कचरा आज विश्व के विभिन्न देशों के बीच अंतरराष्ट्रीय व्यापार में शुमार हो चुका है। हमारे देश में सालाना करीब 34 लाख टन अकेले प्लास्टिक कचरा पैदा होता है। एक ताजा अध्ययन के मुताबिक वर्ष 2030 तक ई-वेस्ट, बैट्री पुनर्चक्रण क्षेत्र 9.5 अरब डालर का हो जाएगा। दिनोदिन कचरे का दबाव इतना बढ़ता जा रहा है कि पर्यावरण बचाने और पुनर्चक्रण कर दुबारा इस्तेमाल के लिए आज तमाम समृद्ध देश इलेक्ट्रानिक और मेडिकल कचरा-निस्तारण के सस्ते संसाधन प्रबंधित करने में जुटे हैं। भारत समेत दुनिया के कई देश करोड़ों लाख टन कूड़ा-करकट हर साल आयात-निर्यात कर रहे हैं, जिसमें डेढ़ दशक में 77 फीसद तक उफान आ चुका है।
भारत में कागज उद्योग भारी मात्रा में कचरे से नया कागज बना रहा
एक ओर जहां कच्चे माल और ऊर्जा की किल्लत दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है, वहीं तापबिजली संयंत्रों से निकले कचरे के निपटान के लिए भारतीय सीमेंट उद्योग राख, फ्लाईऐश का उपयोग बढ़ाकर ऊर्जा की लागत और कार्बन डाई आक्साइड का उत्सर्जन कम करने में जुटा है। इसी तरह भारत में कागज उद्योग भारी मात्रा में कचरे से नया कागज बना रहा है। हमारे देश में हर साल पांच लाख टन से अधिक तो इलेक्ट्रानिक कचरा निकल रहा है, जिसमें कंप्यूटर से लेकर फैक्स मशीन, मोबाइल फोन तक शामिल हैं। इस बीच अपने-अपने परिक्षेत्र का पर्यावरण बचाने के लिए यूरोपीय संघ, जापान आदि व्यापार के नाम पर अपना इलेक्ट्रानिक कचरा दुनिया के दूसरे देशों पर थोपने की जुगत में हैं।
प्लास्टिक की खपत सालाना 9.7 फीसद की दर से बढ़कर दो करोड़ टन
भारत में प्रतिवर्ष पैदा हो रहे करीब 34 लाख टन प्लास्टिक कचरे में से मात्र 30 फीसद पुनर्चक्रित हो पा रहा है। इस बीच बीते पांच-छह वर्षों (2016 से 2021) में देश में प्लास्टिक की खपत सालाना 9.7 फीसद की दर से बढ़कर दो करोड़ टन से ज्यादा हो चुकी है। अकेले तीन राज्य- महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु- ही कुल प्लास्टिक कचरे का 38 फीसद पैदा करते हैं।
गांवों में औसतन 67 फीसद परिवार नियमित रूप से प्लास्टिक कचरा जलाते हैं
‘रूरल प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट स्टडी-2022’ के मुताबिक, ग्रामीण भारत में औसतन 67 फीसद परिवार नियमित रूप से प्लास्टिक कचरा जला देते हैं। इसका पर्यावरण पर परोक्ष प्रभाव सामने आ रहा है। निस्तारण-संसाधनों का हाल यह है कि देश के मात्र 36 फीसद गांवों में सार्वजनिक कूड़ेदान हैं। लगभग 70 फीसद गांवों में एकल उपयोगी प्लास्टिक, कागज, कार्डबोर्ड, प्लास्टिक, रैपर, बोतलें, डिब्बे आदि ढोने के वाहन तक नहीं हैं। मात्र 47 फीसद गांवों में एक-एक सफाई कर्मचारी हैं।
बेहतर प्रोसेसिंग प्रणाली के जरिए देश में सूखा कचरा पुनर्चक्रित कर हर साल 10-11 हजार करोड़ और गीले कचरे से 2000 करोड़ रुपए से अधिक की कमाई की जा सकती है। देश में हर साल पड़े-पड़े सड़ जा रहे लाखों टायरों और खपत के अनुपात में भारी मात्रा में अनुपयोगी रह जा रहे नारियल कचरे से भारी राजस्व पैदा किया जा सकता है। हर साल करीब 10 लाख टन प्लास्टिक कचरा निकल रहा है, जिनमें से प्लास्टिक की बोतलों से कपड़े का उत्पादन हो रहा है। दिल्ली, मुरादाबाद, पानीपत आदि में कचरा पुनर्चक्रण अरबों डालर का उद्योग बन चुका है। हालांकि छोटे-मझोले शहरी इलाकों में इसके रास्ते में अभी कई तरह की बड़ी रुकावटें हैं।
इस दिशा में तमिलनाडु की पहल बढ़त बनाए हुए है। राज्य की ओर से वहां कचरा निस्तारण की एक बेहतर अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली काम कर रही है। कचरा बैंक हैं, जहां छह रुपए किलो कचरा बिक जाता है। पिछले पांच-छह वर्षों से यह प्रणाली स्वयं घरों के कचरे अलग करती है। स्कूलों, कालेजों, अस्पतालों, आवासीय समुदायों, कार्यक्रमों के माध्यम से इस दिशा में लोगों को जागरूक, शिक्षित, सशक्त और समृद्ध करने की सामाजिक पहल तेज होने लगी। फिर धीरे-धीरे कागज, प्लास्टिक, धातुएं और ई-अपशिष्ट कचरा छंटाई के बाद बैंकों तक पहुंचने लगे। अब यह सामूहिक उद्यम सदस्यों की पूर्णकालिक नौकरियों में तब्दील हो चुका है। कचरा संग्रहण के लिए लोगों के एक समूह को अलग-अलग दिनों में अलग-अलग स्थानों पर तैनात किया जाता है।
जीवन की अपनी चाल है, बाजार की अपनी। सेहत और संपदा के अर्थों में वैश्विक कचरा कारोबार दुधारी तलवार की तरह काम कर रहा है। सामान्य रूप से, आर्थिक विकास और शहरीकरण जिस रफ्तार से बढ़ रहा है, उतना ही ज्यादा ठोस कचरा पैदा हो रहा है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर कोई शुल्क, कोटा या अन्य प्रतिबंध न होने से वैश्विक मुक्त बाजार नीति ने कचरा व्यापार को सुविधाजनक बनाया है।
विकासोन्मुख देश, विकसित देशों अमेरिका, यूरोप आदि से भारी मात्रा में ठोस कचरा आयात कर रहे हैं। हर साल अमेरिका और यूरोप में पांच लाख टन से अधिक जमा हो रहा इलेक्ट्रानिक कचरा पूरी दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ रहा खतरनाक अपशिष्ट है, जिसे निर्यात के बहाने एशिया, अफ्रीका के देशों में प्रसंस्करण और पुनर्चक्रण के लिए भेजा जा रहा है। इनकी धातुओं के विषाक्त और रासायनिक पदार्थ, पर्यावरण, नदियों और भूजल को बुरी तरह प्रदूषित कर रहे हैं। इनकी छंटनी आदि में लगे लोग इसके जानलेवा खतरों से जूझ रहे हैं।
साथ ही, पूरे विश्व में यह सच्चाई भी रेखांकित हो चुकी है कि विकासशील और गरीब देश खतरनाक कचरे का ‘विषाक्त कचराघर’ बनते जा रहे हैं। गरीब देशों में विषैले कचरे के मनमाना निपटान के कारण कई लोगों को तीव्र ‘ग्लाइसेमिया’ से पीड़ित पाया गया है। ज्यादातर को अविकसित आदिवासी बहुल क्षेत्रों में पटका जा रहा है। विषैले कचरा प्रसंस्करण संयंत्रों के संचालन में अत्यधिक सावधानी का तकाजा होता है, जिसे पर्याप्त नहीं पाया गया है।
खासकर एशिया के विकासशील देशों को एक और बड़ा खतरा मलबे का ढेर बन रहे पुराने जहाजों से है, जिन्हें उद्योगीकृत देश सस्ते में चीन और बांग्लादेश भेज देते हैं। इनमें भारी मात्रा में लेड आक्साइड, जिंक क्रोमेटेस, पारा, अर्सेनिक और ट्राइब्यूटिलटिन जैसे सेहत को नुकसान पहुंचाने वाले पदार्थ होते हैं। प्लास्टिक अपशिष्ट व्यापार वैसे भी सामुदायिक कचरे की सबसे बड़ी चुनौती बन चुका है। सच यह भी है कि प्लास्टिक अपशिष्ट आयात करने वाले देशों के पास नितांत अपर्याप्त प्रसंस्करण क्षमता है।
जहरीले अपशिष्ट निपटान की विधियां आमतौर पर सुर्खियों में आती रहती हैं। कामकाजी लोग प्रसंस्करण के दौरान विषाक्त रसायन के संपर्क में आने से सेहत के खतरे झेलने को अभिशप्त होते हैं। इन्हीं वजहों से 24 अप्रैल, 2018 को फिलीपींस के राष्ट्रपति ने विश्वमंच पर युद्ध तक की धमकी देते हुए कनाडा से गलत चिह्नित कचरा वापस लेने की मांग उठा दी थी।
कनाडा ने फिलीपींस को वह कचरा लौटा लेने को आश्वस्त तो किया, लेकिन उस पर वर्षों तक अमल नहीं किया। अतीत में ऐसे ही विरोध के मानवाधिकारवादी स्वर मलेशिया, थाईलैंड, इंडोनेशिया, विएतनाम, म्यांमा आदि देशों में भी उठते रहे हैं। ऐसे में यह सोचना असंगत न होगा कि पर्याप्त सजगता और सुरक्षा प्रबंधन के अभाव में कचरा कारोबार निकट भविष्य में पूरी दुनिया के जी का जंजाल बन सकता है।
