भारत की न्यायिक व्यवस्था में मुकदमों का लंबे समय तक चलना गंभीर समस्या है। वर्षों तक लंबित पड़े मामलों ने न्याय के वास्तविक अर्थ को धुंधला कर दिया है। न्याय में देरी अन्याय के समान ही होती है, लेकिन परिपाटी ऐसी बन गई है कि इंसाफ की उम्मीद में कई बार पीड़ित की पूरी जिंदगी निकल जाती है। फिर भी उन्हें न्याय नहीं मिलता। एक सभ्य समाज में न्यायिक व्यवस्था होना और उसका बेहतर तरीके से कार्यान्वित होना बेहद महत्त्वपूर्ण होता है। इसके बावजूद जब इंसाफ समय पर न मिले, तो अनगिनत सवाल खड़े होते हैं। पीड़ित और अभियुक्त दोनों ही इस धीमी प्रक्रिया से त्रस्त हो जाते हैं और न्याय केवल एक प्रतीक्षा बन कर रह जाता है। इसी बीच बीते दिनों अलीगढ़ से एक ऐसी खबर आई, जो न्याय की आस लगाए या न्यायिक प्रक्रिया पर भरोसा कर अपना समय, धन खर्च करने वालों को कहीं न कहीं एक संजीवनी देने का काम कर रही है। यह घटना हमें यह बताती है कि सब कुछ ठीक ढंग से किया जाए, तो समय पर न्याय मिल सकता है।

दरअसल, पिछले दिनों अलीगढ़ की पाक्सो अदालत ने उनतीस दिनों के भीतर एक मामले का निपटारा कर दिया। यह एक स्वागतयोग्य कदम है और यह निर्णय न्यायिक प्रक्रिया को द्रुतगति देने की दिशा में एक संदेशवाहक बन सकता है। अलीगढ़ में किशोरी के साथ हुए बलात्कार के दोषी को बीस वर्ष की कैद और पचास हजार रुपए के जुर्माने की सजा सुनाई गई है। यह घटना न केवल पीड़ित को त्वरित न्याय दिलाने का प्रमाण है, बल्कि उन तमाम मामलों के लिए भी एक नजीर है जो अनावश्यक देरी के कारण वर्षों तक लंबित रहते हैं।

यहां सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि हर मामले को इसी तरह जल्द निपटाया जाए! क्या पुलिस और अभियोजन की तत्परता वास्तव में न्यायिक प्रक्रिया को तेज कर सकती है? या यह महज एक अपवाद है, जिसे सामान्य नहीं माना जाना चाहिए? शायद यह मामला इसलिए भी चर्चा में है, क्योंकि इसका फैसला भारतीय न्याय प्रणाली की नई व्यवस्था लागू होने के बाद पहली बार आया है। ऐसे में यह त्वरित न्याय का प्रतीक है या फिर इसे महज एक संयोग मान कर दरकिनार कर दिया जाए?

सच तो यह है कि हमारे देश में पुलिस, अभियोजन और न्यायिक प्रक्रिया के बीच सामंजस्य की कमी न्याय में देरी की मुख्य वजह रही है। जिस प्रकार अलीगढ़ के इस मामले में पुलिस ने साक्ष्यों को तुरंत एकत्रित किया, अभियोजन ने मामले को गंभीरता से पेश किया और अदालत ने तत्परता से मामले की सुनवाई की, वैसा सभी मामलों में नहीं हो पाता। सामान्यत: पुलिस जांच के लिए समय नहीं निकालती है, अभियोजन तर्कों को ठीक से प्रस्तुत नहीं कर पाता और अदालतों के सामने मुकदमों का अंबार लग जाता है। ऐसे में जल्दी निपटारा असंभव हो जाता है।

सवाल यह भी है कि क्या यह घटना वाकई मील का पत्थर है! क्या यह उदाहरण वास्तव में न्यायिक सुधारों की दिशा में बड़ा कदम है या फिर इसे सिर्फ एक अपवाद मान कर हम आगे बढ़ जाएंगे? अगर कानूनी संस्थाएं इस उदाहरण से कुछ सीखने का प्रयास करें, तो शायद हम मुकदमों के बोझ को कम कर सकते हैं। ‘नेशनल जुडिशियल डेटा ग्रिड’ की रपट के अनुसार, भारत में इस समय लगभग पांच करोड़ मामले अदालतों में लंबित हैं। इनमें से सत्तर फीसद से अधिक मामले निचली अदालतों में हैं, जबकि उच्च न्यायालयों में भी लाखों मामले लंबित हैं।

स्पष्ट है कि न्याय प्रणाली अपने ही बोझ तले दबी है। यह इस बात का भी सबूत है कि देश की कानून व्यवस्था अपने ही भार तले दबे जा रही है। क्या अदालतों में न्यायाधीशों की कमी इस समस्या की जड़ है? यह तो साफ है कि जब तक न्यायाधीशों के रिक्त पदों को भरा नहीं जाता, तब तक मामलों का निपटारा तेजी से नहीं हो पाएगा। लिहाजा पुलिस और अभियोजन को उतनी ही तेजी से काम करना होगा। वरना, जैसा कि अकसर होता है, साक्ष्य अधूरे रह जाते हैं, गवाह पलट जाते हैं और अपराधी खुलेआम घूमते रहते हैं।

भारत में इंसाफ में देरी के कई प्रमुख कारण हैं। आज भी अदालतों में न्यायाधीशों की संख्या बहुत कम है। विधि आयोग की रपट के अनुसार, भारत में प्रति दस लाख की जनसंख्या पर केवल इक्कीस न्यायाधीश हैं। जबकि अमेरिका में यह संख्या एक सौ सात और ब्रिटेन में पचास है। इस कमी के कारण अदालतों पर भारी बोझ पड़ता है और मामलों को निपटाने में सालों लग जाते हैं। यहां तक कि पुलिस और अभियोजन पक्ष की कार्यशैली भी बहुत लचर है। कई बार देखा गया है कि अपराध की जांच में देरी, साक्ष्य इकट्ठा करने में लापरवाही और गवाहों की सुरक्षा का अभाव आदि के कारण पीड़ित पक्ष को समय से न्याय नहीं मिल पाता हैं। कई मामलों में देखा गया है कि गवाहों को भी कभी लालच देकर या फिर डरा-धमका कर अपने बयानों से पलटने के लिए मजबूर कर दिया जाता हैं।

भारतीय न्यायालय में डिजिटलीकरण की गति बहुत ही धीमी है। जबकि त्वरित न्याय के लिए डिजिटलीकरण एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। साथ ही ई-फाइलिंग, आनलाइन सुनवाई और मामलों के प्राथमिकता-आधारित निपटारे जैसे उपायों को भी अपनाया जाना चाहिए। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी कृत्रिम मेधा और ‘मशीन लर्निंग’ जैसी तकनीकों का उपयोग कर लंबित मामलों की पहचान और प्रबंधन को प्राथमिकता दी जाए। सरकार को न्यायिक प्रणाली के लिए पर्याप्त बजट आबंटन, नई अदालतों की स्थापना और कानूनी ढांचे में सुधार जैसे कदम उठाने होंगे। इतना ही नहीं जनता में कानून के प्रति जागरूकता बढ़ानी होगी। न्याय केवल कानून का पालन करने की प्रक्रिया नहीं है, यह समाज में विश्वास बहाल करने का माध्यम भी है।

अलीगढ़ मामले में जिस प्रकार अभियुक्त को त्वरित सजा दी गई, वह यह भी दर्शाता है कि न्याय होता हुआ दिखना चाहिए। अगर अपराधी वर्षों तक बिना सजा के खुले घूमते हैं, तो समाज का कानून व्यवस्था पर विश्वास कमजोर हो जाता है। यह केवल एक अदालत का काम नहीं है, बल्कि पूरी व्यवस्था का दायित्व है कि अपराधी को जल्द से जल्द दंडित किया जाए। तभी कानून व्यवस्था का असली उद्देश्य पूरा हो सकता है। लंबित मुकदमों के बढ़ते भार का हल केवल अदालतों पर ही नहीं छोड़ा जा सकता। यह हर स्तर पर सुधार की मांग करता है।

पुलिस को अपनी जांच में तेजी लानी होगी, अभियोजन को तर्कसंगत होना होगा और अदालतों को त्वरित निर्णय लेने होंगे। सिर्फ कानून बनाने से नहीं, उसे सही समय पर और सही ढंग से लागू करने से ही न्याय प्राप्त होगा। न्याय के लिए सभी संबंधित पक्ष अपने कर्तव्यों को गंभीरता से निभाएं, तो त्वरित न्याय असंभव नहीं है। एक घटना सिर्फ एक प्रेरणा हो सकती है, समाधान नहीं। समाधान तब होगा जब यह प्रक्रिया पूरे देश की न्यायिक व्यवस्था में स्वाभाविक हो जाएगी, और तभी हम उम्मीद कर सकते है कि पीड़ितों को जल्द से जल्द और वास्तविक न्याय मिल सकेगा।