शरीर और मन के स्वास्थ्य के लिए सर्वाधिक आवश्यक पर्यावरण है। इसमें भी सबसे महत्त्वपूर्ण है जल और भोजन। यह मानव को तभी सहजता से उपलब्ध हो सकता है, जब कृषि की समुचित व्यवस्था हो। इस तरह मनुष्य के जीवन में पारंपरिक कृषि व्यवस्था अनिवार्य है। इस देश में राजनीतिक अकर्मण्यता, भ्रष्टाचार और आधुनिक विकास के तकनीकी कोण पर ही केंद्रित रहने की शासकीय महत्त्वाकांक्षा ने उद्योगों को प्रश्रय दिया और इसकी तुलना में कृषि क्षेत्र को उपेक्षित छोड़ दिया गया।
खेती-किसानी की ऐसी उपेक्षा का प्रभाव भारतीय शिक्षा नीति पर पड़ा। फलत: प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रमों में कृषि से संबंधित विषय-वस्तु अदृश्य है। ‘अ’ से अमरूद और ‘आ’ से आम के साथ आरंभ होनेवाली प्राथमिक शिक्षा में कृषि के बारे में ज्यादा कुछ नहीं है। यदि छोटी आयु से ही कृषि ज्ञान-विज्ञान नहीं पढ़ाया जाएगा, तो बड़ी कक्षाओं में जाने पर बच्चे इस विषय में रुचि कैसे दिखाएंगे।
पहली से लेकर बारहवीं कक्षा तक पूरे बारह वर्षों की अवधि में जब बच्चों को कृषि और इसके विभिन्न उपक्रमों के बारे में पढ़ाया जाएगा, व्यावहारिक शिक्षण-प्रशिक्षण प्रदान किया जाएगा और कृषि-कार्यों से संबंधित विभिन्न कार्यशालाओं में जाने का अवसर उपलब्ध कराया जाएगा, तभी वे कृषि कार्यों के बारे में अपेक्षित ज्ञान से संचित हो पाएंगे। ऐसा होने पर ही उनका मन खेती से सिंचित हो पाएगा।
बच्चे यदि शुद्ध आहार-विहार अपनाने के प्रति जागरूक नहीं हैं, तो इसका प्रमुख कारण यही है कि उन्हें बालपन से ही विद्यालयों में इस संबंध में शिक्षित नहीं किया गया। इसीलिए उन्हें कृषि वर्ग की प्रमुख फसलों, खाद्यान्नों, फल-फूल, वन-वनस्पतियों और औषधियों के गुण-दोषों की जानकारी भी नहीं है और संभवत: यही कारण है कि वे खानपान की बुरी आदतों से ग्रस्त हैं। घर या विद्यालयों में उन्हें इस संदर्भ में औपचारिक ढंग से ही बताया जाता है। अभिभावक, शिक्षक और नीति-नियंता ही जब कृषि क्षेत्र की उपेक्षा कर रहे हों, तो बच्चे इस बारे में अपेक्षा के अनुरूप ज्ञान कैसे प्राप्त कर सकते हैं!
इस काल के मनुष्य-जीवन का दुर्भाग्य ही है कि उद्योगों, कार्यालयों और प्रगति संबंधी विभिन्न परियोजनाओं के लिए आए दिन वनक्षेत्र काटे जा रहे हैं। इस तरह से रोजाना ही कृषि-क्षेत्र में कमी हो रही है। प्रकृति का असंतुलन कई दशकों से सार्वजनिक चिंता के केंद्र में है ही। प्राकृतिक असंतुलन के कारण जनजीवन प्रतिक्षण असुरक्षित होता जा रहा है।
ऋतु की विकृतियां भयंकर रूप में सामने आ रही हैं। धरती, आकाश, जल, वायु और अग्नि ये सभी तत्त्व हर दिन मलिन हो रहे हैं। परिणामस्वरूप धरती का फसल-चक्र बिगड़ चुका है। फसलों की प्राकृतिक शक्ति लगभग समाप्त हो चुकी है। खाद्यान्न उत्पादन पूरी तरह कृत्रिम, रसायनमिश्रित और विषैले उर्वरकों व खाद पर निर्भर हो चुका है। पारंपरिक और नैसर्गिक खाद्यान्न-बीज विलुप्त होने की कगार पर हैं।
ग्राम, ग्राम्य-जीवन, ग्रामीण व्यवस्था अपने अंतिम स्तर पर हैं। विज्ञान अभिशाप बन रहा है। चारों ओर आधुनिक जीवन द्वारा उत्पन्न की गई समस्याओं, रोगों और महामारियों की असुरक्षा फैली हुई है। जीवन का स्वाभाविक आनंद क्या होता है, इससे मनुष्य अनभिज्ञ है। प्रत्येक खाद्य और पेय पदार्थ शरीर का पोषण करने के बजाय उसे असाध्य रोगों से भर रहा है।
देश में जितने भी कृषि विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय और अन्य शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थान हैं, उनमें कृषि संबंधी विषयों का पठन-पाठन तो हो रहा है और यथासंभव प्रायोगिक प्रशिक्षण भी हो रहे हैं, पर वे कहीं न कहीं प्राकृतिक तत्त्व ज्ञान से रहित हैं। ऐसे पठन-पाठन में कृषि क्षेत्र के उत्थान के लिए येन-केन-प्रकारेण कृत्रिम कृषिकर्म की ही जानकारी दी जा रही है। बीज, खाद और फसलों के रक्षण-संरक्षण और उत्पादन के लिए रासायनिक पदार्थों का सहारा लिया जा रहा है। कृषि संस्थानों, प्रतिष्ठानों और उद्यमों में बीजों पर प्रयोग का जैसा अभ्यास कुछ दशकों से किया जा रहा है, उससे कृषि उत्पादों में कोई न कोई हानिकारक तत्त्व स्थायी रूप में पहुंच रहा है।
चूंकि यह प्रक्रिया वर्षों पुरानी हो चुकी है और कृषि से जुड़े हर व्यक्ति को इसमें अधिक शारीरिक व मानसिक श्रम नहीं करना पड़ता, इसलिए इसमें उत्पाद को पूर्णत: हानिरहित करने के नवीन प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। आखिर में इसके अप्रत्याशित दुष्परिणाम को मनुष्य की काया ही झेल रही है। इसके अलावा व्यापारी गांवों, नगरों-महानगरों के असंगठित क्षेत्रों में मिलावटी और जहरीला अनाज बेच रहे हैं। अनाज में प्रयोग होने वाले प्राणघाती रसायनों का कारोबार भी उसी मात्रा में बढ़ रहा है।
ऐसी मानव विरोधी व्यापारिक, औद्योगिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाने और इनका नियंत्रण करने के बजाय सरकारें मिलावटी अनाज खाकर स्थायी रूप में बीमार रहने वाले लोगों का इलाज करने की आड़ में बेहिसाब निजी अस्पताल खोलने को प्रोत्साहित कर रही हैं। बच्चों को कृषि शिक्षा से वंचित रख कर, उन्हें मिलावटी अनाज पर निर्भर करके और आखिर में जहरीले भोजन से क्षतिग्रस्त अंगों के इलाज के लिए निजी अस्पतालों की मर्जी पर छोड़कर किस तरह की जिम्मेदारी निभाई जा रही है?
यह सवाल देश के हर संवेदनशील व्यक्ति को बुरी तरह कचोट रहा है। जब मनुष्य का तन-मन अप्राकृतिक अनाज खाकर अस्वस्थ होगा, तो समाज-परिवार में दुर्गुणों से युक्त आचार-व्यवहार ही पनपेगा और फैलेगा।
सरकारों को ऐसी मानव विरोधी, अस्वास्थ्यकर और जीवनघाती परिस्थिति को खत्म करने के लिए जरूरी कदम उठाने होंगे। इसकी शुरुआत प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में प्रकृति, पर्यावरण व कृषि कार्यों से संबंधित विषयों की बढ़ोतरी करके करनी होगी। प्रतिवर्ष बारहवीं परीक्षा उत्तीर्ण कर कई विद्यार्थी प्रौद्योगिकी और यांत्रिकी जैसे क्षेत्रों के शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए कालेजों में प्रवेश ले रहे हैं।
मानविकी, वानिकी, कृषि आदि जीवन से आवश्यक रूप में और सीधे जुड़े क्षेत्रों में उच्चतर शिक्षा प्राप्त करने की अरुचि विद्यार्थियों में आरंभ से ही रही है।
विद्यालयों के पठन-पाठन माहौल को इस सीमा तक बदलना होगा कि बच्चे प्राकृतिक जीवन की महत्ता से परिचित हो सकें। उन्हें खेती-किसानी के पुस्तकीय सिद्धांतों के साथ-साथ व्यावहारिक कृषि कार्यों से भी जोड़ना होगा। जब आने वाले पचास-सौ वर्षों तक इस प्रकार का विद्यालयी अभ्यास हर वर्ष एक दायित्व के साथ संपन्न होगा, तब आशा की जा सकती है कि मनुष्य को शुद्ध आहार प्राप्त होगा। प्राकृतिक मनुष्य-जीवन की पुनर्स्थापना के लिए अब यही उपाय शेष है।
यह उपाय भी विश्व की समग्र प्राकृतिक पारिस्थितिकी को तभी पुनर्जीवित कर सकेगा जब पूरी दुनिया में प्राथमिक शिक्षा में कृषि के महत्त्व, उपयोगिता और विशेषता पर प्रकाश डाला जाएगा।