हाल के वर्षों तक विच्छिन्न रहा भारत का किराना बाजार नए जमाने के ग्राहकों को बेहतर अनुभव प्रदान करने की दृष्टि से तेजी से बदल रहा है। यह वैश्विक माध्यमों तक अपनी सीधी पहुंच बढ़ा रहा है। गौरतलब है कि भारत दुनिया के सबसे तेजी से बढ़ते किराना बाजारों में से एक है और अगले वर्ष तक आठ फीसद की विकास दर के साथ इसके 21 से 25 अरब डालर तक पहुंच जाने का अनुमान है। ई-किराना कंपनियां तेजी से उपभोक्ताओं की मांगें पूरी करने की दिशा में कदम बढ़ा रही हैं, तो उत्पादों की गुणवत्ता और उपलब्धता, डिब्बाबंद वस्तुओं की मांग, ब्रांड सहमेल, उपभोक्ता मानसिकता में बदलाव आदि कारक भी इस क्षेत्र के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

हमारे देश में ‘क्विक ई-कामर्स बाजार’ लगभग पांच अरब डालर का हो चुका है। यह कुल किराना बाजार का 45 फीसद है। अगले चार-पांच वर्षों में इसके 60 अरब डालर तक पहुंच जाने का अनुमान है। मगर ग्राहकों की बदलती आदतों की मार छोटे दुकानदारों पर पड़ रही है। खुदरा सामान की मासिक बिक्री में 60 फीसद की गिरावट दर्ज हो रही है। कुछ वर्ष पहले तक आम धारणा थी कि आनलाइन सेवा झूठ से भरी है। मगर अब यह हकीकत में बदल चुकी है। हर हाथ में मोबाइल आ जाने के बाद से तो जैसे सब कुछ आनलाइन संभव हो चुका है। एक आकर्षक व्यावसायिक अवसर के रूप में इससे बढ़ती आबादी तक नाना प्रकार के उत्पादों की पहुंच आसान हो चुकी है।

बाल्टीमोर (अमेरिका) का रोलैंड पार्क बिजनेस ब्लाक 1907 में खुला और दुनिया के पहले शापिंग सेंटर के रूप में गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड्स में दर्ज हो गया था। कालांतर में इसका एक योजनाबद्ध तरीके से पीढ़ी-दर-पीढ़ी विकास और विस्तार होता गया। पश्चिमी जगत के युद्धोत्तर उपनगरीय मध्यवर्ग की जरूरतों और इच्छाओं को पूरा करने के लिए आउटडोर शापिंग सेंटरों की एक अलग तरह की श्रेणी ने भी करवट ली। समय के साथ छोटी खुदरा दुकानों के साथ ‘डिपार्टमेंटल स्टोर’ जोड़ने के क्रम में 1980-90 के दशक तक शापिंग माल संस्कृति में आपसी प्रतिस्पर्द्धा की गतिविधियां भी तेज होने लगी थीं।

खुदरा खरीदारी के लिए माल की अवधारणा पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में बहुत पुरानी नहीं है। भारत में पहला शापिंग माल 1999 में दिल्ली में खुला था। उसके बाद मुंबई और चेन्नई में खुला। वर्ष 2003 के बाद मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, बंगलुरु, चेन्नई, हैदराबाद, पुणे जैसे मेट्रो शहरों, गुरुग्राम, नोएडा, गाजियाबाद आदि में मालों की संख्या बढ़ने लगी, और अब यह अवधारणा उपनगरों तक फैल चुकी है। वर्ष 2011 के बाद भारत में उन्नत या ‘एडवांस्ड माल’ बनने लगे। उनमें मल्टीप्लेक्स भी शामिल होने लगे।

इस बीच कुछ ही वर्षों में देखते-देखते, सोशल मीडिया, ईमेल और खोज इंजन जैसे विभिन्न डिजिटल चैनलों के माध्यम से छोटे व्यवसायों, स्टार्ट-अप, गैर-लाभकारी संस्थानों के रूप में भी चारों ओर उद्योगों की एक नई कतार खड़ी होती जा रही है। ऐसे में संभावना जताई जा रही है कि 2025 तक भारतीय डिजिटल मार्केटिंग उद्योग 160 अरब डालर तक पहुंच सकता है। कुछ साल पहले कोरोना महामारी में जब घर बैठे खरीदारी अत्यंत मुफीद लगी, तो माल आधारित डिपार्टमेंटल स्टोर, छोटे शापिंग माल नाटकीय गिरावट के साथ तेजी से बंद होने लगे। डिजिटल मार्केटिंग ने छोटे-मंझोले दुकानदारों और शापिंग माल संचालकों की तो जैसे कमर ही तोड़ दी है। बाजार की यह करवट देश के ग्राहकों को भी खूब रास आ रही है।

भारतीय ई-कामर्स बाजार ऊंची उड़ानें भर रहा है। ‘एरिक्सन कंज्यूमरलैब’ की रपट के मुताबिक भारतीय अब प्रतिदिन औसतन 3.4 घंटे आनलाइन और स्मार्टफोन पर पांच-छह घंटे बिता रहे हैं। जिस रफ्तार से आनलाइन खरीदारी विस्तार पा रही है, फैशन, प्रौद्योगिकी, घरेलू सजावट जैसी आनलाइन शापिंग का भी विशाल उपभोक्ता वर्ग डिजिटल मार्केटिंग उद्योग की रणनीति का महत्त्वपूर्ण हिस्सा होता जा रहा है। ‘इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन आफ इंडिया’ (आईएएमएआइ) का एक अध्ययन बताता है कि हजारों लाख खातों के साथ डिजिटल क्षेत्र आम जीवन में संचार का एक अपरिहार्य उपकरण बन चुका है। एक समय में लाखों लोगों तक संदेश पहुंचाने की दृष्टि से ईमेल मार्केटिंग सबसे प्रभावी तरीकों में से एक हो चुकी है।

दूसरी तरफ, रियल एस्टेट कंसल्टेंसी फर्म ‘नाइट ऐंड फ्रैंकलिन’ की एक ताजा रपट के अनुसार हमारे देश में छोटे शापिंग माल बहुत तेजी से बंद हो रहे हैं। आनलाइन खरीदारी से उन्हें तेज झटके लग रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण महानगरीय आधुनिकता के अंधाधुंध प्रवाह में निम्न और मध्यवर्गीय प्राथमिकताओं में बदलाव आना है। पिछले वर्ष तक देश में माल के अंदर किराए के लिए तैयार खाली दुकानों की संख्या 238 फीसद बढ़ी है। इस गिरावट ने बड़े पैमाने पर बेरोजगारी को भी हवा दी है। देश के व्यावसायिक क्षेत्र में इससे मझोले दर्जे के व्यापारियों को झटका लगा है।

‘नाइट फ्रैंक’ की भारत के 29 शहरों के सर्वे पर आधारित ‘थिंक इंडिया थिंक रीटेल-2024’ शीर्षक रपट में आगाह किया गया है कि बचे-खुचे 132 छोटे शापिंग माल भी देर-सवेर बंद होने के कगार पर हैं। इनकी 36.2 फीसद से ज्यादा दुकानें खाली पड़ी हैं। इस तरह भवन निर्माताओं को 67 अरब रुपए से ज्यादा का नुकसान हो चुका है। बड़े शापिंग माल ही ऐसे झटकों से बचे हुए हैं। बीते वर्ष तक, दिल्ली, मुंबई, बंगलुरु समेत देश के आठ महानगरों के 263 शापिंग माल बंद हो गए। बंद होने वाले माल में सर्वाधिक दिल्ली एनसीआर के हैं।

आनलाइन बिक्री में जोरदार वृद्धि हुई है, इस बदलते हालात का खुदरा रोजगार यानी स्थानीय श्रम बाजारों पर गंभीर प्रभाव देखा जा रहा है। शापिंग माल, डिपार्टमेंटल स्टोर आदि में हाल के वर्षों में अन्य प्रकार के खुदरा विक्रेताओं की तुलना में नौकरियों में भारी गिरावट आई है। यह कार्यक्षेत्र आनलाइन शापिंग की लहर उठने के कारण सबसे अधिक असुरक्षित हो चुका है। एक दशक पूर्व तक, छोटे शापिंग माल, डिपार्टमेंटल स्टोर आदि खुदरा बाजार के विक्रेताओं से जुड़े रोजगार के नजरिए से पूरी महानगरीय बाजार व्यवस्था को एक खास दिशा में ले जाने की हैसियत रखते थे। अचानक आनलाइन शापिंग के हस्तक्षेप के बाद लाखों लोग नौकरियों से हाथ धो बैठे हैं।

सुखद है कि अन्य खुदरा क्षेत्रों में नौकरियों की संख्या लगातार बढ़ भी रही है। दूसरा सच यह भी है कि ‘डिपार्टमेंटल स्टोर’ को अपने कर्मचारियों को सामान्य आबादी के वितरण के अनुपात में फैलाने के लिए प्रोत्साहन मिलता है, क्योंकि उनका व्यवसाय निजी होता है, पूरे देश में उनके उत्पादों की मांग होती है। इसलिए वे रोजगार के वैकल्पिक आधार भी दे रहे हैं। सच यह भी है कि साधारण नौकरियों की गिनती ही, श्रम बाजार की स्थितियों के ब्योरों का एकमात्र प्रासंगिक तथ्य नहीं है। तकनीकी की बहुस्तरीय चालढाल के साथ इसके और भी कई भिन्न आयाम प्रकट होते जा रहे हैं।