नस्लवाद हमारे औपनिवेशिक अतीत का एक ऐसा आईना है, जिसमें गुलामी और उपनिवेशवाद की विरासत आज भी मानव समाज को गहरे तक प्रभावित कर रही है। यह विरासत नस्लीय, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से हमारे जीवन में साझा हो रही है। गुलामी और उपनिवेशवाद ने पीढ़ियों से नस्लीय विरासत, परंपराओं, संस्कृति, मूल्यों और पहचान को धुंधला किया है। अश्वेत, अल्पसंख्यक, दलित और आदिवासी लोगों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण ने दासता और गुलामी को नए-नए रूपों में तर्कसंगत बना रखा है। अध्येता पश्चिमी प्रथाओं के समांतर भारत की अनूठी सांस्कृतिक पहचान फीकी पड़ने का खतरा बता रहे हैं। सदियों से विकसित हुई परंपराएं क्षणभंगुर आधुनिक रुझानों के लिए दरकिनार की जा रही हैं। भारत में आज भी अंग्रेजी आधिकारिक भाषा है। इससे उन तमाम भारतीयों को परेशानी हो रही है, जो अंग्रेजी नहीं जानते। प्रकारांतर से, यह एक ‘विचित्र तरह का अल्पसंख्यकवाद’ है।

पिछले पांच सौ वर्षों में नस्लवाद के कई रूप परिलक्षित होते रहे हैं। अहम सवाल यह है कि नस्लवाद की विचारधारा इतने लंबे समय तक क्यों चली आ रही है, जबकि अब हम जानते हैं कि एक ही मानव जाति है। इस प्रश्न के उत्तर में इतिहास के विभिन्न समयों और विभिन्न भौगोलिक स्थानों में नस्ल, राष्ट्रवाद और धर्म के बीच घनिष्ठ संबंध को समझना आवश्यक है। अगर हमें नस्लवाद के सार और शक्ति को समझना है, तो राष्ट्र और धर्म के साथ गहरे संबंध को भी समझना होगा।

उपनिवेशवाद मानव इतिहास का भयावह अध्याय है। दास व्यापार का अपराध और उसका प्रभाव आज भी अनसुलझा पड़ा है। इतिहास को मिटाना, आख्यानों को बदल कर लिखना और दासता के आंतरिक नुकसान को खारिज करना, विश्व मानवता के साथ धोखा है। शोषित दासता से प्राप्त लाभ और व्यापार को आधार देने वाली नस्लवादी विचारधाराएं अब भी दुनिया का पीछा कर रही हैं। चार शताब्दियों से अधिक समय से करोड़ों लोग इसका गहरा दंश झेल रहे हैं। महासागरों की क्रूर यात्राएं प्रभावित लोगों के जीवन से खेल रही हैं। परिवार बिखर रहे हैं। कई समुदाय पूरे के पूरे नष्ट होते जा रहे हैं। उन समुदायों को मानो पीढ़ियों की गुलामी में डाल दिया गया है। लालचवश नस्लवादी विचारधाराओं के रहते हालात को बदलना कठिन हो रहा है।

भारत में दलित-विरोधी नस्लवाद गंभीर सामाजिक समस्या है। जिन्हें पहले अछूत कहा जाता था, आज भी जाति व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर हैं और उन्हें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से भेदभाव तथा उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। दलितों को अक्सर गांवों के अलग-अलग हिस्सों में रहने के लिए मजबूर किया जाता और उच्च जाति के लोगों के साथ घुलने-मिलने या सार्वजनिक सुविधाओं का उपयोग करने की अनुमति नहीं होती है। उन्हें मंदिरों में प्रवेश करने, एक ही कुएं से पानी या एक ही दुकान में एक साथ चाय पीने की मनाही होती है। अक्सर कक्षाओं में दलित बच्चों को पीछे बैठने के लिए मजबूर किया जाता है। दलितों को निम्न-स्तरीय काम करने के लिए मजबूर किया जाता है और उन्हें समान काम के लिए कम वेतन दिया जाता है। उन्हें भूमि का स्वामित्व रखने या व्यवसाय शुरू करने से भी वंचित किया जाता है। उनके खिलाफ हिंसा और अत्याचार के मामले आम हैं, जिनमें बलात्कार, हत्या और संपत्ति को नुकसान पहुंचाना शामिल है। पुलिस अक्सर दलितों की शिकायतों को दर्ज करने या उन पर कार्रवाई करने से कतराती है।

दलित-विरोधी नस्लवाद की जड़ें जाति व्यवस्था में हैं, जो लोगों को जन्म के आधार पर विभिन्न सामाजिक समूहों में विभाजित करती हैं। यद्यपि भारत के संविधान ने जाति के आधार पर भेदभाव को गैरकानूनी घोषित कर रखा है। जमीनी स्तर पर दलित विरोधी नस्लवाद अभी भी व्यापक है। वर्ष 1807 में ब्रिटेन में दास व्यापार उन्मूलन अधिनियम पारित होने के कुछ साल बाद हेती पहला गुलामी मुक्त गणराज्य बना था, लेकिन गुलामी समाप्त होने के बाद भी, इसके पीड़ितों को मुआवजा नहीं दिया गया। कई मामलों में, पहले गुलाम बनाए गए लोगों को अपनी आजादी के लिए कीमत अदा करनी पड़ी है। अब गुलामी और उपनिवेशवाद की स्थायी विरासत पर नए सिरे से चिंतन का वक्त है। मुक्ति के लिए अब प्रभावित देशों की सरकारों, व्यवसायों और नागरिक समाज को नस्लवाद तथा भेदभाव के खिलाफ, मानवाधिकार के दायित्वों का पालन करते हुए साझा निर्णायक कदम उठाने होंगे। अतीत की गलतियों से निपटते हुए सभी के लिए सम्मान और न्याय का भविष्य बनाने की दिशा में वैश्विक पहलकदमी करनी होगी।

भारत में उपनिवेशवाद की विरासत में नस्लवाद, भेदभाव, सामाजिक-आर्थिक असमानताएं और सामाजिक बुनियादी ढांचे का खराब होना शामिल हैं। उपनिवेशवादी अपने फायदे के लिए उपनिवेशों की आबादी को दुनिया भर में ले गए। उपनिवेशवाद के दौरान, उपनिवेशों में जाति-आधारित पदानुक्रम बनाया गया। उपनिवेशवाद के दौरान, उपनिवेशों में धार्मिक हिंसा भी हुई। उपनिवेशवादियों ने भारत के धन और संसाधनों का शोषण किया। उपनिवेशवादियों ने भारतीयों को कम वेतन दिया और श्वेत सैनिकों से अलग रखा। उपनिवेशवादियों ने भारतीयों का इस्तेमाल अपने साम्राज्य के बाकी हिस्सों में किया। उपनिवेशवाद के दौरान, भारत में आर्थिक असमानता और गरीबी बढ़ी। भारतीय समाज का बुनियादी ढांचा खराब हो गया और पर्यावरण को भी क्षति पहुंची। उपनिवेशवाद के दौरान, भारत में स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा और सामाजिक न्याय तक पहुंच असमान रही।

राजनीतिक स्वतंत्रता और उपनिवेशवाद के उन्मूलन के प्रयासों का मतलब उपनिवेशवाद की बुराई का अंत नहीं है। स्वतंत्रता के साथ जिस विकास की उम्मीद की गई थी, वह कई पूर्व औपनिवेशिक देशों के लिए साकार नहीं हुआ। पर्यावरण-आपदा, आर्थिक पिछड़ापन, नस्लीय भेदभाव, स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा, सामाजिक न्याय तक असमान पहुंच के रूप में प्रकट खराब सामाजिक बुनियादी ढांचा उपनिवेशवाद के प्रभाव से मुक्त करने की आज भी विश्व-समाज को प्राथमिक जरूरत है। ऐतिहासिक और वर्तमान दोनों ही दृष्टि से उपनिवेशवाद ने नस्लवाद, नस्लीय भेदभाव, विदेशी लोगों के प्रति घृणा और उससे जुड़ी असहिष्णुता को जन्म दिया है।

दरअसल, नस्लवाद ने लोगों को अमानवीय बना दिया और हिंसा को उचित ठहराया, जो औपनिवेशिक युग का एक नियमित हिस्सा बन गया। गुलामी, जैसा कि हमने देखा है, विशेष रूप से हिंसक थी; लोगों को जिंदा जला दिया, नपुंसक बना दिया जाता था और गोरे लोगों के मनोरंजन के लिए प्रताड़ित किया जाता था। किसी भी तनाव के दौर में गैर-दास समाजों में भड़की हिंसा के बारे में कम ही लोग जानते हैं। इन वर्षों में उपनिवेशों में कई विद्रोह हुए। कानून के बाहर सजाएं दी गर्इं। औपनिवेशिक समाजों को आतंक के जरिए नियंत्रित किया जाता था और यह बीसवीं सदी तक जारी रहा। 1950 के दशक में हिंसा के सबूतों को ब्रिटिश सरकार की शर्मिंदगी से बचने के लिए दबाना पड़ा।