मानसून का आगमन हो गया है। बंगलुरु और मुंबई सहित अनेक शहरों में मानसून पूर्व की बारिश होने लगी है। भारत एक कृषि प्रधान देश है। किसी भी कृषि प्रधान देश के लिए मानसून के दिनों में होने वाली बारिश महत्त्वपूर्ण होती है। आज भी भारतीय किसानों का एक बड़ा हिस्सा सिंचाई के लिए बरसाती पानी पर ही निर्भर है। आज जबकि दुनिया की आबादी का एक बड़ा हिस्सा शुद्ध पेयजल की नियमित आपूर्ति से वंचित है, तो बरसात का स्वागत किया जाना चाहिए। मानसून हमें वर्षा जल का संग्रह करने का अवसर देता है ताकि भविष्य की जरूरतों के लिए उस कीमती निधि को बचा सकें जिसके लिए रहीम ने बहुत पहले कह दिया था- ‘रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।’
मानसून का स्वागत किए जाने का तात्पर्य यह है कि हम बरसात के पानी के सदुपयोग और संरक्षण के प्रति सचेत हों और अपेक्षित तैयारियां रखें। दरअसल, देश में पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता के आंकड़ों को देखें, तो समझ में आता है कि वर्षा जल का संरक्षण क्यों आवश्यक है। कुछ समय पहले राज्यसभा में बताया गया था कि एक अध्ययन में वर्ष 2021 के लिए भारत में औसत प्रति व्यक्ति वार्षिक जल उपलब्धता 1386 घनमीटर आंकी गई जबकि वर्ष 2031 के लिए प्रतिव्यक्ति वार्षिक जल उपलब्धता 1387 घनमीटर रहने का अनुमान है। यह स्थिति चिंता पैदा करती है, क्योंकि 1700 घनमीटर से कम वार्षिक प्रतिव्यक्ति जल उपलब्धता को जल संकट की स्थिति माना जाता है। यों भी भारत में जल वितरण की स्थिति असमान है। कुछ क्षेत्रों में सामान्य तौर पर हमेशा जल की उपलब्धता बनी रहती है, जबकि कुछ इलाकों में, खासकर गर्मी के दिनों में, जरूरत के पानी के लिए भी हिंसक संघर्ष की नौबत आ जाती है। इसका कारण यह है कि भारत में जल संसाधनों की स्थिति एक समान नहीं है।
भारत में लगभग 71 फीसद जल संसाधन देश के 36 फीसद हिस्से में केंद्रित हैं
आंकड़े बताते हैं कि भारत में लगभग 71 फीसद जल संसाधन देश के 36 फीसद हिस्से में केंद्रित हैं जबकि देश के शेष 64 फीसद क्षेत्र में केवल 29 फीसद जल संसाधन हैं। यानी देश के एक बड़े हिस्से को अपनी जरूरत के पानी के लिए जल संग्रह की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे में बरसात का जो पानी व्यर्थ बह जाता है, उसे यदि सहेज लिया जाए, तो आबादी के एक बड़े हिस्से को जलसंकट के कारण होने वाली परेशानियों से बचाया जा सकता है। भारत में औसत वार्षिक वर्षा करीब 115 इंच होती है। मगर इस वर्षा का वितरण भी भारत के अलग-अलग भूभाग में समान नहीं है। महत्त्वपूर्ण यह है कि करीब 8.6 करोड़ हेक्टेयर में भारत की खेती सिंचाई संबंधी सुविधा के लिए बारिश पर ही निर्भर है।
कुछ समय तक बस्तियों, शहरों और गांवों में बरसात के पानी को सहेजने के लिए तालाब, झील, कुएं, बावड़ी, कुंड और जोहड़ बनाए जाते थे। ये जल संसाधन न केवल बरसात के पानी को सहेज कर लोगों को साल भर जरूरत का पानी मुहैया कराते थे, बल्कि संचित पानी से भूजल का स्तर बनाए रखने में भी मदद करते थे। चूंकि इन संसाधनों की सामाजिक उपयोगिता बहुत थी, इसलिए इनके निर्माण को पुण्य कार्य माना जाता था। सक्षम लोग विशिष्ट अवसरों पर जल संसाधनों का निर्माण करवाते थे। राजस्थान के बूंदी जिले के हिंडौली कस्बे के एक तालाब की कथा तो बहुत ही रोचक है। एक बंजारे की बेटी की शादी इस कस्बे में हुई थी। उन दिनों बंजारे घूम-घूम कर व्यापार करते थे और बहुत संपन्न हुआ करते थे। एक दिन किसी बात से क्षुब्ध उस बंजारे की बेटी को उसकी सास ने ताना मारते हुए कह दिया कि ‘यहां कौन से तुम्हारे पिता ने पानी का इतना इंतजाम कर रखा है कि तू खूब पानी बहाए।’ यह बात बंजारे को पता चली तो वह अपने लश्कर सहित हिंडौली आया और वहां एक तालाब खुदवाने के बाद ही लौटा।
बावड़ियां और कुंड तो जल संग्रह करने के साथ अपने समय के स्थापत्य की समृद्धि का प्रमाण भी देते थे। गुजरात की रानी की बावड़ी अपने स्थापत्य के कारण ही प्रसिद्ध है और दूर-दूर से पर्यटक इसे देखने आते हैं। पुराने किलों में तो तालाबों के अंदर भी बावड़ियों और कुओं का निर्माण कराया जाता था, ताकि आपात परिस्थिति में संग्रहीत वर्षा जल के कारण लोगों को पानी की कमी का सामना नहीं करना पड़े। मध्यप्रदेश के ग्वालियर के निकट नरवर के किले का इतिहास नल-दमयंती के आख्यान से भी जुड़ा है। इस किले में राजा नल के महल के बाहर ही एक विशाल तालाब है और इस तालाब के अंदर भी आठ कुएं और नौ बावड़ियां हैं।
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समय के साथ पुराने जल संसाधन उपेक्षा के शिकार हो गए। अधिकतर प्राचीन जलाशय बरसात के पानी के प्रवाह की राह में होते थे। बरसात का पानी बह कर इनमें एकत्र हो जाता था। पश्चिमी राजस्थान में तो ऐसा तंत्र विकसित था कि एक तालाब के भरने पर पानी दूसरे तालाब की ओर बह निकलता था। वर्षा जल संग्रह के प्रति इस क्षेत्र के लोग कितने जागरूक थे, इसका अनुमान जैसलमेर के गढ़सीसर तालाब के उदाहरण से लगाया जा सकता है। बरसात के पहले लोग श्रमदान कर इस तालाब की सफाई करते थे। स्वयं शासक इसमें श्रमदान करते थे। पहली बारिश के बाद इस खूबसूरत तालाब में नहाने आदि पर प्रतिबंध था ताकि तालाब का पानी गंदा नहीं हो। समूचे क्षेत्र में इसी तरह से बरसात के पानी के संग्रह और उसकी शुद्धता को बनाए रखने का चलन था। लेकिन जब से पानी नलों के माध्यम से घर-घर पहुंचने लगा, तो लोग इन प्राचीन संसाधनों के प्रति उदासीन हो गए। देश में अधिकांश तालाबों को रिहाइशी बस्तियों के लिए और कुंडों को व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के लिए पाट दिया गया। लोगों ने कचरा फेंक-फेंक कर बावड़ियां और कुएं अनुपयोगी कर दिए।
पुराने जलस्रोतों के मार्ग में नई बसावट या नए निर्माण का एक नुकसान यह भी हुआ कि जरा सी बारिश से बस्तियों में जल-जमाव की स्थितियां बनने लगी हैं। महानगरों में बढ़ती जनसंख्या के कारण नई बस्तियों का निर्माण फिर भी शहरी प्रबंधन की एक बड़ी आवश्यकता माना जा सकता है, लेकिन देश के छोटे-छोटे शहरों में भी मामूली बारिश जल प्लावन का दृश्य उपस्थित कर देती है। उसका एक बड़ा कारण यह है कि शहरों की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए वर्षा जल के प्रवाह को सहेजने के लिए पुराने समय में जो जलस्रोत बनाए गए थे, उन्हें या तो उपेक्षा के गर्त में धकेल दिया गया या अतिक्रमण का शिकार बना दिया गया।
चंबल नदी के किनारे बसे होने के बावजूद राजस्थान के कोटा शहर की अनेक बस्तियों का भूजल स्तर इसीलिए तेजी से गिरा है। अस्सी के दशक के अंत में बनी एक नीति के तहत हर बस्ती में पानी पहुंचाने की नीयत से खूब नलकूप खोदे गए। हमने धरती के गर्भ का पानी अपने सुख के लिए उपयोग करने की नीति तो बना ली, लेकिन भूजल स्तर को बनाए रखने के उपायों पर गंभीरता से विचार नहीं किया। परिणाम यह है कि भारत के अधिकांश हिस्सों में भूजल तेजी से कम हो रहा है। जब शुद्ध पानी की उपलब्धता समूची मानव जाति के लिए बड़ी चुनौती बनती प्रतीत होने लगी हो, तो अब आवश्यक है कि हम वर्षा जल के संग्रह और संरक्षण के प्रति सचेत हों।