हमें गर्व है कि हम एक युवा देश हैं, क्योंकि हमारी आधी से अधिक आबादी छत्तीस वर्ष तक की उम्र के युवाओं की है। उसमें से भी तीन-चौथाई आबादी ऐसे नौजवानों की है, जो सोलह से छब्बीस वर्ष की उम्र के हैं और अपने लिए इस नए भारत में जिंदगी की सार्थकता तलाश रहे हैं। इस नाराप्रेमी और उत्सवधर्मी देश में नौजवान अपने लिए अपनी जमीन और थोड़े से आत्मगौरव की तलाश करते हैं। उन्हें अनुकंपाओं की बरसात से भीगी धरती की जगह धूप से तपती मेहनत मांगती वह धरती चाहिए, जो उनकी योग्यता के अनुसार रोजी-रोजगार दे सके और वे अपनी मेहनत से सफलता की सीढ़ियां चढ़ते हुए, बिना किसी बैसाखी के जी सकें। मगर ऐसा नहीं है।
नवनिर्माण और नवजागरण के लिए सबसे पहले तो शिक्षा और सम्माजनक पेशे चाहिए। इनके लिए प्रवेश परीक्षाएं आयोजित होती हैं, जो उनकी योग्यता का उचित मूल्यांकन करके उन्हें सम्मानजनक रोजगार दे सकें। मगर रोजगार की गारंटी इस देश में नहीं है। जो नौजवान जय जवान, जय किसान और जय अनुसंधान के देश को दिए मूलमंत्र का अनुसरण करते हुए अपनी जमीन की तलाश करना चाहते हैं, उन्हें उचित प्रशिक्षण के लिए दाखिला परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। पिछले दशकों में ऐसे शिक्षण संस्थान निजी क्षेत्र में कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं। शिक्षा दुकान न बने, उसके दाखिले चोर-दरवाजे न बनें, इसके लिए देश में एक राष्ट्रीय परीक्षा एजंसी यानी एनटीए की स्थापना की गई।
फैसला किया गया कि नौजवान अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग प्रतिष्ठानों की परीक्षाएं देने को न भटकते फिरें। उन्हें एक देश, एक परीक्षा का मूलमंत्र एनटीए द्वारा दे दिया गया। अब चिकित्सक बनना है या उसमें विशिष्टता हासिल करनी है, इंजीनियर या प्राध्यापक बनना है या शोध छात्र, इन सबके लिए परीक्षाएं एनटीए के झंडे तले आयोजित होती हैं। वर्ष में ऐसी लगभग पंद्रह परीक्षाएं एनटीए आयोजित करता है और उनमें अलग-अलग पाठ्यक्रमों के लिए करीब दो करोड़ विद्यार्थी परीक्षाओं में बैठते हैं।
मगर इस प्रक्रिया में हर वर्ष पर्चाफोड़ होते हैं। इस वर्ष भी यही हुआ। इस पुरानी बीमारी का इलाज क्यों नहीं हो पाता? क्या इसलिए कि इसकी परीक्षा एजंसी को कोई नियमित सुदृढ़ ढांचा देने के बजाय ‘जैसा है, उसे निभाओ’ का नियम दे दिया गया। एजंसी में पंद्रह शीर्ष लोग तो अलग-अलग प्रतिनियुक्ति से आ गए, पर परीक्षाएं अंतत: निजी एजंसियों को ठेके पर दी जाने लगीं। जाहिर है, ऐसे माहौल में पर्चाफोड़ से लेकर अन्य भ्रष्ट तरीकों की कितनी संभावनाएं रहेंगी। इसकी चरम सीमा शायद इस बार हो गई, जब 571 शहरों के 4750 परीक्षा केंद्रों में 23 लाख से अधिक अभ्यर्थियों ने एमबीबीएस दाखिले के लिए ‘नीट’ परीक्षा दी। नतीजा निकला तो 67 छात्र प्रथम श्रेणी थे, उन्हें 720 में से 720 अंक मिले। स्पष्ट हुआ कि नंबरों का बंटवारा तर्कहीन तरीक से हुआ है। शोर-शराबा हो गया। जांच में पता चला कि सीमित ढंग से अनुचित साधनों का इस्तेमाल किया गया। पकड़-धकड़ होने लगी। बिहार से बहुत-सी खबरें आईं, लेकिन परीक्षा में बड़ी गड़बड़ी के संकेत नहीं मिले।
इस बार की गड़बड़ी से परीक्षार्थियों का विश्वास परीक्षा लेने वाली एजंसियों पर से डिग गया है। योग्यता का मूल्यांकन अगर इसी तरीके से होना है कि परीक्षा के ढांचे में चोर गलियां निकल आएंगी और अयोग्य छात्र उन्हें धक्का देकर निकल जाएंगे, तो इससे बड़ा अन्याय उन मेहनती छात्रों के लिए क्या हो सकता था, जो वर्षों से घर छोड़कर कोटा जैसी जगहों में परीक्षाओं की तैयारी करने में दिन-रात एक कर रहे थे। परीक्षाएं तो सही मूल्यांकन के विश्वास के आधार पर चलती हैं। तभी सुप्रीम कोर्ट ने भी 18 जून को नीट मामले की सुनवाई करते हुए कहा था कि 0.001 फीसद भी गड़बड़ी हुई है तो उसकी जांच करो। सीबीआइ की जांच में यहां-वहां दोषी भी पकड़े जाने लगे। संसद में इस पर बहस की मांग उठी।
नौजवान ही किसी देश का भविष्य होते हैं और जब वही अंधेरे में भटकने लगें, तो देश का भविष्य भला कैसा होगा? सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिकाओं पर विचार हुआ कि क्या ‘नीट’ की दुबारा परीक्षा ली जाए? परीक्षा में भ्रष्ट तरीकों और पर्चाफोड़ की पुष्टि हो गई। मगर जवाबी याचिका भी आ गई कि उन लाखों विद्यार्थियों का क्या दोष, जिन्होंने पूरी मेहनत से इम्तिहान दिए और अब उन्हें फिर उसी अग्नि परीक्षा से गुजरने के लिए कहा जा रहा है। जबकि हर पढ़ने वाला जानता है कि उसी उत्साह के साथ बार-बार परीक्षाओं की तैयारी नहीं हो सकती।
खैर, मामला सर्वोच्च न्यायालय के ध्यान में है। केंद्र सरकार और एनटीए के हलफनामे भी सुप्रीम कोर्ट में आए हैं कि ‘नीट’ परीक्षा दुबारा करने की जरूरत नहीं। लाखों मेहनती छात्रों को दुबारा बेवजह परीक्षा की भट्ठी में न झोंका जाए। दोषी तो पकड़े जाएं, लेकिन ‘नीट’ के यही परीक्षा परिणाम सफल छात्रों के साथ रहेंगे, देशभर की चिकित्सा संस्थाओं में दाखिले के लिए।
इन इम्तिहानों के आधार पर अलग-अलग मेडिकल कालेजों में काउंसिलिंग शुरू होने लगी थी, जो अब जुलाई के अंत तक टल गई और सुप्रीम कोर्ट से अंतिम फैसले का इंतजार हो रहा है। फैसला जो भी हो, सवाल इस समस्या के फौरी हल का नहीं है। वह तो हो ही जाएगा। सवाल यह है कि मेहनती युवा पीढ़ी को उनकी मेहनत का उचित मूल्यांकन कैसे होना है, इसका स्थायी हल कैसे निकाला जाए? कुछ बातें बहुत स्पष्ट हैं। योग्य व्यक्तियों का स्थायी ढांचा बनना चाहिए, जो ये परीक्षाएं करवाएं और देशभर में इतने महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए स्थायी परीक्षा मशीनरी बने, जिसकी कार्यशीलता और इमानदारी पर कोई भी व्यक्ति अंगुली न उठा सके। जब तक यह नहीं होगा, तब तक नौजवानों का विश्वास, जो अपने भविष्य के प्रति पहले ही शंकालु है, अपनी परीक्षाओं के प्रति भी अनिश्चय के भंवर में फंसा रहेगा।
हम शिक्षा की खामियों को दूर करने की बात कहते हैं। नए-नए शिक्षा माडल दे रहे हैं, लेकिन इसके एक जरूरी हिस्से यानी छात्र ने जो पढ़ा, उसका सही मूल्यांकन करके उसे रोजी-रोजगार देने के बारे में अभी तक सही फैसले नहीं हो सके। ये फैसले तत्काल होने चाहिए। देश के नव-निर्माण की बात करने वाले पहले देश की युवा पीढ़ी के लिए शिक्षा के नए ढांचे के निर्माण को तुरंत बनाना शुरू करें। तदर्थ उपायों से काम नहीं चलेगा।
शिक्षा आपके अंतस को जगाती है। छात्र की योग्यता का तटस्थ मूल्यांकन करने के लिए शिक्षा विशारदों को तैयार रहना चाहिए। यह ठेका परीक्षा प्रणाली नहीं चलेगी। देश के शिक्षा प्रवीण सिर जोड़कर बैठें और ऐसा वैकल्पिक ढांचा बनाएं, जिसमें देश के युवा छात्र अपने विश्वास और सहज माहौल के साथ यहां अपनी योग्यता को प्रस्तुत कर सकें। इस योग्यता का सही मूल्यांकन होगा, इसका विश्वास उन्हें रहे। तभी देश के लिए कुछ कर गुजरने की तमन्ना उनमें जागेगी।