देश के विकास, दुनिया में सबल आर्थिक शक्ति बनने की दौड़ में भारत का पांचवें से तीसरे और तीसरे से पहले स्थान पर पहुंचने जैसे कुछ ऐसे सपने हैं, जिन्हें हम वर्षों से देखते आ रहे हैं। ऐसा हो सकेगा, इसकी घोषणाओं, दावों और फिर सफलता के आंकड़ों के प्रसारण में भी कोई कमी नहीं रहती। मगर फिर भी पाते हैं कि देश के आम आदमी की हालत यथास्थितिवाद से घिरी हुई है। विश्व के सूचकांक भी बताते हैं कि जहां तक भारत के आम आदमी की खुशहाली का प्रश्न है, वह दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले काफी पीछे है। ऐसा क्यों हुआ?

योजना से स्थगन तक: भारत की अधूरी घोषणाओं का सच

देश के कायाकल्प के लिए नई योजनाओं की घोषणाओं में तो कोई कमी नहीं रही। उसके लिए धनराशि आबंटित भी होती रही। महिलाओं की सुरक्षा के लिए नए कदम ही नहीं उठे, बल्कि आर्थिक जीवन में उनके आरक्षण का विधेयक भी पास हो गया। मगर फिर भी क्यों सब कुछ बार-बार अधबीच छूट जाता है? क्यों योजनाएं पूरी नहीं हो पातीं? क्यों नई सड़कें बनते-बनते अधूरी रह जाती हैं? क्यों दुर्घटनाओं के बावजूद भारत के रेल ढांचे को सुरक्षित कवच नहीं मिल पाता। कारण है, घोषणा के बाद उसे लागू करने में स्थगन। घोषणाओं की पूर्ति स्थगित हो जाती है। कहीं नौकरशाही बाधा बन जाती है, कहीं असाधारण मौसम, कहीं महामारी का प्रभाव और कहीं अपनी प्राप्त शिक्षा ही समयानुकूल नहीं रह जाती।

युग तेजी से बदल जाता है। डिजिटल से कृत्रिम मेधा तक का सफर तय कर लेता है। मगर औसत छात्र अपने आप को पुराने ढांचे के पाठ्यक्रम में ही घिरा पाता है। यह सब बदल दिया जाएगा, ऐसी घोषणाएं होती हैं, लेकिन लगता है कि इन्हीं अबूझ कारणों से स्थगित हो जाते हैं। बूझे हुए कारण तो साफ हैं, नौकरशाही, लालफीताशाही, रिश्वतखोरी और देश के कर्णधारों का दोरंगापन। मगर इसके साथ ही यह स्थगन संस्कृति हर योजना की लागत तो बढ़ा देती है और जिस परिकल्पना के साथ योजनाओं को शुरू किया जाता है, खत्म होते-होते उनकी लागत दोगुनी-चौगुनी हो जाती है। यह स्थगन संस्कृति की वह परोक्ष लागत है, जो देश को झेलनी पड़ रही है। स्थगन संस्कृति की प्रत्यक्ष लागत क्या है?

स्थगन की संस्कृति: न्यायपालिका की 75वीं वर्षगांठ पर राष्ट्रपति की चिंता

भारत की शीर्ष न्यायपालिका की पचहत्तरवीं वर्षगांठ पर राष्ट्रपति ने स्पष्ट कहा कि स्थगन की संस्कृति को खत्म करने के लिए कुछ नए प्रयास होने चाहिए। अभी बहुत कुछ करना बाकी है। केवल न्यायपालिका का दंड विधान, डेढ़ सदी के बाद लागू कर देने से बात नहीं बनेगी, जब तक कि उसकी दंड विधाओं को लागू करने के त्वरित प्रयासों को सोच-विचार में नहीं डाल दिया जाता। पिछले वर्ष भारतीय संसद में महिलाओं के लिए विशेष आरक्षण की व्यवस्था का विधेयक पारित हुआ, लेकिन उसका लागू होना अभी तक स्थगित है, क्योंकि कुछ तकनीकी और औपचारिक जमाबंदी अभी पूरी करनी है।

उसके बाद जब भारत की अदालतों में तारीख पर तारीख की उस स्थगन संस्कृति को बदलने का प्रयास किया गया, जिसमें बलात्कार और अपहरण जैसे बहुत गंभीर अपराध भी वर्षों लटके रहते हैं, तो पता चला कि इसके मूल में भी कायाकल्प के कुछ कदम उठाने पड़ेंगे। उन्हीं का आह्वान एक चुनौती के रूप में देश में किया जा रहा है।

प्रधान न्यायाधीश कहते हैं कि जिला स्तर पर अदालतों का बुनियादी ढांचा महिलाओं के अनुकूल करने की जरूरत है। अभी तो 6.7 फीसद अदालतों का बुनियादी ढांचा ही महिलाओं के अनुकूल है। उन्होंने कहा कि यह सुनिश्चित होना चाहिए कि हमारी अदालतें समाज के सभी सदस्यों के लिए सुरक्षित और सहज वातावरण प्रदान करें। आमतौर पर महसूस होता है कि कमजोर आदमी अदालतों में जाने से डरता है, क्योंकि वहां की परेशानी उसकी आर्थिक और सामाजिक सामर्थ्य से बाहर होती है। राष्ट्रपति ने कहा कि गांवों के लोग ऊपर से नीचे तक के सभी न्यायाधीशों को भगवान मानते हैं, क्योंकि उन्हें यहां न्याय मिलता है। कहावत मत भूलिए कि भगवान के यहां देर है, अंधेर नहीं। लेकिन राष्ट्रपति ने स्वयं सवाल किया कि यह देर कितनी लंबी है- 32 वर्ष, 20 वर्ष या 12 वर्ष।

राष्ट्रपति से लेकर प्रधान न्यायाधीश का विश्वास भारत की जनता में है और भारत की जनता का पूरा विश्वास अपने इन कर्णधारों में है। तो फिर ढांचे में परिवर्तन होना ही चाहिए। साक्ष्य और गवाहों से संबंधित मुद्दों को न्यायपालिका, सरकार और पुलिस प्रशासन द्वारा मिलकर सुलझाया जाना चाहिए। मगर ऐसा क्यों है कि नया दंडविधान लागू होने के बाद भी ऐसी नई सहयोगी भावना से मुकदमों के त्वरित निपटारों का प्रयास नहीं होता। बात वहीं की वहीं, स्थगन संस्कृति के घेरे में अटकी रह जाती है, जब सुनवाई के लिए अगली तारीख पड़ जाती है। सुनवाई की यह अगली तारीख केवल लंबित मुकद्दमों में नहीं, बल्कि आम आदमी को अपने जीवन में भी सप्राण नजर आती है।

उसके लिए छोटे-बड़े औपचारिक सरकारी फैसले आज भी दुरूह क्यों हैं? जबकि सरकार ने तो दफ्तरों को सहज कार्यव्यवस्था में बदल देने का प्रण किया है। बेशक डिजिटल व्यवस्था वहां आ गई है। इंटरनेट के सर्वरों से काम तेजी से होने लगा है, लेकिन ये सर्वर अक्सर बिगड़े क्यों रहते हैं?याद रखिए, कड़े कानून बना देने भर से इस पूरी स्थिति पर लगाम नहीं लग जाएगी। इसके लिए जरूरी है कि इस देश के प्रशासकों से लेकर शासक तक, कानून के रखवालों से लेकर कानून की राह पर चलने वालों के लिए यह सब आसानी से संभव हो सके। उनके लिए जगह-जगह अवरोध खड़े न हो जाएं। क्यों आम आदमी को यह महसूस होता है कि फाइल के नीचे चांदी के पहिए नहीं लगेंगे तो उसकी जिंदगी सही फैसला लेकर सही राह पर चलने से स्थगित रहेगी। प्रधान न्यायाधीश ने निचली अदालतों को आम आदमी के लिए सुविधाजनक बनाने की बात की है।

उसे उस चातुरी के हथकंडों से बाहर आने के लिए इन अदालतों को चलाने वालों के सामने यह गुजारिश की है, तो यह विनय कोई गलत नहीं है, क्योंकि आजादी की तीन चौथाई सदी गुजर जाने के बाद भी आम आदमी को क्यों लगता है कि वह एक स्थगित संस्कृति के चक्रव्यूह में घिरा हुआ है? अच्छी-भली योजनाएं छोटे-बड़े कारणों से स्थगित होती चली जाती हैं और उज्ज्वल सपने अंधेरे में डूबते चले जाते हैं। यह प्रवृत्ति पूरे देश के कार्य-व्यवहार को अपने घेरे में ले रही है। यह स्थगन की संस्कृति, ‘सब चलता है’ के चलंत वाक्य में क्यों तब्दील हो गई? आम आदमी, जिससे बेहतर जिंदगी के वादे किए गए थे, वह क्यों, जैसी जिंदगी है, उसी को स्वीकार कर जीने को मजबूर हो गया। अब अगर संदेश मिला है कि यह स्थगित संस्कृति और अगली तारीख पर काम कर देने के वादे नहीं रहेंगे, तो निश्चय ही एक नए भारत का निर्माण हो सकेगा, जो आम आदमी को भी अपने लिए बेहतर लगेगा।