पिछले कुछ वर्षों से देश के परिवारों, खासकर मध्यवर्गीय परिवारों का व्यय लगातार बढ़ रहा है। इस अनुपात में उनकी आय में वृद्धि नहीं हो रही, इस कारण उनकी बचत भी निरंतर घट रही है। हाल ही में सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों में बताया गया कि देश में परिवारों की शुद्ध बचत पिछले तीन वर्षों में नौ लाख करोड़ रुपए से अधिक घटकर वित्तवर्ष 2022-23 में केवल 14.16 लाख करोड़ रुपए रह गई। मंत्रालय द्वारा जारी ताजा राष्ट्रीय खाता सांख्यिकी 2024 के अनुसार वित्तवर्ष 2020-21 में परिवारों की शुद्ध बचत 23.29 लाख करोड़ रुपए पर पहुंच गई थी, और उसके बाद से इसमें लगातार गिरावट आ रही है। वित्तवर्ष 2021-22 में देश के परिवारों की शुद्ध बचत घटकर 17.12 लाख करोड़ रुपए रह गई। यह पिछले पांच वर्षों में बचत का सबसे निचला स्तर है।

बचत घटने का सबसे बड़ा कारण परिवारों के जीवन निर्वाह व्यय और अन्य व्ययों में बढ़ोतरी है। जीवन निर्वाह व्यय किसी एक खास स्थान और समय अवधि के दौरान आवास, भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, कर जैसे मूलभूत व्ययों के लिए जरूरी धन की मात्रा है। अगर देश में महंगाई बढ़ती है तो इनके लिए किए जाने वाले खर्च की राशि भी बढ़ती है। बढ़ी हुई महंगाई गरीब, मध्यवर्गीय और गरीबी से नीचे के लोगों को प्रभावित करती है। महंगाई का सबसे बुरा असर गरीब वर्ग पर पड़ता है।

दैनिक उपभोग की वस्तुओं के मूल्य में बढ़ोतरी से आम भारतीय परिवारों की जीवन स्तर निरंतर गिरता जा रहा है। हालांकि सरकार द्वारा समय-समय पर जारी किए जाने वाले थोक और खुदरा महंगाई दर के आंकड़ों के अनुसार महंगाई घटती हुई प्रतीत होती है, लेकिन बाजार में वह कहीं नजर नहीं आती। व्यवहार में छोटी-मोटी वस्तुएं, जो कुछ वर्ष पहले रुपए-दो रुपए में मिलती थी, पहले वह पांच रुपए की हुई, अब दस रुपए की है। दस रुपए एक तरह से मुद्रा की न्यूनतम इकाई हो गई है। इस तरह छोटी-मोटी वस्तुओं की कीमत पांच से दस गुना तक बढ़ गई। पिछले कुछ वर्षों में यह चलन आम हो गया है कि बाजार में वस्तुओं की कीमत बढ़ी हुई न दिखे, इसलिए निर्माताओं ने मूल्य वही रखते हुए उसकी मात्रा या वजन घटा दिया। इससे वह जल्दी-जल्दी समाप्त होने लगी, बार-बार खरीदने की जरूरत के चलते जिस वस्तु का मूल्य घटा हुआ दिखता है, वह वास्तव में पहले से ज्यादा महंगी पड़ने लगी है।

जो परिवार किराए के घर में रहता है, उसके किराए में कुछ वर्षों में ही डेढ़ गुना तक वृद्धि हो चुकी है। सार्वजनिक परिवहन की लागत भी कोरोना काल के बाद तेजी से बढ़ी है। जिस व्यक्ति को अपने काम के अनुसार पूरे शहर में यात्रा करनी पड़ती है, उसके लिए बस, टैक्सी, मेट्रो आदि का किराया और पेट्रोल आदि का खर्च भी काफी बढ़ गया है। यह गत पांच वर्षों में लगभग तीन गुना से ज्यादा हो गया है।

खर्च के साथ-साथ परिवारों की ऋणग्रस्तता भी बढ़ रही है। टिकाऊ उपभोक्ता उत्पादों के आक्रामक विज्ञापनों ने एक सामान्य परिवार की जरूरतों को अनावश्यक रूप से बढ़ा दिया है। व्यक्ति अपनी क्रय क्षमता न होते हुए भी चीजें ‘जीरो परसेंट फाइनेंस’ जैसे विज्ञापनों से आकर्षित होकर खरीद लेता है। परिणाम यह होता है कि उसकी मासिक किश्त परिवार के खर्च को बढ़ा देती है। यह बात टीवी, फ्रिज, वाशिंग मशीन, एअर कंडिशनर, स्मार्ट फोन आदि जैसे उत्पादों के मामले में लागू होती है। बढ़ी हुई किश्त के कारण परिवार की आय की लगभग पचहतर फीसद राशि केवल इन सबमें ही खर्च हो जाती है। परिणाम यह होता है कि व्यक्ति को अपने परिवार की मूलभूत जरूरतों में कटौती करनी पड़ती या और उधार लेना पड़ता है।

बढ़ते खर्च के अनुपात में सामान्य परिवार की आय में वृद्धि नहीं हुई है। इससे भी परिवार की बचत प्रभावित हुई है। पारिवारिक आय वह आय है, जो किसी परिवार के सभी सदस्यों के सभी स्रोतों से आती है। इसमें परिवार के सदस्यों का वेतन, किराया, बैंक से प्राप्त होने वाला ब्याज तथा परिवार के सदस्यों द्वारा अपने कौशल का प्रयोग करके की गई बचत आदि सब कुछ शामिल है। ‘इंडियाज पर्सनल फाइनेंस पल्स’ नाम से किए गए एक सर्वेक्षण में यह तथ्य सामने आया कि 69 फीसद परिवार अपनी वित्तीय असुरक्षा और कमजोरी का सामना कर रहे हैं। इस रपट के अनुसार देश में औसतन 4.2 सदस्यों वाले एक परिवार की आय लगभग तेईस हजार रुपए प्रति माह है। वहीं 46 फीसद से अधिक परिवारों की औसत आय पंद्रह हजार रुपए प्रति माह से भी कम है। इस सर्वेक्षण रपट में यह भी बताया गया है कि देश के सिर्फ तीन फीसद परिवारों का ही जीवन-स्तर विलासितापूर्ण है और उनमें से अधिकतर परिवार उच्च आयवर्ग के हैं। आय के इन आंकड़ों से यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि अधिकांश भारतीय परिवारों के लिए जीवन की मूलभूत जरूरतों की पूर्ति ही उनके लिए मुश्किल है। बचत बढ़ना तो दिवा स्वपन्न जैसा ही है।

आय और बचत के असंतुलन का मुख्य कारण बढ़ती बेरोजगारी और घटता हुआ गुणवत्तापूर्ण रोजगार भी है। अगर हम भारत में बेरोजगारी दर के वर्ष 2008 से 2024 तक के रुझानों को देखें बेरोजगारी में कोई उल्लेखनीय कमी नहीं आई है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएसओ) के अनुसार जनवरी-मार्च 2023 के दौरान शहरी क्षेत्रों में 15 वर्ष और उससे अधिक आयु के व्यक्तियों के लिए बेरोजगारी दर एक साल पहले के 8.2 फीसद थी जो घटकर 6.8 फीसद हो गई। जनवरी 2024 में बेरोजगारी दर पिछले 16 महीनों में सबसे कम रही है।

हालांकि, 2023 की अक्तूबर-दिसंबर तिमाही में बीस से तीस वर्ष की आयु के युवाओं में बेरोजगारी में वृद्धि दर्ज की गई है। बीस से चौबीस वर्ष आयु के युवाओं में बेरोजगारी बढ़कर 44.49 फीसद हो गई, जो जुलाई-सितंबर तिमाही में 43.65 फीसद थी। इसी तरह 25 से 29 वर्ष के युवाओं में बेरोजगारी 2023 की अक्तूबर-दिसंबर तिमाही में बढ़कर 14.33 फीसद हो गई, जो पिछली तिमाही में 13.35 फीसद थी। ऐसे बहुत से रोजगार हैं, जिनमें वर्ष के तीन-चार माह ही काम मिलता है, शेष अवधि में नहीं। इसी तरह दिहाड़ी मजदूरों को सामान्यतया पूरे महीने काम नहीं मिलता। इस तरह से देखें तो वास्तविक बेरोजगारी जारी होने वाले आंकड़ों कहीं अधिक होती है।

परिवार की आय और खर्च में संतुलन की दृष्टि से यह जरूरी है कि परिवार के सभी सदस्य मिल-जुल कर आपनी आय के स्रोत बढ़ाएं। घर के खर्च का एक आदर्श बजट बनाएं और उसके अनुरूप ही खर्च तय करें। जहां तक हो सके ऋण से बचें, अगर जरूरी ही है तो उसको चुकाने के स्रोत और अवधि का पूर्व निर्धारण कर लें। घर खर्च का इस प्रकार से नियोजन करें कि एक राशि बचत के रूप में सुरक्षित निवेश करें।