इंसान ने कितनी तरक्की की है, इसका मूल्यांकन उसके वैज्ञानिक और तकनीकी आविष्कारों तथा उपलब्धियों से किया जाता है। हाल में परागण के लिए कृत्रिम भंवरों का निर्माण एक ऐसी उपलब्धि है, जो मानव की असाधारण सोच और नवाचार क्षमता को दर्शाती है, लेकिन यह प्रगति बहुत कुछ सोचने पर भी मजबूर करती है। ब्रिटेन के वैज्ञानिकों ने हाल में ऐसे रोबोटिक भंवरे तैयार किए हैं, जो मधुमक्खी की तरह तेजी से पराग कण ले जा सकेंगे। इससे पौधों में सुविधानुसार प्रजनन कराना आसान होगा। ये कृत्रिम भंवरे आगामी कुछ वर्षों में व्यावसायिक उपयोग के लिए उपलब्ध होंगे। ये रोबोटिक कीट एक हजार सेकंड तक आसमान में मंडरा सकते हैं।
वैज्ञानिकों ने इसे दस हजार सेकंड तक पहुंचाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। दावा है कि इन कृत्रिम भंवरों की बदौलत किसान बंद कमरे में फल और सब्जियां उगाने में समक्ष होंगे। फसल उत्पादन बढ़ेगा और मौसम की प्रतिकूलता का कोई असर नहीं होगा। इस दावे से हम खुश हो सकते हैं, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या यह उपलब्धि वास्तव में प्रकृति की अवहेलना की ओर इशारा नहीं कर रही है?
कुदरत ने कीट-पतंगों की एक सजीव व्यवस्था बनाई है, जो पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी संभालती है। ये कुदरती कीट-पतंगे परागण के माध्यम से फसलों, फूलों और वनों को जीवन प्रदान करते हैं, लेकिन अफसोस का विषय है कि पिछले कुछ दशकों में वनों की कटाई, कृषि में जहरीले रसायनों के उपयोग और प्रदूषण ने इन कीट-पतंगों की आबादी को खतरनाक रूप से कम कर दिया है। आज जब वैज्ञानिक कृत्रिम भंवरों का निर्माण कर रहे हैं तो यह साफ इशारा है कि हम कुदरत के मूल तत्त्वों को खत्म कर उनकी जगह कृत्रिम उपायों का सहारा ले रहे हैं। तकनीकी प्रगति का उद्देश्य मानव जीवन को सरल बनाना है, लेकिन जब यह प्रगति प्रकृति के साथ संघर्ष में आ जाती है तो इसके परिणाम विनाशकारी हो सकते हैं।
बीते वर्षों में पूरी दुनिया में कीट-पतंगों की संख्या लगातार घटने संबंधी शोध एवं अध्ययन सामने आए हैं। वैज्ञानिक चेताते आ रहे हैं कि समूचा पारिस्थितिकी तंत्र खाने और परागण के लिए इन कीटों पर निर्भर है। ये कीट न होंगे तो परागण नहीं होगा। परागण के बिना कोई भी फल, सब्जी या अन्य खाद्य उत्पन्न नहीं हो सकता। ये कीट न होंगे तो इन कीटों को खाकर जिंदा रहने वाले परिंदे कैसे बचेंगे। जब परिंदे प्रभावित होंगे तो स्तनधारी कब तक बच पाएंगे।
एक अध्ययन के अनुसार अकेले भारत में ही हर दिन कीट-पतंगों की डेढ़ सौ प्रजातियां खत्म हो रही हैं। मधुमक्खियां, ततैये, कई तरह की तितलियां, जुगनू, भंवरे आदि लुप्त हो रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (यूएनएफएओ) वर्ष 2019 में ही सचेत कर चुका है कि सदियों से मधुमक्खियों सहित अन्य परागणकारी जीव कृषि उत्पादन और जैव विविधता में बहुमूल्य योगदान देते आए हैं और दुनिया में तीन चौथाई से ज्यादा फसलों का परागण करते हैं, लेकिन उनकी संख्या में लगातार कमी आने से वैश्विक खाद्य सुरक्षा के सामने एक बड़ा खतरा पैदा हो रहा है।
मानवीय गतिविधियों के प्रभाव के चलते परागणकारी जीवों की संख्या में गिरावट दर्ज की जा रही है और उनकी कुछ प्रजातियां हमेशा के लिए लुप्त हो सकती हैं। संगठन के अनुसार प्रतिकूल मानवीय गतिविधियां जलवायु परिवर्तन, कीटों के प्राकृतिक आवास, भोजन, जरूरत से ज्यादा कीटनाशकों के इस्तेमाल इसकी बड़ी वजह है। इसके साथ-साथ कई बीमारियां और हानिकारक कीट भी परागणकारी जीवों को नुकसान पहुंचा रहे हैं।
यूएनएफएओ के अनुसार परागणकारी जीवों में सबसे लोकप्रिय मधुमक्खियां हैं और उनकी पच्चीस से तीस हजार प्रजातियां हैं। पालतू मधुमक्खियों की तुलना में जंगली मधुमक्खियां ज्यादा बेहतर ढंग से परागण करती हैं, क्योंकि उनके पास अधिक संख्या में रोएं होते हैं, जिससे जब वे पराग कणों की तलाश में जाती हैं तो वे चिपक जाते हैं। यूएनएफएओ ने मधुमक्खियों और अन्य परागणकारी जीवों के संरक्षण की अपील करते हुए पृध्वी को स्वस्थ बनाए रखने और जैव विविधता कायम रखने में उनकी अहम भूमिका को रेखांकित किया था, मगर खाद्य सुरक्षा को बनाए रखने में योगदान देने वाले कीटों पर खतरा बढ़ता जा रहा है।
विदेशों में किए गए सोलह अध्ययनों के मेटा विश्लेषण के अनुसार पिछले चालीस वर्षों में कीटों की आबादी में लगभग पैंतालीस फीसद की गिरावट आई है। कीटों की बड़े पैमाने पर मृत्यु न केवल उनके अस्तित्व वाले पारिस्थितिकी तंत्र के लिए, बल्कि हमारी कृषि के लिए भी बहुत बड़ा खतरा बन रहा है। भारत में कीट पतंगों पर छाया संकट भावी परेशानी का संकेत है। भारत में आम, सेब और सरसों जैसी फसलें कीटों पर निर्भर हैं। अगर प्राकृतिक परागणकारी विलुप्त हो जाते हैं, तो इन फसलों का उत्पादन गंभीर रूप से प्रभावित होना तय है।
ये नन्हे कीट-पतंगे केवल परागण नहीं करते, वे खाद्य शृंखला का भी महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं। अगर ये कीट नष्ट हो जाते हैं तो पक्षियों, सरीसृपों और अन्य जीवों के लिए भोजन की कमी हो जाने का खतरा है। हमारे देश में हर साल कीटनाशकों का अंधाधुंध उपयोग लाखों कीटों को मार देता है। पंजाब और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में कीटनाशक विषाक्तता ने न केवल कीटों, बल्कि कई छोटे पक्षियों के अस्तित्व पर संकट खड़ा कर दिया है।
तमाम चेतावनियों के बावजूद कीट-पतंगों को विलुप्त होने से बचाने के लिए जरूरी उपाय करने की पहल तो कहीं नजर नहीं आई, लेकिन कृत्रिम कीट-पतंगे बनाने की ओर जरूर कदम बढ़ा दिए गए हैं। इस बात पर चिंतन करने की जरूरत है कि इंसान को उस दिशा में क्यों कदम बढ़ाने पड़ रहे हैं, जहां उसे प्रकृति के बजाय मशीनों पर निर्भर होना पड़े? क्या यह इस बात का प्रतीक नहीं है कि आज इंसान अपने द्वारा पैदा की गई समस्याओं का समाधान खोजने के लिए मजबूर हो गया है? अगर कीट-पतंगों के संरक्षण के लिए समय पर ठोस कदम उठाए गए होते, तो आज हमें कृत्रिम भंवरों की जरूरत ही क्यों पड़ती?
जापान में ड्रोन मधुमक्खियों का उपयोग पहले से किया जा रहा है, जो फूलों पर जाकर परागण करती हैं। इसी तरह नीदरलैंड के वैज्ञानिकों ने नैनो रोबोट विकसित किए हैं, जो पराग कणों को एक फूल से दूसरे फूल तक पहुंचा सकते हैं। ब्रिटेन में परागण के लिए कृत्रिम भंवरों का निर्माण निश्चित रूप से एक उपलब्धि है लेकिन यह उपलब्धि कुदरत की बनाई प्राकृतिक व्यवस्था को सहेज कर नहीं रख पाने की विफलता है।
कृत्रिम भंवरे एक अस्थायी समाधान तो हो सकते हैं, लेकिन कुदरती व्यवस्था का विकल्प कभी नहीं बन सकते। हमारी भलाई कुदरत के साथ सामंजस्य बनाकर चलने में ही है। हमें अपनी जरूरतों और प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार करना चाहिए। हमें यह तो सोचना ही चाहिए कि जो कुछ सहज प्राकृतिक रूप से उपलब्ध है, उसे पहले हम नष्ट और फिर उसका विकल्प बनाने पर क्यों बाध्य हो रहे हैं।