में प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा को हटा कर संसद को भंग करके सत्ता की कमान अपने हाथ में ले ली थी।
1991 के बाद राजनीतिक अस्थिरता और भ्रष्टाचार से आम लोग दुखी थे। युवा देख रहे थे कि अस्थिर सरकारों के कारण आर्थिक विकास नहीं हो पा रहा और रोजगार के अवसर नहीं खुल रहे हैं। इसी बीच फरवरी 1996 में पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ और बाबू राम भट्टराई ने छोटे-छोटे कम्युनिस्ट समूहों को मिला कर कम्युनिस्ट पार्टी नेपाल (माओवादी ) का गठन किया और राजशाही के विरुद्ध ‘सशस्त्र जनयुद्ध’ की घोषणा कर दी। बैंक, सरकारी दफ्तर, स्कूल आदि पर नियंत्रण के साथ माओवादी अपना विस्तार करते जा रहे थे और पश्चिमी नेपाल में उन्हें ग्रामीण लोगों का अच्छा समर्थन मिल रहा था। 1996 से 2006 के बीच सेना और पुलिस के साथ माओवादियों की गोलाबारी रोज की खबर थी। इस जनयुद्ध में लगभग तेरह हजार लोगों की जान गई। 2002 के बाद राजनीतिक दलों और राजा ज्ञानेंद्र के बीच मतभेद उभरने लगे। माओवादियों की राजशाही हटाने की मांग और हमले जारी रहे।
24 अप्रैल, 2006 को राजा ज्ञानेंद्र ने भंग हुई संसद को बहाल करने की घोषणा के साथ, देश के सात प्रमुख राजनीतिक दलों के संगठन से देश की एकता और समृद्धि के लिए कार्य करने का अनुरोध किया। नेपाली कांग्रेस के नेता गिरिजा प्रसाद कोइराला एक बार फिर प्रधानमंत्री बने और राजनीतिक दलों के बीच चुनाव कराने और नए संविधान बनाने पर भी सहमति बनी। नई सरकार ने कुछ ही दिनों बाद राजा के प्रमुख अधिकारों में कटौती कर दी। 21 नवंबर, 2006 को गिरिजा प्रसाद कोइराला के नेतृत्व वाली सात दलों की सरकार और नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के बीच शांति समझौते पर हस्ताक्षर हुए और फिर माओवादी मुख्यधारा की राजनीति में वापस लौट आए।
नेपाल में लंबे राजनीतिक और सशस्त्र संघर्ष के बाद 2008 के अप्रैल में, संविधान सभा के चुनाव हुए, जिसमें माओवादियों को सबसे अधिक सीटें मिलीं, लेकिन उनको स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। मई 2008 में राजशाही की औपचारिक विदाई हो गई और नेपाल को एक संघीय गणराज्य के रूप में मान्यता दे दी गई। जुलाई, 2008 में रामबरन यादव देश के पहले राष्ट्रपति बने। उसी साल अगस्त में माओवादी नेता पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ मिली-जुली सरकार के प्रधानमंत्री बन गए। मगर मई 2009 में ही प्रचंड ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। इस तरह 2008 से 2013 के बीच दलों के पालाबदल खेल में अलग-अलग गठबंधन बने और देश को चार प्रधानमंत्री मिले। 2013 से 2017 के बीच चार प्रधानमंत्री और 2017 के चुनाव के बाद फरवरी 2018 से दिसंबर 2022 तक नेपाल में तीन प्रधानमंत्री बने।
आम चुनाव के बाद जनवरी, 2023 में फिर प्रचंड नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (यूएमएल) के समर्थन से प्रधानमंत्री बने, लेकिन फरवरी 2023 में ही उनकी सरकार ने मुख्य विपक्षी दल नेपाली कांग्रेस के सहयोग वाला गठबंधन बना लिया। नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (यूएमएल) ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया, लेकिन नेपाली कांग्रेस के सहयोग के कारण सरकार नहीं गिरी। मगर मार्च 2024 में प्रचंड ने एक बार फिर नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (यूएमएल) से हाथ मिला लिया और प्रधानमंत्री बने रहे। अब नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (यूएमएल) और नेपाली कांग्रेस एक साथ आ गए हैं और नए गठबंधन ने तीन बार प्रधानमंत्री रहे प्रचंड को सत्ता से बाहर कर दिया है।
नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा पांच बार प्रधानमंत्री रह चुके हैं। ऐसा लगता है कि देश में कौन, कब, किसके साथ सत्ता में भागीदार होगा, इसका कोई वैचारिक आधार या आर्थिक नीतियों से कोई लेना-देना नहीं है। 275 सदस्यों वाली नेपाली संसद अगर आम लोगों की बेहतरी के लिए गंभीर नहीं है, तो जनता को उसकी उपयोगिता पर संदेह होगा! राजनीतिक दलों की अगुआई में लोकतंत्र बहाली आंदोलन, जनयुद्ध, राजशाही का समापन, नया संविधान, सब कुछ हुआ, लेकिन ‘नउनो नेपाल’ के सपने का क्या हुआ?
कुछ लोग सोचते हैं कि राजशाही के समापन के बाद, राणा परिवारों की जगह, नए कुलीन सत्ता के प्रतिनिधि बन गए हैं और उनके बीच ही सत्ता का खेल चल रहा है! इस परिस्थिति में प्रमुख नेपाली राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी है कि वे याद करें कि 1991 से 2006 के बीच उन्होंने आम लोगों से किस तरह का नेपाल बनाने का वादा किया था। नेपाल की अर्थव्यवस्था पूरी तरह चौपट हो चुकी है। सत्ताधारी दल खुल कर भ्रष्टाचार में शामिल हैं। लोग परेशान हैं, मगर लोकतांत्रिक ढंग से चुने हुए नेता एक नए तरह की राजशाही चला रहे हैं।
अस्थिर राजनीतिक गठबंधन और अल्पकालिक सरकारों के अनुभव के साथ लोकतांत्रिक देश इस प्रावधान को अपना सकते हैं कि कानूनी रूप से कोई भी व्यक्ति दो बार से अधिक देश का प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति नहीं बन सकता है!