गांवों से पलायन आज भी अनेक समस्याओं की वजह है। बिहार, झारखंड, ओड़ीशा, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों से सैकड़ों परिवार अपना पुश्तैनी घर-बार छोड़कर आज भी हर महीने दिल्ली, गुड़गांव, गाजियाबाद जैसे शहरों में रोजी-रोटी कमाने आते हैं। इन परिवारों में बहुत सारे चार से चौदह साल के वे बच्चे भी होते हैं, जो शारीरिक और मानसिक समस्याओं से घिरे रहते हैं। भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में पलायन आज भी अनेक समस्याओं की वजह बना हुआ है। अनेक अध्ययन और सर्वेक्षण बताते हैं कि इससे बच्चों की सेहत, शिक्षा, मानसिक और शारीरिक विकास, सीखने की प्रवृत्ति और आत्मविश्वास पर प्रतिकूल असर पड़ता है।
सबसे ज्यादा असर 12 वर्ष तक के बच्चों पर पड़ता है, जिनकी उम्र सीखने-पढ़ाई-लिखाई की है
विकासशील देशों में बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी, सड़क, बिजली, पानी, अशिक्षा और मूलभूत सुविधाओं अभाव पलायन को बढ़ावा देते हैं। इसके अलावा, दबंगों के दबाव, खेती में घाटा, मजदूरी न मिलने और अन्य दूसरी समस्याओं की वजह से भी गांवों से शहरों की तरफ पलायन होता रहता है। पलायन का सबसे ज्यादा असर चार से बारह वर्ष के उन बच्चों पर पड़ता है, जिनकी उम्र सीखने और पढ़ाई-लिखाई की होती है।
केंद्र और राज्य सरकारों ने पलायन रोकने के लिए तमाम कोशिशें की हैं, लेकिन इससे निजात नहीं मिल सकी है। इससे बच्चों की जिंदगी में पसरा अंधेरा खत्म नहीं हो पाता है। संतुलित आहार, साफ पानी, फल, दूध न मिलने की वजह से कुपोषण, रोग प्रतिरोधक क्षमता की बेहद कमी जैसी समस्याएं लगातार बनी रहती हैं। ये समस्याएं केवल भारत में नहीं, बल्कि दुनिया के सभी गरीब परिवारों के उन बच्चों की हैं, जिनके माता-पिता पलायन के लिए मजबूर होते हैं।
पलायन करने वाले परिवारों के आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक हालात बेहद नाजुक होते हैं
पलायन करने वाले परिवारों के आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक हालात बेहद नाजुक होते हैं। आंकड़े बताते हैं कि शत-प्रतिशत गरीब परिवार, खेतिहर मजदूर, गरीबी की रेखा के नीचे आते हैं। इन परिवारों के मकान तकरीबन कच्चे या घास-फूस के होते हैं। जिन परिवारों के खेत हैं भी, उन्हें महज चार-छह महीने का रोजगार मिलता है। इसलिए उन्हें गैर-कृषि क्षेत्रों में रोजगार तलाशना पड़ता है। इसकी वजह से भी बच्चों की सेहत, शिक्षा, आहार और विकास पर प्रतिकूल असर पड़ता है। वे मनोवैज्ञानिक रूप से भी कमजोर होते हैं। गरीबी और अशिक्षा की वजह से नकारात्मकता की प्रवृत्ति धीरे-धीरे उनकी जिंदगी का हिस्सा बन जाती है।
समाजशास्त्रियों के अनुसार पलायन करने वाले गरीब परिवारों की आय कृषि और गैर-कृषि क्षेत्र की मजदूरी से महज 55 फीसद तक हो पाती है। बाकी 45 फीसद की कमी में ही वे जिंदगी का गुजारा करते हैं। निरक्षर होने की वजह से ऐसे परिवार सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाते हैं। बच्चे माता-पिता के साथ परिवार की आय बढ़ाने के लिए खेतों, ईंट भट्टों, बागों, कारखानों, सड़क और भवन निर्माण जैसे कार्यों में हाथ बंटाते हैं। इन बच्चों की स्थिति सुधारने के लिए यों तो सरकार आंगनबाड़ी के जरिए कोशिश करती है, लेकिन ऐसे परिवारों के बच्चे आंगनबाड़ी केंद्रों पर कम ही जा पाते हैं।
गांवों में बच्चों को बेहतर शिक्षा, आहार और सेहत के लिए ऐसी व्यवस्था सरकार की तरफ से नहीं होती कि वे विकास की आधुनिक धारा का हिस्सा बन सकें। अध्ययन और सर्वेक्षण बताते हैं कि भारत के हजारों गांवों में गरीब परिवारों के बच्चों के विकास के लिए मूलभूत सुविधाओं और बेहतर माहौल की कमी है। पलायन करने वाले ऐसे सैकड़ों परिवार हैं, जो गांव से शहर इसलिए आ गए कि गांव का माहौल बच्चों को बेहतर संस्कार के माफिक नहीं था। मगर शहर आने पर उनके बच्चे बेहतर तालीम हासिल न कर सके, क्योंकि माता-पिता मेहनत-मजदूरी करने चले गए और बच्चे दिनभर इधर-उधर उछल-कूद करते रहे। यानी पलायन का असर शहर और गांव दोनों जगहों पर बच्चों के ऊपर प्रतिकूल पड़ता है।
भारत में सामाजिक माहौल इस तरह का नहीं है कि गरीब परिवारों को अमीर परिवार के लोग मदद कर सकें। खासकर बच्चों की बेहतर तालीम, संतुलित आहार और मूल्यपरक सीख देने के मामले में। धार्मिक, सामाजिक और पारिवारिक मान्यताएं और धारणाएं इस तरह की हैं कि गरीबी-अमीरी किस्मत की देन है। इसलिए गरीब माता-पिता बच्चों की बेहतरी के बारे में सोचते ही नहीं। इसलिए भीख मांगने, चोरी करने या अवारागर्दी जैसी गतिविधियों से दूर रहने के लिए शख्त हिदायत नहीं दी जाती। इसका परिणाम यह होता है कि ऐसे परिवारों के बच्चों का बचपन ही नहीं, किशोरावस्था, जवानी और बुढ़ापा भी निराशा के गर्त में चला जाता है।
आंकड़ों के मुताबिक पलायन करने वाले परिवारों के बच्चों में शिक्षा के प्रति रुचि नहीं होती। ऐसे परिवारों के 52 फीसद बच्चे पांचवीं भी पास नहीं कर पाते हैं। 46 फीसद बच्चे बमुश्किल आठवीं पास कर पाए। इसकी वजह पैसे की लगातार कमी रहना है। 47 फीसद बच्चों ने माना कि उनके पिता ने उन्हें पढ़ाने में कोई रुचि नहीं दिखाई, क्योंकि उनके पास बच्चों को पढ़ाने के लिए कोई सुविधा और वक्त नहीं था। तीस फीसद बच्चों ने माना कि उन्होंने खुद पढ़ना नहीं चाहा। शहर आकर 19 फीसद परिवारों ने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाने की कोशिश की, लेकिन इसमें से 10 फीसद बच्चे ही हाईस्कूल तक पढ़ पाए। महज 4 फीसद बच्चे बारहवीं या बीए पास कर पाए।
दरअसल, गरीब परिवारों के बच्चों में शिक्षा के प्रति रुचि न होने से उनमें आगे बढ़ने की प्रवृत्ति बचपन से ही नहीं पनप पाती। इसलिए क्षमता, योग्यता और प्रतिभा का विकास भी नहीं हो पाता। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार पलायन की वजह से गरीब परिवार के बच्चों का स्वाभाविक विकास नहीं हो पाता है, क्योंकि एक जगह से दूसरी जगह जाने से जहां माहौल बदलता है, वहीं संगत की वजह से उनमें कई तरह की बुरी आदतों का विकास होता है, जो बेहतर चारित्रिक विकास में बाधा पैदा करता है। गांवों से बड़े शहरों में आने के बाद बच्चों के मन पर शहरी चकाचौंध का असर उसके कोमल मन को कौतूहल से भर देता है। गांव के खुलेपन, बोली या भाषा, संस्कार से वह दूर हो जाता है। शहर की बंद गलियां, संकरे रास्ते और बोली-भाषा को अपनाने के लिए मजबूर हो जाता है। इसी के साथ शुरू होता है उसके साथ शोषण, हिंसा और दुर्व्यवहार का अंतहीन सिलसिला।
उसका यह भटकाव उसकी जिंदगी को कमजोर कर देता है। गांव की आबोहवा से निकल कर शहर में पहुंचने वाला बचपन शहर की अंधेरी गलियों और दमघोंटू बहुमंजिला इमारतों में कहीं खो जाता है। वह समझ नहीं पाता कि जिस गांव को छोड़कर वह दूर शहर में आया है, उसकी जिंदगी में खुशियों की वजह बनेगी या और ज्यादा पीड़ित हो जाएगा। गौरतलब है कि सहज विकास न होने पाने की वजह से दुनिया के करोड़ों बच्चों का भविष्य अंधकार में भटकता रहता है। वे विकास की धारा के साथ न चल पाने में सक्षम हो पाते हैं और न ही विकासशील या विकसित समाज का हिस्सा ही बन पाते हैं