पिछले एक दशक से भारतीय अर्थव्यवस्था की गाड़ी सम्मानजनक रफ्तार से आगे बढ़ रही है। आर्थिक सर्वेक्षण 2023-24 के अनुसार पिछले तीन वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था ने सुधार की कई मंजिलें तय की हैं और इसमें व्यवस्थित तरीके से विस्तार हुआ है। वित्त वर्ष 2024 में वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का स्तर वर्ष 2020 के मुकाबले बीस फीसद अधिक हो गया है। दुनिया की कुछ ही अर्थव्यवस्थाएं हैं, जिन्होंने ऐसी संवृद्धि को बरकरार रख पाने में कामयाबी पाई है। एक आकलन के मुताबिक, भारतीय अर्थव्यवस्था वित्त वर्ष 2025 के लिए आशावादी है। व्यापक और समावेशी विकास की उम्मीद की जा रही है।

एक दशक में नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की गाड़ी त्वरित गति से आगे बढ़ रही है

समावेशी विकास के लक्ष्य को हासिल करने के लिए भारत के नीति नियंताओं ने ‘ट्रिकल-डाउन’ यानी ‘रिसाव के सिद्धांत’ पर भरोसा जताया। तमाम सामाजिक-आर्थिक नीतियों के सृजन में इसी सिद्धांत को आधार बनाया गया है। हालांकि 1991 में भारत ने उदारीकरण अपनाने के साथ ही इस सिद्धांत को अंगीकार कर लिया था। पिछले एक दशक में नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की गाड़ी त्वरित गति से आगे बढ़ रही है।

‘ट्रिकल-डाउन’ यानी रिसाव के सिद्धांत के मुताबिक धनी लोगों को दिए जाने वाले फायदे आखिरकार समाज के निचले तबके तक रिस-रिसकर पहुंचते हैं। इस सिद्धांत की मान्यता है कि मुक्त बाजार की व्यवस्था में अगर कुछ लोग बहुत अधिक तरक्की करते हैं तो उसमें कोई गलत बात नहीं, क्योंकि उनकी दौलत उनके खर्चों के माध्यम से रिस कर नीचे आएगी, जिससे समाज के निचले तबकों को भी फायदा पहुंचेगा।

इस शब्द का पहली बार इस्तेमाल हास्य कलाकार विल रोजर्स ने किया था

रिसाव की यह मान्यता पिछली सदी के 1970 के दशक से खास लोकप्रिय हुई। 1980 के दशक में अमेरिका में राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और ब्रिटेन में प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर की आर्थिक नीतियां इसी मान्यता के असर में तैयार की गई थीं। गौरतलब है कि अर्थशास्त्र की मूलभूत अवधारणाओं में ‘ट्रिकल-डाउन’ नाम का कोई बुनियादी सिद्धांत कभी नहीं रहा। इस शब्द का पहली बार इस्तेमाल हास्य कलाकार विल रोजर्स ने अमेरिकी राष्ट्रपति हर्बर्ट हूवर की आर्थिक नीतियों की आलोचना करने के लिए किया था।

भारत के प्रधानमंत्री ने तिहत्तरवें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले की प्राचीर से दिए गए भाषण में संपत्ति का सृजन करनेवाले कारोबारी वर्ग को कर आदि में रियायतें देने बात कही थी। प्रधानमंत्री का कहना था कि इस कदम से अर्थव्यवस्था में निजी पूंजी निवेश को बढ़ावा मिलेगा। रोजगार के अवसर उपलब्ध होंगे। धनाढ्य वर्ग और व्यापारियों को उद्योग और व्यापार में सुगम्यता प्रदान करने के उद्देश्य से सरकार ने अनेक सकारात्मक कदम उठाए। कारपोरेट करों में कटौती समेत कई प्रोत्साहन दिए गए।

वर्ष 2019-20 में कारपोरेट टैक्स की दर को तीस फीसद से घटाकर बाईस फीसद कर दिया गया। साथ ही सरकार ने नई निगमित घरेलू कंपनियों के लिए कारपोरेट टैक्स की दर को पद्रह फीसद कर दिया गया। लेकिन इन रियायतों के अपेक्षित नतीजे नहीं दिखते। कर में कटौती इस उम्मीद में की गई थी कि कारपोरेट क्षेत्र में निजी निवेश बढ़ेगा। वित्तीय वर्ष 2020 और 2021 में निजी पूंजी निर्माण यानी नई मशीनरी और उपकरणों की खरीद में लगातार कमी दर्ज की गई। हालांकि अगले दो वर्षों 2022 और 2023 में निजी पूंजी निर्माण में मामूली बढ़ोतरी दर्ज की गई। वित्तीय वर्ष 2019 और 2023 के दौरान निजी गैर-वित्तीय निगमों का सकल अचल पूंजी निर्माण 34.1 फीसद से बढ़कर 34.9 फीसद ही हुआ। जाहिर है, निजी क्षेत्र ने इन छूटों का उपयोग अपने संयंत्रों का विस्तार करने के बजाय देनदारियों को चुकाने में किया।

वर्ष 2019-23 की अवधि में सरकारी पूंजीगत व्यय ही अर्थव्यवस्था के पहिये को गति देने में सहायक हुआ। केंद्र सरकार का पूंजीगत व्यय 2019-20 के जीडीपी के 1.67 फीसद से बढ़कर चालू वर्ष में 3.2 फीसद तक पहुंच गया है। आर्थिक सर्वेक्षण-2024 बताता है कि वित्त वर्ष 2020 से केंद्र सरकार के पूंजीगत व्यय में साल दर साल 28.2 फीसद की रफ्तार से वृद्धि हुई है। आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण यानी पीएलएफएस के आंकड़े बताते हैं कि पिछले पांच वर्षों के दौरान श्रम के अनौपचारिकीकरण में वृद्धि हुई है।

कृषि में श्रम भागीदारी दर में इजाफा हुआ है। विकास की बुनियादी समझ कहती है कि अर्थव्यवस्था में विकास के साथ खेती में लगी श्रमशक्ति घटनी चाहिए और विनिर्माण और सेवा क्षेत्र में श्रम भागीदारी दर बढ़नी चाहिए। लेकिन इसके बरक्स खेती के कामों में लगे लोगों की संख्या 2018-19 के 42.5 फीसद से बढ़कर 2023-24 में 46.1 फीसद हो गई। इस असंबद्धता की बड़ी वजह है कि कारपोरेट क्षेत्र रोजगार सृजित करने के मामलों में नाकाम साबित हो रहा है। पीएलएफएस के आंकड़े बताते हैं कि भारतीय युवाओं के लिए नौकरियों की कमी एक समस्या बन गई है। वर्ष 2012 से 2023 के दौरान बेरोजगारी दर दुगनी हो गई है।

पिछले एक दशक के दौरान देश में प्रति व्यक्ति आय में तकरीबन पैंतीस फीसद की वृद्धि बताई गई। वर्ष 2014-15 में प्रति व्यक्ति आय 72,805 रुपए थी जो 2022-23 में बढ़कर 98,374 रुपए हो गई। इसमें वार्षिक चक्रवृद्धि दर पर मात्र 3.83 फीसद की तेजी दर्ज की गई। चूंकि, वास्तविक मुद्रास्फीति पर गंभीरता से विचार नहीं किया जाता है, इसलिए प्रति व्यक्ति आय के स्तर में वास्तविक इजाफा और भी कम रह जाएगा। अगर हम शीर्ष की एक फीसद आबादी के अलावा बाकी के निन्यानबे फीसद आबादी के प्रति व्यक्ति आय को देखें तो इसमें मामूली वृद्धि ही दिखती है। इतना ही नहीं, आर्थिक विषमता की खाई भी गहरी हो गई है। पेरिस स्थित शोध संगठन ‘वर्ल्ड इनइक्वलिटी लैब’ की ओर से हाल में जारी एक शोधपत्र के मुताबिक देश के शीर्ष एक फीसद तबके की आमदनी में हिस्सेदारी अपनी ऐतिहासिक ऊंचाई पर पहुंच गई है। वर्ष 2023 तक सबसे अमीर एक फीसद भारतीयों के पास देश की आय का 22.6 फीसद हिस्सा था।

घरेलू बचत के मोर्चे पर भी बहुत आशाजनक माहौल नहीं दिखता। वित्त वर्ष 2022 में शुद्ध घरेलू बचत दर 7.3 फीसद से घटकर 5.3 फीसद के स्तर पर आ पहुंची है। यह गत सैंतालीस वर्षों का सबसे निचला स्तर है। दूसरी तरफ परिवारों पर देनदारी यानी ऋण का बोझ बढ़ रहा है। क्रिसिल की एक रपट के अनुसार, वर्ष 2017 में कुल खुदरा ऋण जीडीपी का 12.1 फीसद था जो 2023 में बढ़कर 19.4 फीसद हो गया। वहीं देश में धनकुबेरों की संख्या में वृद्धि हो रही है। दुनिया के अमीर लोगों की ‘फोर्ब्स’ सूची के अनुसार वर्ष 2014 से 2022 के दौरान, भारतीय अरबपतियों की शुद्ध संपत्ति में 280 फीसद की वृद्धि हुई है। जबकि इसी अवधि में राष्ट्रीय आय में 27.8 फीसद वृद्धि हुई है।

रिसाव के सिद्धांत यानी ‘ट्रिकल-डाउन’ के समर्थकों का तर्क है कि धनी लोगों और कारपोरेट के हाथों में अधिक धन होने से व्यय, बचत, निवेश और रोजगार आदि को बढ़ावा मिलता है। इससे सभी को लाभ होता है। लेकिन भारत के मौजूदा आर्थिक नतीजे बताते हैं कि देश में ‘ट्रिकल-डाउन’ कारगर नहीं दिखता। आर्थिक नीतियां ऐसी होनी चाहिए जो सिर्फ गिने-चुने लोगों या तबकों को लाभ पहुंचाने के बजाय सभी के लिए हितकारी हों। भारतीय ज्ञान परंपरा में कहा ही गया है- ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’। यही सूक्ति समग्र आर्थिक नीतियों का प्रेरक दर्शन बने, तभी बृहतर कल्याण के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकेगा।